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आयार-सुत्तं
महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
प्रकाशक प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर
थी ज़ितयशाथी फाउंडेशन, कलकत्ता श्री जैन श्वे. नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवानगर
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दिसम्बर १६८९
संशोधन : डॉ. उदयचन्द जैन
प्रकाशक : प्राकृत भारती अकादमी ३८२६-यति श्यामलालजी का उपाश्रय, मोतीसिंह भोमियों का रास्ता, जयपुर-३०२००३ (राज.) श्री जितयशाधी फाउंडेशन ह-सी, एस्प्लांनेड रो ईस्ट, कलकत्ता-७०००६६
श्री जैन श्वे. नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ पो. मेवानगर-३४४०२५
जिला- बाड़मेर (राज.) AYAR-SUTTAM
मुद्रक : MAHOPADHYAY
पारदर्शी प्रिन्टर्स CHANDR PRABH SAGAR | २६१, ताम्वावती मार्ग, उदयपुर
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By
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प्रकाशकीय
श्रागमवेत्ता महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभसागरजी सम्पादित अनुवादित 'प्रायारसुतं' प्राकृत-भारती, पुष्प ६८ के रूप में प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता है ।
श्रागम - साहित्य जैन धर्म की निधि है । इसके कारण आध्यात्मिक वाङ्मय की अस्मिता श्रभिववित हुई है । जैन श्रागम - साहित्य को उसकी मौलिकताओं के साथ जनभोग्य सरस भाषा में प्रस्तुत करने की हमारी अभियोजना है । 'प्रायारसुत्तं' इस योजना की क्रियान्विति का एक चरण है ।
'प्रायार- सुत्तं' जैन श्रागम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ है । इसमें प्रचार के सिद्धान्तों और नियमों के लिए जिस मनोवैज्ञानिक आधार भूमि एवं दृष्टि को अपनाया गया है, वह आज भी उपादेय है । आचारांग की दार्शनिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टि भी वर्तमान युग के लिए एक स्वस्थ दिशा दर्शन है ।
ग्रन्थ के सम्पादक चन्द्रप्रभजी देश के सुप्रतिष्ठित प्रवचनकार हैं, चिन्तक हैं, लेखक हैं और कवि हैं । उनकी वैदुण्यपूर्ण प्रतिभा प्रस्तुत ग्रागम में सर्वत्र प्रतिविम्वित हुई है । ग्रनुवाद एवं भाषा वैशिष्ट्य इतना सजीव एवं सटीक है कि पाठक की सुप्त चेतना का तार-तार संकृत कर देती है । प्रस्तुत लेखन 'प्रायार-सुत्तं' का मात्र हिन्दी अनुवाद ही नहीं है, वरन् अनुसंधान भी है, जिसे एक चिन्तक की खोज कह सकते हैं |
गरिवर श्री महिमाप्रभसागरजी ने इस आगम- प्रकाशन अभियान के लिए हमें उत्साहित किया, एतदर्थ हम उनके हृदय से आभारी हैं ।
पारसमल भंसाली
ग्रध्यक्ष
श्री जैन श्वे. नाकोड़ा पार्श्व. तीर्थ, मेवानगर
देवेन्द्रराज मेहता सचिव
प्रकाशचन्द दफ्तरो
ट्रस्टी
श्री जितयणाश्री फाउंडेशन प्राकृत भारती अकादमी
कलकत्ता
जयपुर
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पूर्व स्वर
'ग्रायाग्-सुत' भगवान् महावीर की संन्यस्त श्राचार-संहिता है । इसमें साधक की भीतरी एवं बाहरी व्यक्तित्व को परिपूर्ण भाँको उभरी है। सद्विचार की शब्दसन्धियों में सदाचार का संचार ही इसकी प्रारणधारा है ।
