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६ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
शाली व्यक्ति थे और इसीलिए वे कुछ काल पश्चात् जिस कालेज में पढ़ते थे उसी में प्रिंसिपल के पद पर प्रतिष्ठित होकर पहुँचे ।
कॉलेज के सभी प्रोफेसरों और क्लकों को वे पहचानते थे, अतः सभी से वे अत्यन्त विनम्रता से पेश आते थे ।
एक दिन वे कॉलेज के दफ्तर में गये तो वहाँ का मुख्य क्लर्क उन्हें प्रिंसि - पल मानकर आदर से खड़ा हो गया । यह देखते ही ईश्वरचन्द्र विद्यासागर उन्हें दोनों हाथ पकड़कर बैठाते हुए बोले - "अरे, आप बैठिये न ! मैं तो आपका वही पुराना छात्र ईश्वर हूँ ।"
मुख्य क्लर्क विद्यासागर की विनम्रता एवं निरभिमानता देखकर श्रद्धा से गद्गद हो उठा ।
तो बन्धुओ, यह तो एक छोटा सा उदाहरण है जो बताता है कि ज्ञान का अभिमान नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से व्यक्ति अन्य लोगों के दिलों में तो अपना उच्च स्थान बनाता ही है साथ ही आत्मा को उन्नत एवं गर्व के विष से रहित भी रखता है । जो ऐसा नहीं कर पाता वह मन्दबुद्धि या अज्ञानी की श्रेणी में रहकर इस जीवन में भले ही उपनी यशपताका या विद्वत्ता की छाप अपने जीवन पर लगाले, किन्तु परलोक में उसका तनिक भी लाभ नहीं उठा पाता, उलटे नाना कर्मों का बन्धन करता हुआ संसार - परिभ्रमण करता रहता है ।
शास्त्रों में कहा भी है
अन्नं जणं खिसइ बालपन्ने ।
- सूत्रकृतांग अर्थात् जो अपनी प्रज्ञा के अहंकार में दूसरों की अवज्ञा करता है, वह मन्दबुद्धि और दूसरे शब्दों में बालप्रज्ञ है ।
शास्त्र के इन वचनों स्पष्ट होता है कि व्यक्ति को अपनी प्रज्ञा का अहंकार कदापि नहीं करना चाहिए तथा अहंकार का भाव हृदय में आये तो उसे परिषह समझकर समभाव में रहने का प्रयत्न करना चाहिए ।
अब मैं 'प्रज्ञा - परिषद्' की मुख्य बात को लेता । आपको स्मरण होगा कि 'श्री उत्तराध्ययनसूत्र' की पूर्व में कही हुई गाथा के अनुसार ज्ञान प्राप्त होने पर उसका गर्व करना तो परिषह है ही साथ ही ज्ञान प्राप्त न कर सकने पर हृदय में खेद, खिन्नता या हीनता के भाव लाना भी ज्ञान का परिषह है । किसी के द्वारा प्रश्न किये जाने पर अगर उसका उत्तर देने की क्षमता न हो तो यह सोचना कि 'मैं कुछ भी नहीं जानता' यह उचित नहीं है । प्रज्ञा का अभाव हीनता का कारण नहीं है ।
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