Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
परिवेष्टित के विषय में विकल्प ४१९, आठ कर्मों के परस्पर सहभाव की वक्तव्यता ४१९, 'नियमा' और ‘भजना' का अर्थ ४२३, किसमें किन-किन कर्मों की नियमा और भजना ४२३, ज्ञानावरणीय से ७ भंग ४२३, दर्शनावरणीय से ६ भंग ४२४, वेदनीय से ५ भंग ४२४, मोहनीय से ४ भंग ४२४, आयुष्यकर्म से ३ भंग ४२४, नामकर्म से दो भंग ४२४, गोत्रकर्म से एक भंग ४२४, संसारी और सिद्धजीव के पुद्गली और पुद्गल होने का विचार ४२४, पुद्गली एवं पुद्गल की व्याख्या ४२६ ।
नवम शतक
प्राथमिक
नवम शतकगत चौंतीस उद्देशकों का संक्षिप्त परिचय नौवें शतक की संग्रहणी गाथा
४२६-५८८
४२७
४२९
प्रथम उद्देशक - जम्बूद्वीप ( सूत्र २-३ )
४३०-४३१
मिथिला में भगवान् का पदार्पण: अतिदेशपूर्वक जम्बूद्वीप निरूपण ४३०, सपुव्वावरेणं व्याख्या ४३०, चौदह लाख छप्पन हजार नदियाँ ४३०, जम्बूद्वीप का आकार ४३१ ।
द्वितीय उद्देशक - ज्योतिष
४३२-४३४
बूद्वीप आदि द्वीप - समुद्रों में चन्द्र आदि की संख्या ४३२, जीवाभिगमसूत्र का अतिदेश ४३३, नव यसया पण्णासा० इत्यादि पंक्ति का आशय ४३३, सभी द्वीप समुद्रों में चन्द्र आदि ज्योतिष्कों का अतिदेश ४३४ ।
तृतीय से तीसवाँ उद्देशक अन्तद्वीप (सूत्र १-३ )
४३५-४६७
उपोद्घात ४३५, एकोरुक आदि अट्ठाईस अन्तर्द्वीपक मनुष्य ४३५, अन्तद्वीप और वहाँ के निवासी मनुष्य ४३६, जीवाभिगसूत्र का अतिदेश ४३६, अन्तद्वीपक मनुष्यों का आहार-विहार आदि ४३६, वे अन्तद्वीप कहाँ ? ४३७, छप्पन अन्तद्वीप ४३७ ।
इकतीसवाँ उद्देशक - अश्रुत्वाकेवली (सूत्र १-४४ )
४३८-४६३
उपोद्घात ४३८, केवली यावत् केवली - पाक्षिक उपासिका से धर्मश्रवणलाभालाभ ४३८, केवली इत्यादि शब्दों के भावार्थ ४३९, असोच्चा धम्मं लभेज्जा सवणयाए तथा नाणावरणिज्जाणं. खओवसमे का अर्थ ४३९, केवली आदि से शुद्धिबोधि का लाभालाभ ४३९, केवली आदि से शुद्ध अनगारिता का ग्रहणअग्रहण ४४०, . केवली आदि से ब्रह्मचर्य - वास का धारण- अधारण ४४१, केवली आदि से शुद्ध संयम का ग्रहण - अग्रहण ४४२, केवली आदि से शुद्ध संवर का आचरण - अनाचरण ४४३, केवली आदि से आभिनिबोधिक आदि ज्ञान- उपार्जन - अनुपार्जन ४४४, केवली आदि से ग्यारह बोलों की प्राप्ति और अप्राप्ति ४४६, केवली आदि से बिना सुने केवलज्ञानप्राप्ति वाले को विभंगज्ञान एवं क्रमशः अवधिज्ञान प्राप्त होने की प्रक्रिया ४४८, 'तस्स छट्ठे-छट्ठेणं' : आशय ४४९ समुत्पन्न विभंगज्ञान की शक्ति ४४९, विभंगज्ञान अवधिज्ञान में परिणत होने की प्रक्रिया ४४९, पूर्वोक्त अवधिज्ञानी में लेश्या, ज्ञान आदि का निरूपण ४५०, साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग का अर्थ ४५३, वज्रऋषभनाराच संहनन ही क्यों ? ४५३, सवेदी आदि का तात्पर्य ४५३ प्रशस्त अध्यवसाय
[२२]
******