'प्रायार- सुत्त" जैन परम्परा का खूट खजाना है । पर यदि इस ग्रन्थ को मात्र जैन श्रमण का ही प्रतिविम्ब कहा जाए, तो इसके भूमा कद को वोना करने का अन्याय होगा ।
'प्रायार- सुत्त" सार्वभौम है । इसे किसी सम्प्रदाय - विशेष की चौखट में न बांधकर विश्व-साधक के लिए मुहैया कराने में ही इस पारस ग्रन्थ का सम्मान है । इसकी स्वरिगमता/ उपादेयता सार्वजनीनता में है । यह उन सबके लिए है जो साधना अनुष्ठान में स्वयं को सर्वतोभावेन समर्पित करना चाहते हैं ।
'प्रायार- सुत्त' साधनात्मक जीवन-मूल्यों का स्वस्थ प्रचार-दर्शन है । यह साधक के अभिनिष्क्रांत कदमों को नयो दिशा दरशाता है और उसकी आंखों को विश्व-कल्याण के क्षितिज पर उघाड़ता है । महावीर की यह कालजयी शब्दसंरचना विश्व मानव की हथेली पर दीपदान है, जिसके प्रकाश में वह प्रतिसमय दीप्ति श्रोर दृष्टि प्राप्त करता रहेगा । 'प्रायार-सुत्त' मात्र महावीर की साधनात्मक देशना नहीं है, अपितु उनकी कररणामूलक सहिष्णुता की अस्मिता भी है । वे ही तो क्षर पुरुष हैं इस श्रागम के अनक्षर अक्षरों के ।
श्रागम ज्ञान -तीर्थ है। 'श्रयार-सुत्त' प्रथम तीर्थं है । और निदिध्यासन श्रात्म-साक्षात्कार के लिए महत् पहल है। से कुछ ऐसे तथ्य रोशन होते हैं जिनमें संसृति थंय की छाया झलकती है ।
इसका मनन, स्पर्शन इसके सूत्र - गवाक्षों में
यद्यपि इसको चंगुली श्रमरण की ओर इंगित है, किन्तु तनाव एवं संताप की पटों में कुलसते विश्व को शान्ति को स्वच्छ चन्दन-डगर देने में इसकी उपयोगिता विवाद से परे है ।
'प्रायार- सुत्त" का हर अध्याय साधना-मार्ग का मील का पत्थर है । प्राठवा श्रध्याय साधक का आखिरी पड़ाव है। नौवां अध्याय ग्रन्थ का उपसंहार नहीं,
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अपितु दर्पण है । साधना-जगत् का चप्पा-चप्पा छानने के बाद महावीर ने जो पगडंडी वताई, वही आठ अध्यायों के रूप में सीधे-सादे ढङ्ग से प्रस्तुत है । इसके छोटेछोटे सूव/सूक्त महावीर को नव्य ऋचाएं हैं। इनकी उपादेयता कदम-कदम पर अचक है। महावीर के इन अभिभापरणों में कहीं-कहीं काव्यात्मक धड़कन भी सुनाई देती है। यदि इन सूत्रों से घुलमिलकर बात की जाये, तो इनके पेट की अर्थगहराइयाँ उगलवाई जा सकती हैं।
महावीर ने 'पायार-सुत्त' में धमरण-आचार का जर्रा-जर्रा सामने रख दिया है । सचमुच, यह महावीर के प्राचारगत मापदण्डों का अद्भुत स्मारक है ।
इसका पहला अध्ययन 'जियो और जीने दो' के सांस्कृतिक वोधवाक्य को आँखों की रोशनी बनाकर स्वस्तिकर जीवन जीने की प्रेरणा देता है।
दूसरा अध्ययन अन्तर-व्यक्तित्व में अध्यात्म-क्रान्ति का अभियान चालू रखने के लिए खुलकर बोलता है।
तीसरा अध्ययन जय-पराजय जैसे उठापटक करने वाले परिवेश में स्वयं को तटस्थ बनाए रखने की सीख देता हुआ साधक को न्याय-तुला थमाता है।
चौथा अध्ययन सोये मानव पर पानी छिटककर उसकी हंस-दृष्टि को उघाड़ते हुए आत्म-अनात्म के दूध-पानी में भेद करने का विज्ञान आविष्कृत करता है।
पांचवां अध्ययन विश्व में सम्भावित हर तत्त्व-ज्ञान को खूब मथकर निकाला गया नवनीत है, जो प्रात्मा के मुखड़े को निखारने के लिए सौन्दर्य-प्रसाधन है।
