________________ 61. महावीर ने यह जानकर न स्वयं पाप किया, न अन्य से कराया और न ही पाप करते हुए का समर्थन किया। 62. ग्राम या नगर में प्रवेश कर परार्थकृत/गृहस्थकृत आहार की एपणा करते थे / सुविशुद्ध की एपणा कर भगवान ने आयत-योग/संयत-योग का सेवन किया। 63-65. भूख से पीड़ित काक आदि रसामिलापी प्राणी एपणा के लिए चेष्टा करते हैं / उनका सतत निपात देखकर माहन, श्रमण, ग्रामपिण्डोलक या अतिथि, श्वापाक/चाण्डाल, मूपिकारी/विल्ली या कुक्कुर को सामने स्थित देखकर वृत्तिच्छेद का वर्जन करते हुए, अप्रत्यय अप्रीति का परिहार करते हुए भगवान मन्द पराक्रम करते और अहिंसापूर्वक साहार की गवेपणा करते थे। 66. चाहे सूपिक, दूध-दही मिश्रित आहार हो या सूका, ठण्डा-वासी आहार, पुराने कुल्माप/उड़द, बुक्कस | सत्तू अथवा पुलाग आहार के उपलब्ध या अनुपलब्ध होने पर भी वे समभाविक रहे / 67. वे महावीर उत्कृष्ट आसनों में स्थित और स्थिर ध्यान करते थे / ऊर्व, अधो और तिर्यग-ध्येय को देखते हुए समाधिस्थ एवं अप्रतिज्ञ रहते थे। 68. वे अकषायी, विगतगृद्ध, शब्द एवं रूप में अमूछित होते हुए ध्यान करते थे। छद्मस्थ-दशा में पराक्रम करते हुए उन्होंने एक बार भी प्रमाद नहीं किया / 66. स्वयं ही आत्म-शुद्धि के द्वारा आयतयोग को जानकर अभिनिर्वत्त, अमायावी भगवान जीवनपर्यन्त समितिपूर्वक विचरण करते रहे। 70. मतिमान माहन भगवान महावीर ने इस अनुक्रान्त प्रतिपादित विधि का अप्रतिज्ञ होकर आचरण किया / -ऐसा मैं कहता हूँ। उपधान-श्रुत 223