Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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त्रसत्व और स्थावरत्व
प्रथम प्रतिपत्ति मे अनुसार संसारवर्ती जीव के दो भेद हैं-त्रस और स्थावर । स्थावर के तीन भेद किये गये हैं-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक । त्रस के भी तीन भेद बताये हैं-तेजस्कायिक, वायुकायिक और उदार त्रस।
___ जैन तीर्थंकरों ने अपने विमल एवं निर्मल केवलज्ञान के आलोक में जगत् के जीवों का सूक्ष्म निरीक्षण एवं परीक्षण किया है। अतएव वे 'सव्व जगजीवजोणिवियाणक' हैं जगत् के जीवों की सर्वयोनियों के विज्ञाता हैं। उन तीर्थंकरों ने न केवल चलते-फिरते दिखाई देने वाले जीवों के अस्तित्व को स्वीकार किया है अपितु पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवों का सद्भाव जाना है और प्ररूपित किया है। जैन सिद्धान्त के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी ऐसा निरूपण एवं प्रज्ञापन दृष्टिगोचर नहीं होता। जैन तत्त्व चिन्तकों का स्पष्ट निर्देश है कि पृथ्वी आदि में भी जीव हैं और अहिंसक साधक को इन सक्ष्म जीवों की भी वैसी ही रक्षा का प्रयास करना चाहिए जैसे स्थूल प्राणियों की रक्षा का। केवल मनुष्य या पशुओं की रक्षा में अहिंसा देवी की आराधना समाप्त नहीं होती परन्तु पृथ्वी, अप्, तेज वायु और वनस्पति के अव्यक्त चेतना वाले जीवों की भी अहिंसा का पूर्ण लक्ष्य रखना चाहिए।
पृथ्वीकायादि में जीवास्तित्व का प्रतिपादन करते हुए नियुक्तिकार ने कहा है कि उपयोग, योग, अध्यवसाय, मतिश्रुतज्ञान, अचक्षुदर्शन, अष्ट प्रकार के कर्मों का उदय और बंध लेश्या, संज्ञा, श्वासोच्छ्वास और कषाय-ये जीव में पाये जावे वाले गुण पृथ्वीकाय आदि में भी पाये जाते हैं । अतः मनुष्यादि की तरह पृथ्वीकायादि को भी सचित्त-जीवात्मक समझना चाहिए। यद्यपि पृथ्वीकायादिक में उपर्युक्त लक्षण अव्यक्त हैं तदपि अव्यक्त होने से उनका निषेध नहीं किया जा सकता। इसे स्पष्ट करने के लिए उदाहरण दिया गया है-किसी पुरुष के अत्यन्त मादक मदिरा का पान अत्यधिक मात्रा में किया हो और ऐसा करने से व बेजान एवं मूर्छित हो गया हो तब उसकी चेतना अव्यक्त हो जाती है लेकिन इतने मात्र से उसे अचेतन नहीं कहा जा सकता। ठीक इसी तरह पृथ्वीकायादिक में चेतना-शक्ति अव्यक्त है परन्तु उसका निषेध नहीं किया जा सकता है।
पृथ्वीकायादिक एकेन्द्रिय जीवों के कान, नेत्र, नाक, जीभ, वाणी और मन नहीं होते हैं तो वे दुःख का वेदन किस प्रकार करते हैं, यह प्रश्न सहज ही उठाया जा सकता है। इसका समाधान आचारांग सूत्र में एक उदाहरण द्वारा किया गया है। जैसे कोई जन्म के अंधे, बहरे, लूले-लंगड़े तथा अवयवहीन किसी व्यक्ति के भाला आदि शस्त्र से पांव, टकने, पिण्डी, घुटने, जंघा, कमर, नाभि, पेट, पांसली, पीठ, छाती, हृदय, स्तन, कंधा, भुजा, हाथ, अंगुलि नख, गर्दन, दाढी, होठ, दांत, जीभ, तालु, गाल, कान, नाक, आंख, भौंह, ललाट, मस्तक आदि-अवयवों को छेदे-भेदे तो उसे वेदना होती है किन्तु वह उस वेदना को व्यक्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार एकेन्द्रिय पृथ्वीकायादिक जीवों को अव्यक्त वेदना होती है। जैसे मूर्छित अवस्था में कोई किसी को पीड़ा दे तो उसे पीड़ा होती है वैसे ही पृथ्वीकायादिक जीवों की वेदना को समझना चाहिए।
महामनीषी आचार्यों ने विविध युक्तियों से एकेन्द्रिय जीवों में संचेतनता सिद्ध की है। वनस्पति की संचेतनता तो अधिक स्पष्टरूप में प्रतीत होती है। विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रन्थों में पुष्ट एवं प्रबल आधारों से प्रमाणित किया गया है कि उनमें स्पष्ट चेतना है। नारी शरीर के साथ वनस्पति की समानता प्रतिपादित करते हुए आचारांग सूत्र में कहा गया है कि-नर-नारी के शरीर की तरह वनस्पति जाति (जन्म) स्वभाववाली है, वृद्धिस्वभाववाली है, सचित्त है, काटने पर म्लान होने वाली है। इसे भी आहार की अपेक्षा रहती है, इसमें भी विकार होते हैं। अत: नर-नारी के शरीर की तरह वनस्पति भी संचेतन है।
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