छटा अध्ययन जीवन की मली-कुचेली चादर को अध्यात्म के घाट पर रगड़रगड़ कर धुनने धोने की कला सिखाता है।
सातवां अध्ययन काल-कन्दरा में चिर समाधिस्थ है।
आठवां अध्ययन संसार की सांझ एवं निर्वाण की मुबह का स्वणिम दृश्य दरशाता है।
नौवां अध्ययन महावीर के महाजीवन का मधुर संगान है।
'पायार-मुत्त' मेरे जीवन को प्रसन्नता और सम्पन्नता है। मुझे इससे बहुत प्रेम है । जैसा मैंने उसको अपने ढङ्ग से समझा है, उसे उमी रूप में डाल दिया है। पूर्वाग्रह के प्रस्तरों को हटाकर यदि इसे स्वयं के प्रारणों में अनवरत उतरने दिया गया, तो यह प्रयान मुमुक्षु पाठक को अमृत स्नान कराने में इंकलाव की प्राशा है।
उदयपुर, १४-११-८६
-चन्द्रप्रभ
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प्रवेश-द्वार
पायार-सुत्तं : सदाचार का रचनात्मक प्रवर्तन प्रागम-क्रम : प्रथम प्रागम ग्रंथ प्रवर्तन : भगवान महावीर प्रस्तुति : प्राचार्य सुधर्मा एवं अन्य प्रतिपाद्य-विषय : श्रमण-आचार का सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष रचना-काल : ईमा-पूर्व छठी से तीसरी शताब्दी मध्य रचना-शैली : सूत्रात्मक शैली भाषा : अर्धमागवी रस : शान्त-रस/वैराग्यरस मूल्य : बौद्धिकता एवं भावनात्मकता वैशिष्ट्य : अर्थ-प्राधान्य
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प्रथम श्रव्ययन
शस्त्र - परिज्ञा
द्वितीय अध्ययन लोक-विजय
तृतीय अध्ययन
शीतोष्णीय
चतुर्थ अध्ययन
सम्यक्त्व
पंचम अध्ययन
लोकसार
पप्ठ अध्ययन
धुत
सप्तम श्रव्ययन
महापरिज्ञा
अष्टम अध्ययन
विमोक्ष
नवम् अध्ययन
उपधान-श्रुत
अनुक्रम
१
५३
८७
१०७
१२३
१५१
१७४
१७५
२११
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पढमं अज्झयणं सत्थ-परिराराणा
प्रथम अध्ययन शस्त्र-परिज्ञा
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पूर्व स्वर
प्रस्तुत अध्याय ' शस्त्र - प्ररिज्ञा' है । शस्त्र हिसा का वाचक है। परिज्ञा प्रज्ञा का पर्याय है । इस प्रकार यह अध्याय हिंसा और अहिंसा का विवेक दर्शन है ।
इसमें समाज एवं पर्यावरण की समस्यायों का समाधान है। जीव जगत् के सङ्घठन, नियमन तथा विघटन की सूत्रात्मक परिचर्चा इस अध्याय की ग्रात्मकथा है ।
सर्वदर्शी महावीर ने समग्र अस्तित्व एवं पर्यावरण का गहराई से सर्वेक्षरण किया है । प्रस्तुत अध्याय उनकी प्रथम देशना है । इसमें पर्यावरण की रक्षा हेतु सद्विचार के सूत्रों में सदाचार का प्रवर्तन है । उनके अनुसार पर्यावरण का रक्षरण हिंसा का जीवन्त आचरण है। हमारे किसी क्रिया-कलाप से उसे क्षति पहुँचती है, तो वह आत्मक्षति ही है । सभी जीव सुख के अभिलापी हैं । भला, अपने अस्तित्व की जड़े कौन उखड़वाना चाहेगा ? अहिंसा ही माध्यम है, पर्यावरण के संरक्षरण एवं पल्लवन का ।
महावीर के विज्ञान में जीव जगत् की दो दिशाएँ थीं वनस्पति विज्ञान श्रीर प्राणि - विज्ञान । 'आचार-सूत्र' में इन्ही दो विज्ञानों का ऊहापोह किया गया है । इसमें वनस्पति, प्रारिण और मनुष्य के वीच भेद की सीमारेखा अनङ्कित है । पर्यावरण के प्रति महावीर की यह विराट दृष्टि वैज्ञानिक एवं प्रासङ्गिक है ।
