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८७. जिसके लिए ये अग्नि-कर्म की क्रियाएँ परिज्ञात है, वही परिक्षात कर्मी [हिना-त्यागी ] मुनि है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
पंचम उद्देशक
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८८. मैं संयम-मार्ग पर समुपस्थित होकर उस हिंसा को नहीं करूंगा।
८६. मतिमान पुरुप अभय को जानकर [ हिंसा नहीं करता ]
१०. जो हिंसा नहीं करता, वह हिंसा से विरत होता है। जो विरत है, वह
अनगार कहा जाता है।
६१. जो गुण (इन्द्रिय-विपय) है, वह आवर्त संसार है और जो पावर्त है, वह
गुण है।
६२. अवं, अघो, तिर्यक्, प्राची दिशाओं में देखता हुमा रूपों को देखता है,
सुनता हुआ शब्दों को सुनता है ।
६३. ऊर्ध्व, अधो, तिर्यक्, प्राची दिशाओं में मूच्छित होता हुआ रूपों में मूच्छित
होता है, शब्दों में मूच्छित होता है।
६४. इसे संसार कहा गया है। ६५. जो इन [ इन्द्रिय-विपयों ] में अगुप्त/असंयमी है, वह प्राज्ञा/अनुशासन में
नहीं है।
६६. वह पुनः पुनः गुणों में आसक्त है, छल-कपट करता है, प्रमत्त है, गृहवासी
शस्त्र-परिज्ञा
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