Book Title: Agam 15 Pragnapana Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र सूत्र-१४५-१४७
कन्द, कन्दमूल, वृक्षमूल, गुच्छ, गुल्म, वल्ली, वेणु, और तृण । तथा- पद्म, उत्पल, शृंगाटक, हढ, शैवाल, कृष्णक, पनक, अवक, कच्छ, भाणी और कन्दक्य । (इन वनस्पतियों की) त्वचा, छल्ली, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल, मूल, अग्र, मध्य और बीज (इन) में से किसी की योनि कुछ और किसी की कुछ कही गई है। सूत्र-१४८
यह हआ साधारणशरीर वनस्पतिकायिक का स्वरूप । सूत्र-१४९
वे द्वीन्द्रिय जीव किस प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के हैं । पुलाकृमिक, कुक्षिकृमिक, गण्डूयलग, गोलोम, नूपर, सौमंगलक, वंशीमुख, सूचीमुख, गौजलोका, जलोका, जलोयुक, शंख, शंखनक, घुल्ला, खुल्ला, गुडज, स्कन्ध, वराटा, सौक्तिक, मौक्तिक, कलुकावास, एकतोवृत्त, द्विधातोवृत्त, नन्दिकावर्त्त, शम्बूक, मातृवाह, शुक्ति-सम्पुट, चन्दनक, समुद्रलिक्षा । अन्य जितने भी इस प्रकार के हैं, (उन्हें द्वीन्द्रिय समझना चाहिए ।) ये सभी (द्वीन्द्रिय) सम्मूर्छिम और नपुंसक हैं । ये (द्वीन्द्रिय) संक्षेप में दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक द्वीन्द्रियों के सात लाख जाति-कुलकोटि-योनि-प्रमुख होते हैं । सूत्र-१५०
वह (पूर्वोक्त) त्रीन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना कैसी है ? अनेक प्रकार की है । औपयिक, रोहिणीक, कंथु, पिपीलिका, उद्देशक, उद्देहिका, उत्कलिक, उत्पाद, उत्कट, उत्पट, तृणहार, काष्ठाहार, मालुक, पत्राहार, तृणवृन्तिक, पत्रवृन्तिक, पुष्पवृन्तिक, फलवृन्तिक, बीजवृन्तिक, तेदुरणमज्जिक, त्रपुषमिंजिक, कार्पासास्थिमिंजिक, हिल्लिक, झिल्लिक, झिंगिरा, किंगिरिट, बाहुक, लघुक, सुभग, सौवस्तिक, शुकवृन्त, इन्द्रिकायिक, इन्द्रगोपक, उरुलुंचक, कुस्थलवाहक, यूका, हालाहल, पिशुक, शतपादिका, गोम्ही और हस्तिशौण्ड । इसी प्रकार के जितने भी अन्य जीव हों, उन्हें त्रीन्द्रिय संसारसमापन्न समझना । ये सब सम्मूर्छिम और नपुंसक हैं । ये संक्षेप में दो प्रकार के हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । त्रीन्द्रियजीवों के सात लाख जाति कुलकोटि-योनिप्रमुख हैं। सूत्र-१५१-१५३
वह चतुरिन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना कैसी है ? अनेक प्रकार की है। अंधिक, नेत्रिक, मक्खी, मगमृगकीट, पतंगा, ढिंकुण, कुक्कुड, कुक्कुह, नन्द्यावर्त और शृंगिरिट । तथा- कृष्णपत्र, नीलपत्र, लोहितपत्र, हारिद्रपत्र, शुक्लपत्र, चित्रपक्ष, विचित्रपक्ष, अवभांजलिक, जलचारिक, गम्भीर, नीनिक, तन्तव, अक्षिरोट, अक्षिवेध, सारंग, नेवल, दोला, भ्रमर, भरिली, जरुला, तोट्ट, बिच्छू, पत्रवृश्चिक, छाणवृश्चिक, जलवृश्चिक, प्रियंगाल, कनक और गोमयकीट । इसी प्रकार के जितने भी अन्य (प्राणी) हैं, (उन्हें भी चतुरिन्द्रिय समझना ।) ये चतुरिन्द्रिय सम्मूर्छिम और नपुंसक हैं । वे दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इस प्रकार के चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के नौ लाख जाति-कुलकोटि-योनिप्रमुख होते हैं। सूत्र-१५४
वह पंचेन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना कैसी है ? चार प्रकार की है । नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देव-पंचेन्द्रिय संसारसमापन्न जीवप्रज्ञापना । सूत्र-१५५
वे नैरयिक किस प्रकार के हैं ? सात प्रकार के-रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक, शर्कराप्रभापृथ्वी-नैरयिक, वालुकाप्रभापृथ्वी-नैरयिक, पंकप्रभापृथ्वी-नैरयिक, धूमप्रभापृथ्वी-नैरयिक, तमःप्रभापृथ्वी-नैरयिक और तमस्तमःप्रभा-पृथ्वीनैरयिक । वे संक्षेप में दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । सूत्र-१५६-१५९
वे पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक किस प्रकार के हैं ? तीन प्रकार के-जलचर, स्थलचर और खेचर-पंचेन्द्रियमुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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