Book Title: Agam 15 Pragnapana Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 17
________________ आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना' पद/उद्देश/सूत्र तिर्यंचयोनिक। वे जलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक कैसे हैं ? पाँच प्रकार के-मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मगर और सुंसुमार । वे मत्स्य कितने प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के-श्लक्ष्णमत्स्य, खवल्लमत्स्य, युगमत्स्य, विज्झिडिय-मत्स्य, हलिमत्स्य, मकरीमत्स्य, रोहितमत्स्य, हलीसागर, गागर, वट, वटकर, तिमि, तिमिंगल, नक्र, तन्दुलमत्स्य, कणिक्कामत्स्य, शालिशस्त्रिक मत्स्य, लंभनमत्स्य, पताका और पताकातिपताका । इसी प्रकार से जो भी अन्य प्राणी हैं, वे सब मत्स्यों के अन्तर्गत समझो। हैं ? दो प्रकार के । अस्थिकच्छप और मांसकच्छप । वे ग्राह कितने प्रकार के हैं ? पाँच प्रकार के, दिली, वेढल, मूर्धज, पुलक और सीमाकार । सूत्र-१६० वे मगर किस प्रकार के होते हैं? दो प्रकार के हैं । शौण्डमकर और मृष्टमकर । वे सुंसुमार किस प्रकार के हैं ? एक ही आकार के हैं । अन्य जो इस प्रकार के हों उन्हें भी जान लेना । वे संक्षेप में दो प्रकार के हैं-सम्मूर्छिम और गर्भज । इनमें से जो सम्मूर्छिम हैं, वे सब नपुंसक होते हैं । इनमें से जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक । इस प्रकार (मत्स्य) इत्यादि पर्याप्तक और अपर्याप्तक जलचर-पंचेन्द्रियतिर्यंचों के साढ़े बारह लाख जातिकुलकोटि-योनिप्रमुख होते हैं। सूत्र - १६१ वे चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक किस प्रकार के हैं ? चार प्रकार के । एकखुरा, द्विखुरा, गण्डी-पद और सनखपद । वे एकखुरा किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के । अश्व, अश्वतर, घोटक, गधा, गोरक्षर, कन्दलक, श्रीकन्दलक और आवर्त इसी प्रकार के अन्य प्राणी को भी एकखुर-स्थलचर० समझना । वे द्विखुर किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के । उष्ट्र, गाय, गवय, रोज, पशुक, महिष, मृग, सांभर, वराह, आज, एलक, रुरु, सरभ, जमर, कुरंग, गोकर्ण आदि। __ वे गण्डीपद किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के । हाथी, हस्तिपूतनक, मत्कुणहस्ती, खड्गी और गेंडा, इसी प्रकार के अन्य प्राणी को गण्डीपद में जान लेना । वे सनखपद किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के । सिंह, व्याघ्र, द्वीपिक, रीछ, तरक्ष, पाराशर, शृगाल, बिडाल, श्वान, कोलश्वान, कोकन्तिक, शशक, चीता और चित्तलग । इसी प्रकार के अन्य प्राणी को सनखपदों समझो।। चतुष्पद-स्थलचर० संक्षेप में दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूर्छिम और गर्भज । जो सम्मूर्छिम हैं, वे सब नपुंसक हैं । जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के हैं । स्त्री, पुरुष और नपुंसक । इस प्रकार इन स्थलचर-पंचेन्द्रिय० के दस लाख जाति-कुल-कोटि-योनिप्रमुख होते हैं। सूत्र - १६२ वे परिसर्प-स्थलचर० दो प्रकार के हैं । उरःपरिसर्प० एवं भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक | उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक किस प्रकार के हैं ? चार प्रकार के । अहि, अजगर, आसालिक और महोरग । वे अहि किस प्रकार के होते हैं ? दो प्रकार के । दर्वीकर और मुकुली । वे दर्वीकर सर्प किस प्रकार के होते हैं? अनेक प्रकार के हैं । वे इस प्रकार हैं-आशीविष (दाढ़ों में विषवाले), दृष्टिविष (दृष्टि में विषवाले), उग्रविष (तीव्र विषवाले), भोगविष (फन या शरीर में विषवाले), त्वचाविष (चमड़ी में विषवाले), लालाविष (लार में विष-वाले), उच्छ् वासविष (श्वास लेने में विषवाले), निःश्वासविष (श्वास छोड़ने में विषवाले), कृष्णसर्प, श्वेतसर्प, काकोदर, दह्यपुष्प (दर्भपुष्प), कोलाह, मेलिभिन्द और शेषेन्द्र । इसी प्रकार के और भी जितने सर्प हों, वे सब दर्वीकर के अन्तर्गत समझना चाहिए । यह हुई दर्वीकर सर्प की प्ररूपणा । __ वे मुकुली सर्प कैसे होते हैं ? अनेक प्रकार के । दिव्याक, गोनस, कषाधिक, व्यतिकुल, चित्रली, मण्डली, माली, अहि, अहिशलाका और वातपताका । अन्य जितने भी इसी प्रकार के सर्प हैं, (वे सब मुकुली सर्प समझना)। वे मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 17

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