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१०४. यह भिक्षु कपाय को कृश एवं प्रहार को कम कर तितिक्षा / सहन करे । अन्तकाल में आहार की ग्लानि करे ।
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१०५. जीवन की अभिकांक्षा न करे और मरण की प्रार्थना न करे । जीवन तथा मरण दोनों को न चाहे ।
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१०६. मध्यस्थ और निर्जराप्रेक्षी समाधि का अनुपालन करे । अन्तर एवं बाह्य का विसर्जन कर शुद्ध अध्यात्म की एपरणा करे ।
१०७. अपनी आयु की कुशलता का जो कुछ भी उपक्रम है, उसे समझे । पण्डित - पुरुष उसके ही अन्तर मार्ग / आयु-काल में शीघ्र [ समावि - मरण] की शिक्षा ग्रहण करे |
१०८. मुनि ग्राम या अरण्य में प्रारण रहित स्थण्डिल / स्थल को प्रतिलेख कर तथा जानकर तृरण-संस्तार करे ।
१०६. वह ग्रनाहार का प्रवर्तन करे । मनुष्य कृत स्पर्शो से स्पृष्ट होने पर सहन करें | वेला / समय का उल्लंघन न करे ।
११०. ऊर्ध्वचर, अघोचर और संसर्पक प्राणी मांस और रक्त का भोजन करे तो उनका न हनन करे, न निवारण ।
१११. ये प्राणी शरीर का घात करते हैं, इसलिए स्थान न छोड़े । श्रास्रव से अलग हो कर ग्रात्मतृप्त होता हुआ उपसर्गों को सहन करे ।
११२. ग्रन्थियों से विमुक्त होकर आयुकाल का पारगामी होता है । द्रविक भिक्षु के लिए यह अनशन प्रग्राह्य है, ऐसा जानना चाहिये ।
११३. ज्ञातपुत्र द्वारा साधित यही धर्म श्रेष्ठ है । मन, वचन, काया के त्रिविध योग से प्रतिचार / सेवा स्वयं के लिए वर्जनीय है, अत: त्याग दे ।
११४. हरियाली पर निवर्तन / विश्राम न करे, स्थण्डिल / स्थान को जानकर / प्रतिलेख कर सोए | अनाहारी भिक्षु कायोत्सर्ग कर वहाँ स्पर्शो को सहन करे ।
विमोक्ष
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