पर्यावरण और हिंसा की पारस्परिक मैत्री है। इन दोनों का अलग-अलग स्तित्व नहीं है, महग्रस्तित्व है । हिंसा का अधिकाधिक न्यूनीकरण ही स्वस्थ समाज की संरचना में स्थायी कदम है। भाईचारे का प्रादर्श मनुष्येतर पेड़-पौधों के साथ स्थापित करना श्रहिंसा / साधना की श्रात्मीय प्रगाढ़ता है ।
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पर्यावरण का अस्तित्व स्वस्थ एवं संतुलित रहे, इसके लिए साधक का जागृत और समर्पित रहना साध्य की ओर चार कदम बढ़ाना है। दूसरों का छेदन-भेदन हनन न करके अपनी कपायों को जर्जरित कर हिंसा मुक्त प्राचरण करना साधक का धर्म है । इसलिए ग्रहिंसक व्यक्ति पर्यावरण का सजग प्रहरी है ।
पर्यावरण अस्तित्व का अपर नाम है । प्रकृति उसका अभिन्न अङ्ग है । उस पर मँडराने वाले खतरे के वादल हमारे ऊपर विजली का कौंधना है । इसलिए उसका पल्लवन या भंगुरण समग्र अस्तित्व को प्रभावित करता है ।
हमारे कार्यकलापों का परिसर बहुत बढ़ चढ़ गया है। उसकी सीमाएँ अन्तरिक्ष तक विस्तार पा चुकी हैं। मिट्टी, खनिज पदार्थ, जल, ज्वलनशील पदार्थ, चायु, वनस्पति प्रादि हमारे जीवन की आवश्यकताएँ हैं । किन्तु इनका छेदनभेदन-हनन इतना अधिक किया जा रहा है कि दुनिया से जीवित प्राणियों की अनेक जातियों का व्यापक पैमाने पर लोप हुआ है । प्रदूपरण- विस्तार के कारणों में यह भी मुख्य कारण है ।
महावीर ने पृथ्वी के सारे तत्त्वों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया । उन्होंने अपने शिष्यों को स्पष्ट निर्देश दिया कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, जीवजन्तु, मनुष्य आदि पर्यावरण के किसी भी अङ्ग को न नष्ट करे, न किसी और से नष्ट करवाये और न हो नष्ट करने वाले का समर्थन करे । वह संयम में पराक्रम करे । उनके अनुसार जो पर्यावरण का विनाश करता है, वह हिंसक है। महावीर हिंसा को कतई पसन्द नहीं करते। उन्होंने सङ्घर्षमुक्त समत्वनियोजित स्वस्थ पर्यावरण वनाने को शिक्षा दो ।
प्रदूपरण-जैसी दुर्घटना से बचने के लिए पेड़-पौधों एवं पशु-पक्षियों की रक्षा अनिवार्य है। इसी प्रकार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि के प्रदूपरणों से दूर रहने के लिए प्रतित्व रक्षा / ग्रहमा परिहार्य है |
प्रकृति, पर्यावरण और समाज सभी एक-दूसरे के लिए हैं। इनके अस्तित्व को बनाये रखने के लिए महावीर-वारणी क्रान्तिकारी पहल है । प्रस्तुत अध्याय ग्रहिंसक जीवन जीने का पाठ पढ़ाता है ।
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पढमो उददेसो
१. सुयं मे पाउसं ! तेणं भगवया एवमक्खाय
इहमेगेसि णो सण्णा भवइ, तं जहापुरथिमानो वा दिसानो आगो अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाम्रो आगो अहमंसि, पच्चत्थिनासो वा दिसानो आगो अहमंसि, उत्तरानो वा दिसाम्रो प्रागो अहमंसि, उड्ढामो वा दिसानो आगो अहमंसि, अहे वा दिसानो आगो अहमंसि, अण्णयरीनो वा दिसाओ अगुदिसानो वा आगो अहमंसि ।
२. एवमेगेसि णो णायं भवइ
अत्थि मे पाया प्रोववाइए, पत्थि मे प्रायश ओदवाइए, के अहं प्रासी ? के वा इनो चुनो इह पेच्चा भविस्सामि ?
