Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 08 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवती सूत्रे
7.
नगरस्य मध्यमध्ये निर्गच्छति, 'निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे, जे बहुसाल, चेइए, तेणेत्र उवागच्छइ ' निर्गत्य यत्र ब्राह्मणकुण्डग्रामं नगरम्, यत्रत्र बहुशालकं चैत्यम् उद्यानमासीत्, तत्र उपागच्छति, 'उबागच्छित्ता छत्तादीए तित्थगरातिसए पास, पासिता पुरिससहस्वाहिणीं सियं ठवे ' उपागत्य छत्रादिकं तीर्थकरातिशयं तीथङ्करस्य जिनस्य भगवतोऽतिशयं पश्यति, दृष्ट्वा पुरुषसहस्रवाद्यां शिविकां स्थापयति, 'ठवेत्ता पुरिससह स्वाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुह शिविकां स्थापयित्वा पुरुषसहस्रवाद्यायाः शिविकायाः प्रत्यवरोइति, - अवतरति । ' तरणं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरो पुरओ काउं भवन पंक्तिसहस्राणि समतिक्राम्यन् समतिकाम्यन् क्षत्रियकुण्डग्राम नगरस्य मध्यमध्येन " इस पाठका अर्थ सरल है, कठिन नहीं निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे नगरे जेणेत्र बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ ' निकल कर वह वहां पर आया कि जहां ब्राह्मण कुंडग्राम नगर और उसमें भी जहां बहुशालक उद्यान था 'उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थगरातिसए पासइ ' वहां आकर उसने तीर्थंकर जिन भगवान् की अतिशयरूप छत्रादि विभूतिको देखा 'पासिता पुरिस सहस्वाहिणीं सियं ठवेइ' देखकर उसने उसी समय अपनी पुरुषसहस्रवाहिनी - एक हजार पुरुष जिसको उठाये हुए हैं ऐसी पालखीको खडा करवाया 'ठवेता पुरिससहस्स वाहिणीओ सीयाओ पच्चोरूह' खंडा करवाकर फिर वह उस पुरुष सहस्रवाहिती शिविकासे नीचे उतरा
,
वार मनुमोद्यमानः, भवनपक्ति सहस्राणि समतिक्राम्यन् २ क्षत्रियकुंडग्रामनगरस्य मध्यमध्येन " मा सूत्रपाठा अर्थ सरज छे. छतां समभ्यु न पडे तो ઔપાતિક સૂત્રમાંથી વાંચી લેવા.
" निगच्छित्ता जेणेव माणकुंङग्गामे नयरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेत्र उवागच्छर ” ત્યાંથી નીકળીને તે બ્રાહ્મણુકુંડ નગરના ખડુશાલક નામના ચૈત્ય (उद्यान) पासे भावी पडन्यो, “उवागच्छत्वा छत्तद्दीप तित्थगरातिनए पाइ ત્યાં પહોંચતાં જ તેણે તીર્થંકર ભગવાનના અતિશય રૂપ છત્રાદિ વિભૂતિને हेमी. "पासिता पुरिससहस्ववाहिणी स्त्रियं ठवेइ " छत्राहिने हेमतानी साथै ४ તેણે હજાર પુરુષા વડે જેનુ' વહન થઈ રહ્યું હતું એવી પેાતાની પાલખીને जीली रथ्यावी. " ठवेत्ता पुरिस सहरसवाहिणीओ सीयाओ पञ्चोरूहह ” चातानी સહસ્ર પુરુષવાહિની શિખિકાને ઊભી રખાવીને તે તેમાંથી નીચે ઉતરી ગયા.
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૮
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