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३६. जिस शिशिर में कुछ लोग मारुत चलने पर कांपने लगते, उस हिमपात में
कुछ अनगार निर्वात/हवा रहित स्थान की एषणा करते थे।
३७. कुछ संघाटी/उत्तरीय वस्त्र की कामना करते, कुछ ईवन जलाते कुछ
पिहित/आवरण (कम्वल आदि) चाहते, क्योंकि हिम-संस्पर्श अति दुःखकर होता है।
३८. किन्तु उस परिस्थिति में भी अप्रतिज्ञ भगवान अघोविकट/खुले स्थान में
शीत सहन करते थे । वे संयमी भगवान् कभी-कभी रात्रि में वाहर निकलकर समिति पूर्वक स्थित रहते ।
३९. मतिमान माहन भगवान महावीर ने इस अनुक्रान्त/प्रतिपादित विधि का अप्रतिज्ञ होकर अनेक वार आचरण किया।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
तृतीय उद्देशक
४०. भगवान् ने तृणस्पर्श, शीतस्पर्श, तेजस्पर्श और देशमशक के विविध
प्रकार के स्पों/दुःखों को सदा समितिपूर्वक सहन किया।
४१. इसके अनन्तर दुश्चर लाढ़ देश की वनभूमि और शुभ्रभूमि में विचरण
किया । वहाँ उस प्रान्त के शयनों/वास-स्थानों और प्रान्त के आसनों का सेवन किया।
४२. लाढ देश में जनपद के लोगों ने उन पर बहुत उपसर्ग/उपद्रव किया और
मारा । वहां उन्हें प्राहार रूक्षदेश्य रूखा-सूखा मिलता था। वहाँ कुक्कर काट लेते और ऊपर आ पड़ते थे।
उपधान-श्रुत
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