३. से जं पुण जाणेज्जा
सहसं मइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसि वा अंतिए सोच्चा, तं जहापुरथिमानो वा दिसाओ पागो अहमंसि, दक्खिणानो वा दिसानो आगो अहमंसि, पच्चत्थिमानो वा दिसानो आगो अहमंसि, उत्तरानो वा दिसानो आगो अहमंसि, उड्ढामो वा दिसानो आगो अहमंसि,
पायार-सुर्त
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प्रथम उद्देशक
आयुष्मन् ! मैंने सुना है । भगवान् के द्वारा ऐसा कथित हैइस संसार में कुछ लोगों को यह समझ नहीं है, जैसे किमैं पूर्व दिशा से आया हूँ या अन्य दिशा से, अथवा दक्षिण दिशा से आया हूँ, अथवा पश्चिम दिशा से आया हूँ, अथवा उत्तर दिशा से आया हूँ, अथवा ऊर्ध्व दिशा से आया हूँ, अथवा अधो दिशा से आया हूँ, अथवा अन्यतर दिशा से या अनुदिशा, विदिशा से आया हूँ।
२. इसी प्रकार कुछ लोगों को यह ज्ञात नहीं होता है
मेरी आत्मा ओपपातिक है, मेरी आत्मा औपपातिक नहीं है।
मैं कौन था?
अथवा मैं यहाँ कहाँ से आया हूँ और यहाँ से च्युत होकर कहाँ जाऊँगा ?
फिर भी वह जान लेता हैस्वयंवुद्ध होने से, पर-उपदेश से अथवा अन्य लोगों से सुनकर । जैसे किमैं पूर्व दिशा से आया हूँ या अन्य दिशा से, अथवा दक्षिण दिशा से आया हूँ, अथवा पश्चिम दिशा से आया हूँ, अथवा उत्तर दिशा से आया हूँ, अथवा ऊर्ध्व दिशा से आया हूँ,
शस्त्र-परिज्ञा
AS
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४.
५.
८.
ε.
हे वा दिसा श्राश्रो ग्रह मंसि
प्रणयरीश्री वा दिसा अणुदिसाश्री वा प्रागश्रो ग्रहमंसि ।
६. अक रिस्सं च हैं, कारवेसु च हं, करओ यावि समणुष्णे भविस्सामि ।
७. एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्म-समारंभा परिजाणियव्वा भवंति ।
परिणाय - कम्मा खलु श्रयं पुरिसे जो इमाओ दिसाओ वा श्रणुदिसाश्रो वा अणुसंचर,
सव्वा दिसा सव्वा प्रणुदिसा साहेइ,
एवमेगेसि जं णायं भवइ
श्रत्थि मे श्राया ओववाइए ।
जो इमाओ दिसाओ वा प्रणुदिसाओ वा अणुसंचर,
सव्वाश्रो दिसाश्री सव्वाशे श्रणुदिसाओ जो प्रागो श्रणुसंचरइ सो हं ।
से श्रायावाई, लोयावाई, कम्मावाई, किरयावाई |
६
गरुवा जोणी संधेइ,
विरूवरूचे फासे य पडिसंवेदेइ ।
तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया ।
१०. इमस्स चेव जीवियस्स,
परिवंदण - माणण- पूयगाए, जाई - मरण - मोयगाए, दुक्खपडिघायहेउं ।
११. एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्म-समारंभा परिजाणियन्त्रा भवंति ।
१२. जस्तेए लोगंसि कम्न-सनारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिष्णाय - कस्मे |
-त्ति वेमि
प्रायार-पुत
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४.
५.
६.
७.
८.
अथवा अघो दिशा से आया हूँ,
अथवा अन्यतर दिशा ने या अनुदिशा, विदिशा से आया हूँ ।
इसी प्रकार कुछ लोगों को यह ज्ञात होता हैमेरी आत्मा आपपातिक है.
