Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ किरण १] समन्तभद्रकी अहक्ति होना आवश्यक एवं अनिवार्य बतलाया है' । यदि धारण करके विहार करते हुए काशी पहुँचे थे, वहाँ प्राप्त-विषयक श्रद्धा न हो तो पराक्षा नहीं बन सकती, राजा शिवकोटिके यहाँ शिवायतनमें रहकर उन्होंने इसी तरह यदि गुणशताने हो तो भी परीक्षा नहीं बन शिव-नैवेद्यसे अपने रोगको शान्त किया था। राजा सकती। अतः आप्त-परीक्षकको गुणज्ञत न साथ श्रद्धालु शैव था, उसे किसी तरह समन्तभद्रके जैन होनेका होना परम आवश्यक है । समन्तभद्र जैस परीक्षक थे, पता चल गया था और इस लिए उसने समन्तभद्रसे वैसे ही वे श्रद्धालु-अर्हक्त और गुणज्ञ भी थे। उन शिवको मूर्तिको नमस्कार करने के लिए आग्रह किया की वह अद्भक्ति कैसी और कितनी उच्च तथा प्रशस्त था। उस समय समन्तभद्र चौवीस तीर्थकरोंकी स्तुति थी इसका कुछ आभास कराना ही मेरे आजके इस करते हुए जब आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभकी स्तुतिमें लेखका विषय है। प्रवृत्त हुए थे और गद्गद होकर भक्तिमें लीन होगए थे यह बात मैं पहिले बता आया हूँ कि समन्तभद्रने तब शिवकी मूतिमेंसे चन्द्रप्रभकी मूर्ति प्रकट हुई थी, स्वयम्भू स्तोत्र, जिन शतक और युक्त्यनुशासन ये तीन उसे ही उन्होंने नमस्कार किया था। इस कथापरसे, अन्य अहंन्तकी स्तुतिमें ही रचे हैं। आप्तमीमांसामें अन्य बातोंको छोड़कर, इतना तो जरूर प्रतीत होता अन्य-योग व्यवच्छेदपूर्वक अर्हन्त जिनको सर्वज्ञ है कि समन्तभद्र अहेन्तके ही परमभक्त और उपासक सिद्ध किया है और जिनशासनका तात्त्विक निरूपण थे-अन्य देवके नहीं।' किया है। इसीसे प्राप्तमीमांसा (देवागम) भी समन्त- शंभव जिनकी स्तुति करते हुए समन्तभद्र अपने भद्रका एक प्रकारसे स्तुतिग्रन्थ कहा जाता है। को 'अज्ञ' औ 'स्तुतिमें असमर्थ प्रकट करते हये परन्तु इतना जरूर है कि समन्तभद्रने युक्त्यनुशासनके कहते हैं आदिम पद्यमें 'अद्य' पदका प्रयोग करके-जिसका शक्रोप्यशक्तस्तव पुण्यकीर्तेः स्तुत्या प्रवृत्त: किमु मा । श्रा० विद्यानन्दने 'परीक्षावसानसमये' अर्थ किया है- तथापि भक्त्या स्तुतपादपमो ममार्य देया शिवतातिमुवैः ।। आप्तमीमांसाको 'परीक्षामन्थ' प्रकट किया है और हे आर्य संभव जिन ! महान शक्तिका धारक उसके अनन्तर रचे गये 'युक्त्यनुशासन' को स्तुति इन्द्र भी आपकी स्तुति करने में असमर्थ है तो हम प्रन्थ स्वीकृत किया है। अस्तु । जैसे अल्पज्ञ और अल्पसामर्थ्यवान् प्राणी आपकी इन स्तुति ग्रन्थोंमसे स्वयम्भू स्तोत्रमें ऋषभ आदि स्तुति कैसेकर सकते हैं ? फिर भी मेरी अनन्य भक्ति वर्तमान चौवीस तीर्थकरोंका स्तवन किया गया है। आपमें ही है इसीसे आपके चरणकमलोंकी स्तुति प्रचलित कथासे यह तो विदित ही है कि जिस समय फरता हूँ, मुझमें कल्याण-परम्पराके प्राप्त करने की समन्तभद्रको भस्मक रोग होगया था और वे गुरुके सामर्थ्य पैदा हो। भादेशको पाकर रोगोपशमनके निमित्त अन्यवेष पप्रभ जिनेन्द्रकी स्तुति करते हुए भी वे इसी बातको कहते हैं:१ देवागमेत्यादि...."परीक्षामुपक्षिपतेव स्वयं श्रद्धागुणज्ञता गुणाम्धुधे विघुषमप्यजन' नाखरखस: स्तोतुमकं तवः। लक्षणं प्रयोजनमाक्षिसं लक्ष्यते तदन्यनरामयेऽर्थस्यानुपपत्तेः। प्रागेव मारणिमुतातिभक्ति मी बालमाजापयतीवमित्यत् ।। -अष्टशती पृ.२ हे पदप्रभ जिन! आप गुणों के समुद्र है, आपके २'कृत्वा विवियते स्तवो भगवतां देवागमस्तकृतिः' गुणलेशको इन्द्र पहले ही स्तुत करने में समर्थ नहीं -अष्टशती ३ कीर्त्या मइत्या भुवि वर्द्धमानं त्वां वर्द्धमानं स्तुतिगोचरत्वं । १इसीसे वे स्वयं कहते है: भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । निनीषवःस्मो वयमद्य वीरं विशीर्णदोषाशयपाशबन्धं ॥ प्रणाम विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः॥३०॥ -युक्त्यनुशासन का.. रत्नकरण्डश्रावकाचार

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 436