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२८, वर्ष ३६, कि०१
अनेकान्त
मरण और शरण
जेनेतर मान्यताओं की विवेचना उपदेशों मे सांसारिक नश्वरता का मनोहारी चित्रण उपदेशकों ने जैनधर्म मे दृढ़ता उत्पन्न करने के लिए है। यथार्थता को प्रकट करते हुए उन्होने समझाया है कि जैनेतर मान्यताओं को उपदेशो में समझाने का प्रयत्न हे जीव ! मरण आने पर कही भी शरण प्राप्त नही नही किया है। उन्होने कहा कि बुद्ध के क्षणिकबाद में यदि होती। यमराज के सम्मुख कवच बेकार हो जाते है। जीव क्षण-क्षण मे उत्पन्न होता रहता है, तो प्रश्न उत्पन्न अन्त.पुर की स्त्रिया भी मृत्यु के आने पर छाती पीटती होता है कि जो जीव घर से बाहर चला जाता है वही रह जाती है। सुख से रहने वाले राज मुकूटबद्ध लोगो का घर कसे लौटता है। इसी प्रकार शन्यवादी जो जगत् में भी आयुबन्ध क्षीण हो जाता है, आती हुई मत्यु को कोई शून्य का विधान करते है तो उनके सम्बन्ध मे प्रश्न उत्पन्न दुर्ग भी नहीं रोक सकता। यह सच है कि ध्वजा पताका होता है कि उनके पचेन्द्रियदण्डन चीवतरधारण, व्रत से विनाश ढका नही रह सकता। राज्य की आकांक्षा के पालन सात घड़ी दिन रहते भोजन तथा सिर का मुडन वशीभूत एवं लक्ष्मी के सूखो का उपभोग करने वाले कैसे होता है ? राजाओ मे ऐसे कौन है जो नारकी गण द्वारा मारो मारो शैव मतावलम्बी गगन को सदाशिव कहते है। गगन ध्वनि से गजते हए रोरव नरक मे जाकर नही पड़ते। निष्कल है। जो निष्कल है वह स्वय कैसे पढेगा और
किसी अन्य को कैसे पढ़ायेगा? मोक्ष का मार्ग कैसे पाप क्षय
दिखावेगा ? निष्कल अष्ट प्रकृति रूप अंगो को कैसे धारण __मन और इन्द्रियाँ पापास्रव की हेतु है। इन्हे ज्ञान करता है तथा दूसरो को कैसे प्रेरित करता और रूपी अंकुश से रोका जा सकता है। स्वाध्याय कर सुदृढ़ राकता है । शृंखला के द्वारा शुभध्यान रूपी खम्भे से उन्हें बाधा जा जो निष्फल है वे तो निश्चल वा ज्ञान शरीरी होते सकता है। आचार्यों ने कहा कि ऐसा कौन-सा पाप है जो हुए स्वभावत: सिद्ध रूप से रहते है। न वे स्वय मरते धर्म के द्वारा न खपाया जा सके।
है न उत्पन्न होते है, वे ससार यात्रा में अपने को क्यो
डालेगे? लोक की स्थिति
अवतारवाद के सम्बन्ध में मुनियो ने कहा कि जैसे उपदेशों में लोक के सम्बन्ध में भी कहा गया है कि उबले जो पुनः कच्चे जो में नही बदले जा सकते, घी पुनः यह ससार न ब्रह्मा के द्वारा निर्मित है, न विष्णु द्वारा दूध नहीं बन सकता। इसी प्रकार सिद्ध हुआ जीव पुनः धारण किया गया है और न ही शिव के द्वारा नष्ट किया देह भार का ग्रहण और विमोचन करने रूप भवसागर मे जाता है। त्रैलोक्य के बीच अनेक द्वीप-समुद्रो से शोभित भ्रमण नही कर सकता है। यह मध्य लोक अपने आप अनन्तानन्त आकाश के मध्य
ईश्वरवाद के सम्बन्ध मे उपदेशों मे तर्क संगत प्रश्न स्थित है। यह तीन प्रकार है- प्रथम महलक अर्थात्
मिलते हैं जैसे, यदि ईश्वर सर्वार्थ सिद्ध है तो उसे बैल शकोरे के समान, द्वितीय बज्र के समान और तृतीय
रखने से क्या प्रयोजन ? यदि वे दयालु हैं तो उन्हे रोद्र मृदंग के समान ।
शूल रखने से क्या लाभ ? जो वे आत्म सन्तोष से तृप्त हैं
तो उनके हाथ में भिक्षा के लिए कपाल क्यों ? इसी संसार में सर्वाधिक शक्तिमान मोह ही है, जिससे प्रकार यदि वे पवित्र है तो हड्डियों के भूषण की उन्हें ज्ञानियो का ज्ञान भी ढक जाता है। इससे मिथ्यादर्शन का चाह क्यों ? प्रसार होता है। अतः उपदेशकों की दृष्टि में यह सेव्य वेद अपौरुषेय हैं इस मान्यता के सम्बन्ध में भी मही है।
मुनियों ने गहराई गे विचार किया है। उनका कथन है