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परिपह-मोह ने पंचवतों के नाक बदलाए
३. स्तेय से , ,, -स्तेय + महा + व्रत स्तेय महाव्रत ४. अब्रह्म से , , , =अब्रह्म+महा +व्रत= अब्रह्म महाव्रत
५. परिग्रह से ,, ,, परिग्रह+महा+व्रत परिग्रहमहावत २-अन्य कई प्राचार्यों के मत में :- (वरण अर्थ) अणवत : १. अहिंसा से अणुरूप मे रति-अहिंसा+अणु+व्रत-अहिंसाणुव्रत
२. अनुत ॥ ॥ ॥ ॥ =अनृत+अणु+व्रत अनृताणुव्रत .. अस्तेय , , , , =अस्तेय+अणु+व्रत-अस्तेयाणुव्रत ४. ब्रह्म से . , , =ब्रह्म+अणु+व्रत ब्रह्माणुव्रत
५. अपरिग्रह , , , अपरिगह+अणु+व्रतअपरिग्रहाणुव्रत महावत : १. अहिंसा से महतुरू। में रति =अहिंसा+महा+व्रत-अहिंसा महाव्रत
२. अनृत , , , , =अनृत- महा + व्रत = अनृत महाव्रत ३. अस्तेय से ॥ ॥ ॥ =अस्तेय + महा + व्रत अस्तेय महाव्रत ४. ब्रह्म , , , , ब्रह्म + महा+क्तब्रह्म महाव्रत
५. अपरिग्रह से , ,, अपरिग्रह + महा +व्रत= अपरिग्रह महाव्रत । वर्तमान में व्रतों मे प्रचचित नामो से 'विरति' पोषक अपनाया। अर्थात् उनके मत में जहां हिंसा का वारण आचार्य श्री उमास्वामी सहमत नहीं। प्रचलित नामो से होता है वहां हिंसा-व्रत (हिंसाविरति) होता है; आदि । 'रति' पोषक आचार्यों का ही सम्बन्ध है और ये रति- यदि हम 'व्रत' शब्द को निवारण अर्थ में न लेकर 'वरण' पोषण प्राणियों की राग-भाव प्रवृत्ति के कारण है। करने के अर्थ में लेंगे तो इससे आ० उमास्वामी का क्योंकि जीवो का अभ्यास प्रवृत्तिरूप मे सहज है और वे मन्तव्य पूग बदल जाएगा यानी हिंसा का वरण करना विरत होने के अभ्यासी नही है। -वे विरतहोने को हिंसावत होगा और तब सूत्र का विरति' शब्द भी व्यर्थ कठिन समझते है और रत होने में सुख मानते हैं। यही हो जायगा तथा पाप को बढावा मिलेगा। कारण है कि वे 'वा' धातु के 'वणोति' (वरण करना) आ० उमास्वामी सम्मत 'विरति' को मुख्य मानकर के भाव मे निष्पन्न 'व्रत' शब्द को ग्रहण करने के प्रभ्यासी जब हम 'विरति' अर्थात् अपरिग्रह को मूल जैन-संस्कृति बनते रहे है और उन्होने अहिंसा आदि को अणु या महत् मानने की बात करते है तब कुछ लोग उसे 'महाभारत' के रूप मे वरण करना श्रेष्ठ माना है, जैसा कि देखने में आ 'अहिंसा परमोधर्मः यतो धर्मस्ततः ......'जैसे नारे में रहा है-अहिंमा+ अणु+व्रत आदि। जब कि उन्हें विलीन करने का प्रयास करते है। हमे नहीं मालम कि सोचना चाहिए था कि वरण करने जैसे भाव में परिग्रह उक्त वाक्य किस जैनाचार्य का है (किसी जैनाचार्य का हो से छूट भी सकेगे या नहीं?
तो दिशा-बोध दे, हम साभार विचार करेंगे) और-हमारी आचार्य उमास्वामी को दृष्टि बडी गहरी थी। वे दृष्टि मे आत्म-विषयक 'समयसार' जैसे अध्यात्म-ग्रन्थ में निवारण को इष्ट मानते थे। इसलिए उन्होने 'व्रत' की भी 'अहिंसा' शब्द दृष्टिगोचर नही हुआ जिसे हम आत्मपरिभाषा मे 'विरति' को प्रधानता दी-'ति' को गुण या जन-सस्कृति का मूल मानने के लिए विवश हो प्रधानता नहीं दी और इसीलिए उन्होने 'वृन' धातु के सकें। हो, समयसार ग्रन्थ में 'अपरिग्रह' शब्द का उल्लेख 'वृणोति (वरणार्थक) जैसे रूप को न अपनाकर, उसके अनेक बार किया गया है । इस विषय में हम इससे अधिक निवारणार्थक कर्तवाच्य, णिजन्तरूप 'वारयति'* को
(शेष पृ० ३ आवरण) * वृणोति इति कर्मनाम । निवृत्तिकर्म-'वारयति'-इति ।' -निरुक्त २/४/१ पृष्ठ ८ । 卐 महाभारत वन पर्व २०७/७४ और शान्ति पर्व १६९/७० के अंश ।