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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
'श्री उत्तराध्ययनसूत्र' में एक स्थान पर कहा गया है
अह पंचहि ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लम्भई ।
थंभा, कोहा, पमाएणं, रोगेणालस्सएण वा ॥ अर्थात्-अहंकार, क्रोध, प्रमाद, रोग एवं आलस्य इन पाँच कारणों से व्यक्ति शिक्षा या ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता।
शास्त्र के इन वचनों पर दृढ़ श्रद्धा रखते हुए ज्ञानेच्छु को इन सभी दुर्गुणों से बचना चाहिए तथा सरलता एवं विनयपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने में संलग्न होना चाहिए।
__ 'श्री ठाणांगसूत्र' में भी ज्ञान प्राप्ति के चार कारण या उपाय बताये गये हैं । वे इस प्रकार हैं
"(१) इत्थीकह, भत्तकह, देसकहं रायकहं नो कहेता भवति । (२) विवेगेण विउस्सगेणं सम्ममप्पाणं भावेत्ता भवति। (३) पुव्वरतावरत्तकाल समयंसि धम्म जागरियं जागरित्ता भवति । (४) फासुयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स सामुदाणियस्स सम्मं गवेसित्ता भवति ।"
शास्त्र के अनुसार ज्ञान-प्राप्ति का प्रमुख एवं प्रथम कारण है चित्त की एकाग्रता । विकथाएँ जो कि चार प्रकार की बतायी गयी हैं-स्त्रीकथा, भत्तकथा अर्थात् भोजनकथा, देशकथा और राजकथा। ये सब करते रहने से मन एकाग्र नहीं रह पाता और ज्ञान-प्राप्ति में बाधा पड़ती है। इसलिए इन व्यर्थ की विकथाओं से ज्ञानाभिलाषी को बचना चाहिए । - ज्ञान प्राप्ति का दूसरा साधन है-उचित चिन्तन-मनन, शान्ति एवं विचार-विमर्ष । इस विषय में नन्दीसूत्र में भी कहा गया है
सुस्सूसई पडिपुच्छइ, सुणइ गिलाइ ईहए वावि ।
तत्तो अपोहए वा, धारेइ करेइ वा कम्मं ॥ अर्थात्-ज्ञान प्राप्ति का इच्छुक व्यक्ति आठ प्रकार के साधनों से ज्ञान हासिल करने का प्रयत्न करता है। (१) वह सुनने की इच्छा करता है, (२) पूछता है, (३) उत्तर को ध्यान से सुनता है, (४) सुनकर ग्रहण करता है, (५) तर्क-वितर्क से ग्रहण किये हुए को तौलता है, (६) तौलकर निश्चय करता है (७) निश्चित अर्थ को धारण करता है, और (८) धारण कर लेने पर उसके अनुसार आचरण करता है।
इस प्रकार करने पर ही साधक ज्ञानार्जन के पथ पर अग्रसर होता है । तो, ठाणांगसूत्र के अनुसार हमने ज्ञान-प्राप्ति के दो कारणों को समझा है और अब तीसरा कारण हमें समझना है ।
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