Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ १४ अनेकान्त [वर्ष ६ हुया है तो फिर मेरे जैसा असमर्थ कैसे समर्थ हो हार्दिक गान करने में प्रवृत्त हुए। और यही वजह है सकता है ? यह आपकी अनुपम भक्ति ही है जो मुझ कि उनके वादके आचायोंन उन्हें 'स्तुतिकार' और बालक को स्तुति करनेके लिये प्रेरित कर रही है। 'श्राद्य-स्तुतिकार' के रूपमें स्मरण किया है।' आगे चलकर भगवान् अरकी स्तुति करते हुये समन्तभद्र में अद्भक्ति इतने उत्कट रूपमें थी, कि उन्होंने अपने आपको उसी में उत्सर्ग कर दिया था गुणस्तोकं सदुल्वंध्य तत्वकथा स्तुतिः । और वे यह अनुभव करने लगे थे कि मैं बहुत तेजस्वी, भानन्यात गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ।। सुजन और पुण्यवान हूँ। इसीसे वे अपनी रचना तथापि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामापि कीर्तितम् । 'जिनस्तुतिशतक' के अन्तमें लिखते हैं:पुनाति पुण्यकीतें नस्ततो जयाम किशन || सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि स्वरयर्चनं चापि ते, 'हे मुनीन्द्र १ थोड़ेसे गुणोंका बढ़ा चढ़ाकर बहुत हस्तावंजलये कथाननिरतः कोऽशि संप्रेक्षते(णे)। प्रकट करने को स्तुति कहते हैं । आपके तो अनन्त सुस्तुत्या व्यसनं शिरो नतिपर सेवेशी येन ते, गुण हैं, उनको बढ़ाकर प्रकट करना अशक्य है तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेज:पते । संभव नहीं है-सब बापकी बह--उक्तलक्षण स्तुति कैसे बन सकती है? तथापि है पुण्यकति ? आपका 'हे जिन! आपके मतमें-शासनमें-मेरी सुश्रद्धा है--सम्यकश्रद्धा है, अन्धश्रद्धा या अन्धभक्ति नहीं पुण्य नामोचारण भी हमें पवित्र करता है। अतः मैं है। स्मरण भी मैं आपका ही करता हूँ। मैं अर्चनकुछ कहता हूँ।' नमिनाथ भगवानकी स्तुतिमें तो स्तुतिको स्वा पूजन भी आपका ही किया करता हूँ। मेरे दोनों हाथ धीनरूपसे मोक्षका सुलभ पथ बतलाते हुये कहते हैं-- भी आपको ही जुड़े रहते हैं। मेरे श्रोत्र आपकी ही स्तुतिः स्तोतुः साचोः कुशवपरिणामाय स तदा, कथा सुनने में लगे रहते है-मैं किसी भी प्रकारकी भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः। विकथाओं में उन्हें नहीं लगाता। मेरी दोनों चक्षुयें किमेवं स्वाधीनमाजगति सुलमे आयसपये, भी आपके ही रूपाविलोकनमें लीन रहती हैं-कुस्सित स्तुयान वा विद्वान् सततमभि(पि) पूज्यं नमिजिनम् ॥ अन्य तमाम रूपोंके देखने में उनकी प्रवृत्ति नहीं होती। अ 'हे नमि जिन ! स्तुत्य-स्तुति किया जाने वाला " मुझे व्यसन भी आपकी उत्तम उत्तम स्तुतियोंके रचने स्तोताके सामने विद्यमान हो चाहे न हो और उससे का है और अन्य प्रकारका कोई व्यसन नहीं है। अपनी स्तुतिका फल भी प्राप्त हो, चाहे न हो । पर मेरा मस्तक भी आपको ही नमस्कार करने में उद्यत यह अवश्य है कि साधु स्तोताकी स्तुति शुभपरिणामों रहता है-अन्य किसीको भी नहीं। चंकि इस प्रकार की उत्पादक होती है और वह शुभ परिणाम श्रेयके की मेरी सेवा है-आपके प्रति मेरी अगाधभक्ति है। कल्याणके कारण होते हैं। इस प्रकार जव जगतमें - इसीसे हे तेजानते ! मैं अपनेको तेजस्वी, सुजन और स्वाधीनतासे श्रायसपथ-कल्याणमार्ग-सुलभ है- १ पुण्यशाली अनुभव करता हूँ। अपनी स्तुतिके द्वारा ही वह प्राप्त किया जा सकता है पाठक, देखा, समन्तभद्रने स्वपं अपनी अद्भक्ति तो कौन बुद्धिमान व्यक्ति है जो आपकी स्तुति नहीं को कैसे सच्चे एवं उच्च उद्गारों द्वारा प्रकट किया है। करेगा? अर्थात् करेगा ही।' जिससे यह स्पष्ट मालूम हो जाता है कि वे पूरे इस तरह समन्तभद्रकी उपर्युक्त स्तुतियोंके थोड़े १ स्तुतिकारोप्याह (हेमचन्द्राचार्य) श्राद्यस्तुतिकारोऽप्याह से नमूने इस बातको पुष्ट और सिद्ध करनेके लिये (ग्रा. मलयगिरि) पर्याप्त एवं पुष्कल प्रमाण है कि समन्तभद्र एक सच्चे २ इसीसे आप कहते हैं:-'अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते और महान् अद्रक थे। तभी वे अर्हन्तके गुणोंका नृपतीन' -रत्नकरण्ड ०४८

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 436