जो इन दिशाओं या अनुदिशाओं में विचरण करती है ।
जो सभी दिशाओं और सभी अनुदिशाओं में आकर विचरण करती है,
वही मैं आत्मा हूँ ।
वही आत्मवादी. लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है ।
मैंने क्रिया की, मैंने करवाई और करने वाले का समर्थन करूंगा ।
ये सभी क्रियाएँ लोक में कर्म-बन्धन-रूप ज्ञातव्य है ।
निश्चय ही, कर्म को न जाननेवाला यह पुरुष इन दिशाओं एवं अनुदिशाओं में विचरण करता है,
सभी दिशाओं और सभी अनुदिशाओं में जाता है
अनेक प्रकार की योनियों में सम्बन्ध रखता है,
अनेक प्रकार के प्रहारों का अनुभव करता है ।
निश्चय हो, इस विषय में भगवान् ने प्रज्ञापूर्वक समझाया है ।
९.
१०. और इस जीवन के लिए
प्रशंसा, सम्मान एवं पूजा के लिए
जन्म, मरण एवं मुक्ति के लिए
दुःखों से छूटने के लिए
[ प्राणी कर्म-वन्धन की प्रवृत्ति करता है । ]
११. ये सभी त्रियाएँ लोक में कर्म चन्धन रूप ज्ञातव्य हैं |
१२. जिम लोक में कर्म-बन्धन की क्रियाए ज्ञात हैं, वही परिज्ञात-कर्मी [हिंसात्यागी ] मुनि है ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
शस्त्र-परिज्ञा
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बौनो उद्देसो
१३. अट्टे लोए परिजुण्णे, दुस्संबोहे अविजाणए ।
१४. अस्सिं लोए पवहिए।
१५. तत्थ तत्थ पुढो पास, पाउरा परितार्वति ।
१६. संति पाणा पुढो सिया।
१७. लज्जमाणा पुढो पास ।
१८. 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा ।
१६. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढधिसत्थं समारंभेमाणे
अणेगरूवे पाणे विहिंसइ ।
२०. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । २१. इमस्स चेव जीवियस्स,
परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं ।
२२. से सयमेव पुढवि-सत्थं समारंभइ, अण्णेहि वा पुढवि-सत्थं समारंभावेइ,
अण्णे वा पुढवि-सत्थं समारंभंते समणुजाणद्र ।
२३. तं से अहियाए, तं से अबोहीए । २४. से तं संवुज्झमाणे, पायाणीयं समुट्ठाए ।
अायार-सुत्तं
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द्वितीय उद्देशक
१३. लोक में मनुष्य पीडित, परिजीर्ण, सम्बोधिरहित एवं अज्ञायक है । १४. इस लोक में मनुष्य व्यथित है ।
१५. तू यत्र-तत्र पृथक्-पृथक् देख ! आतुर मनुष्य [ पृथ्वीकाय को ] दुःख देते
१६. [ पृथ्वीकायिक ] प्राणी पृथक-पृथक हैं ।
१७. नू उन्हें पृथक-पृथक लज्जमान हीनभावयुक्त देख ।
१८. ऐसे कितने ही भिक्षुक स्वाभिमानपूर्वक कहते हैं - 'हम अनगार हैं।' १९. जो नाना प्रकार के स्त्रों द्वारा पृथ्वी-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर
पृथ्वीकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिसा करते हैं ।
२०. निश्चय ही, इस विषय में भगवान् ने प्रज्ञापूर्वक समझाया है । २१. और इस जीवन के लिए
प्रशंसा, सम्मान एवं पूजा के लिए, जन्म, मरण एवं मुक्ति के लिए दुःखों से छूटने के लिए
[प्राणी कर्म-वन्धन की प्रवृत्ति करता है । ] २२. वह स्वयं ही पृथ्वी-शस्त्र (हल आदि ) का प्रयोग करता है, दूसरों से
