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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
सिंधु और बिन्दु - दो मित्र थे और दोनों एक साथ एक ही गुरु के पास विद्याध्ययन करने के लिए गये । काफी समय तक दोनों ने साथ-साथ अध्ययन किया और तत्पश्चात् अपने गाँव को साथ ही लौटे।
यद्यपि दोनों मित्रों ने समान ज्ञान हासिल किया था, किन्तु उनमें से एक अपने आपको बड़ा विद्वान् और ज्ञानी मानता था तथा उसके गवे में चूर होकर अन्य व्यक्तियों से सीधे मुंह बात ही नहीं करता था।
उसके मित्र ने जब यह देखा तो उसे अपने मित्र की अज्ञानता और घमंड पर बड़ा दुःख हुआ । उसने समझ लिया कि मेरा मित्र ज्ञान के गर्व या नशे में रहकर ज्ञान का लाभ तो उठा नहीं सकेगा, उलटे आत्मा को पतन के मार्ग पर ले जाएगा । यह विचार कर उसने मित्र को सही मार्ग पर लाने का निश्चय किया।
इसके परिणाम स्वरूप वह एक दिन अपने घमंडी मित्र को समुद्र के तट पर घुमाने ले गया और वहाँ पर अपनी हथेली पर समुद्र के जल की कुछ बूंदें लेकर बोला-"मित्र ! देखो तो सही, मेरी हथेली में कितना सारा पानी है ?"
घमंडी मित्र ने जब अपने साथी की यह बात सुनी तो ठठाकर हँस पड़ा और हँसते-हँसते कहा
"मित्र ! लगता है कि तुम पागल हो गए हो। अरे, तुम्हारे समीप ही तो इतना विशाल सागर है और इसमें अथाह पानी भी है। पर तुम जल की दो बूंदें हथेली पर लेकर ही कह रहे हो कि मेरे पास कितना सारा पानी है? भला इस सागर के जल के समक्ष तुम्हारी हथेली के जल की बूंदें क्या महत्त्व रखती हैं ?"
पहला मित्र यही तो सुनना चाहता था, अतः छूटते ही बोला-"दोस्त ! तुम मुझे पागल साबित कर रहे हो पर तुम मुझसे कम पागल हो क्या ?"
"वह कैसे ?" दूसरा मित्र चकित होकर पूछ बैठा ।
"इस प्रकार कि ज्ञान का सागर भी तो चौदह पूर्व का है किन्तु तुम कुछ बिन्दु जल के समान ही थोड़ी सी विद्या हासिल करके अपने आपको महाज्ञानी मानते हो और घमंड के मारे अन्य किसी को कुछ नहीं समझते ।"
मित्र की यह बात सुनते ही घमंडी व्यक्ति की आँखें खुल गयीं और वह अत्यंत लज्जित हुआ। यथार्थ का बोध होते ही वह समझ गया कि मेरा ज्ञान सिन्धु में बिन्दु जितना भी नहीं है ।
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