Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 15
________________ (xiii) संवेजनी कथा के चार प्रकार हैं १. मनुष्य जीवन की असारता दिखाना। २. देव तिर्यंच आदि के जन्मों की मोहमयता और दुःखमयता बताना। ३. अपने शरीर की अशुचिता का प्रतिपादन करना। ४. दूसरे के शरीर की अशुचिता का प्रतिपादन करना। निर्वेदनी कथा के चार प्रकार हैं १. वर्तमान के सुचीर्ण अथवा दुश्चीर्ण कर्म का वर्तमान में फल देने का निरूपण करने वाली कथा। २. वर्तमान के सुचीर्ण अथवा दुश्चीर्ण कर्म का भविष्य में फल देने का निरूपण करने वाली कथा। ३. पूर्वजन्म के सुचीर्ण अथवा दुश्चीर्ण कर्म का पूर्वजन्म में फल देने का निरूपण करने वाली कथा। ४. पूर्वजन्म के सुचीर्ण अथवा दुश्चीर्ण कर्म का वर्तमान में फल देने का निरूपण करने वाली कथा। ठाणं में कथा के तीन प्रकार भी बतलाए गए हैं-१. अर्थकथा, २. धर्मकथा, ३. कामकथा। प्रस्तुत आगम और अनुयोग प्रस्तुत आगम चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत है। इस दृष्टि से प्रस्तुत आगम में चरित्र का संपोषण करने वाली घटनाओं, दृष्टान्तों और कथाओं का समावेश किया गया है। प्रस्तुत आगम में वर्णित दृष्टान्तों और कथाओं को स्थानांग के उक्त दोनों सन्दर्भो में देखना उपयोगी होगा। आगम साहित्य में कथा साहित्य का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए सरल और सरस माध्यम की आवश्यकता होती है, उस आवश्यकता की पूर्ति का सर्वोत्तम माध्यम है कथा। उसमें दर्शन, संस्कृति और लोक जीवन की अमूल्य धरोहर प्राप्त होती है। आगम कथा साहित्य पर अब तक अपेक्षित कार्य नहीं हो सका। यदि उस पर एक व्यवस्थित और योजनाबद्ध कार्य किया जाए तो भारतीय संस्कृति और जीवन शैली को नया प्रकाश मिल सकता है। मुनि कमलजी ने आगमों का वर्गीकरण किया, उसमें एक खण्ड धर्मकथानुयोग है। उपाध्याय पुष्कर मुनि, अमर मुनि, मुनि छत्रमल जी आदि अनेक लेखकों ने कथाकोषों का निर्माण किया है। संकलन और सामग्री की दृष्टि से वे पर्याप्त हैं किन्तु कथातत्त्व के विश्लेषण की दृष्टि से एक नया चिन्तन करना आवश्यक है। नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि तथा टीका आदि व्याख्याग्रन्थों में कथाओं के संकेत और विस्तार विपुल परिमाण में उपलब्ध हैं। उन पर कोई विधिवत् कार्य नहीं हुआ है। उत्तराध्ययन आदि आगमों में भी अनेक कथाएं हैं। धर्मकथानुयोग के उदाहरण में भी प्रमुख रूप से उत्तराध्ययन 'इसिभासियाइं का उल्लेख मिलता है। शैली प्रस्तुत आगम गद्यप्रधान है। गद्य के अनेक रूप हैं। कहीं-कहीं काव्यात्मक शैली का गद्य है तो कहीं-कहीं वर्णनात्मक शैली का। कहीं-कहीं समासान्त वाक्यों की भरमार है तो कहीं-कहीं मुक्त वाक्य हैं। कहीं-कहीं पद्य भी हैं। वृत्तिकार ने नवें अध्ययन की वृत्ति में छह गीतकों और दो रूपकों का उल्लेख किया है।३।। विषय-वस्तु के प्रतिपादन की शैली का विचार करने पर एक निष्कर्ष स्पष्ट रूप से सामने आता है-आगम संकलन के समय कुछ विषयों के प्रतिपादन की एक निश्चित शैली बनाई गई थी। उस पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार नहीं किया जा सकता, केवल प्रतिपादन शैली की दृष्टि से विचार किया जा सकता है। पांचवें अध्ययन के ४५वें सूत्र में निर्ग्रन्थ प्रवचन का प्रयोग प्रासंगिक नहीं है। भगवान अरिष्टनेमि के समय में अर्हत् प्रवचन का प्रयोग किया जाता था। निर्ग्रन्थ प्रवचन का प्रयोग केवल महावीर शासन के लिए ही किया जा सकता है। इसी सूत्र में १. ठाणं ३/४१६ २. देखें परिशिष्ट सं. १ ३. ज्ञाता वृत्ति, पत्र १६८/१६९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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