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७५. भिक्षु या भिक्षुणी प्रशन, पान, खाद्य या स्वाद्य का आहार करते समय आस्वाद लेते हुए वाएँजबड़े से दाएँ जबड़े में संचार न करे, श्रास्वाद लेते हुए दाएँ जबड़े से बाएं जबड़े में संचार न करे | वे अनास्वादी हों ।
७६. लघुता का श्रागमन होने पर वह तप- समन्नागत होता है ।
७७. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सम्पूर्ण रूप से समत्व का ही पालन करे ।
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७८. जिस भिक्षु के ऐसा भाव होता है। इस समय इस शरीर को अनुपूर्वक परिवहन करने में ग्लान / असमर्थ हूँ । वह क्रमश: प्रहार का संवर्तन / संक्षेप करे । क्रमश: आहार का संवर्तन कर, कपायों को प्रतनु / कृश कर समावि मैं काष्ठ - फलकवत् निश्चल चने ।
७६. संयम उद्यत भिक्षु प्रमिनिवृत्त बने ।
८०. ग्राम, नगर, खेड़ा, कर्वट / कस्वा, मडम्व / वस्ती, पत्तन, द्रोणमुख / वन्दरगाह, श्राकर /खान, श्राश्रम, सन्निवेश / धर्मशाला, निगम या राजधानी में प्रवेश कर तृण की याचना करे 1 तृण की याचना कर, उसे प्राप्त कर एकान्त में चला जाए । एकान्त में जाकर अण्ड - रहित, प्राणी-रहित, वीज-रहित, हरित-रहित, प्रोस - रहित, उदक- रहित, पतंग, पनक / काई, जलमिश्रित-मिट्टीमकड़ी - जाल से रहित, स्थान को सम्यक् प्रतिलेख कर प्रमार्जित कर तृण का संथार / विछोना करे । तृरण-संस्तार कर उसी समय ' इत्वरिक / समाधिमरण स्वीकार करे ।
८१. यही सत्य है । सत्यवादी, प्रोजस्वी, तीरणे, वक्तव्य - छिन्न / मौनव्रती, प्रतीतार्थ / कृतार्थ, नातीत / वन्धनमुक्त साधक भंगुर शरीर को छोड़कर, विविध प्रकार के परीषहों-उपसर्गो को घुन कर इस सत्य में विश्वास कर के कठोरता का पालन करता है ।
८२. काल / मृत्यु प्राप्त होने पर वह भी कर्मान्त-कारक हो जाता है ।
विमोक्ष
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