पृथ्वी-शस्त्र का प्रयोग करवाता है और पृथ्वी-शस्त्र के प्रयोग करनेवाले का समर्थन करता है।
२३. वह हिंसा अहित के लिए है और वही अवोधि के लिए है । २४. वह साधु उस हिंमा को जानता हुआ ग्राह्य-मार्ग पर उपस्थित होता है ।
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२५. सोच्चा भगवनी अणगाराणं वा इहमेगेसि णायं भवइ
एस खलु गंथे,
एस खलु मोहे,
एस खलु मारे,
एस खलु णरए ।
२६. इच्चत्थं गड्दिए लोए ।
२७. जमिणं विरूवरूवेहि सत्यहं पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्यं समारंभमाणे o गरूवे पाणे विहिंसइ ।
२८. से बेमि
१०
अप्पे अंधमभे, पेगे अंधमच्छे, अप्पे पायमन्भे, अयेगे पायमच्छे,
प्पे गुप्फमब्भे, अप्येगे गुप्कमच्छे, अप्पे जंधमध्भे, अप्पेगे जंघमच्छे, अप्पे जाणुमब्भे, अपेगे जाणुमच्छे, अप्पेगे ऊरुमब्भे, अप्पेगे ऊरुमच्छे, अप्पे कमिवभे अप्पेगे कडिमच्छे,
प्पे णाभिमन्मे अप्पे णाभिमच्छे, अप्पे उवरमभे, अप्पेगे उयरमच्छे, अप्पेगे पासमभे, ग्रप्पेगे पास मच्छे, अप्पे पिट्टमभे, श्रप्पेगे पिट्ठमच्छे, अप्पे उरमभे अप्पेगे उरमच्छे, अप्पे हिययमवभे अप्पेगे हिययमच्छे, अप्पे थणमब्भे, अप्पेगे थणमच्छे, अप्पेगे खंधमन्भे, श्रप्पेगे खंधमच्छे,
पेगे बाहुममे अप्पेगे वाहुमच्छे, अप्पे हत्थमभे अप्पेगे हत्थ मच्छे, अप्पे अंगुलिम, श्रप्पेगे अंगुलिमच्छे, अप्पेगे हममे, प्रप्येगे णहमच्छे, अप्पे गीवमब्भे, अप्पेगे गीवमच्छे,
श्रीयार-सुतं
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२५.
भगवान् या अनगार से सुनकर कुछ लोगों को यह ज्ञात हो जाता हैयही [हिमा ] ग्रंथि है, यही मोह है, यही मृत्यु है. यही नरक है।
२६. यह आमक्ति ही लोक है।
२७. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा पृथ्वी-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर
पृश्वीकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है।
२८. वही मैं कहता हूँ
कुछ जन्म से अन्धं होने हैं, तो कुछ छेदन से अन्धे होते हैं, कुछ जन्म से पंगु होते हैं, तो कुछ छेदन में पंगु होते हैं, कुछ जन्म से घुटने तक, तो कुछ छेदन से घुटने तक, कुछ जन्म से जंघा तक, तो कुछ छेदन से जंघा तक, कुछ जन्म से जानु तक, तो कुछ छेदन से जानु तक, कुछ जन्म से उरु तक, तो कुछ छेदन से उरु तक. कुछ जन्म से कटि तक, तो कुछ छेदन से कटि तक, कुछ जन्म से नामि तक, तो कुछ छेदन से नाभि तक, कुछ जन्म से उदर तक, तो कुछ छेदन से उदर तक, कुछ जन्म से पसली तक, तो कुछ छेदन से पसली तक, कुछ जन्म से पीठ तक, तो कुछ छेदन से पीठ तक, कुछ जन्म से छाती तक, तो कुछ छेदन से छाती तक, कुछ जन्म से हृदय तक, तो कुछ छेदन से हृदय तक, कुछ जन्म से सन तक, तो कुछ छेदन से स्तन तक, कुछ जन्म से स्कन्ध तक, तो कुछ छेदन से स्कन्ध तक, दुछ जन्म से बाहु तक, तो कुछ छेदन से वाहु तक, कुछ जन्म से हाथ तक, तो कुछ छेदन से हाथ तक, कुछ जन्म से अंगुली तक, तो कुछ छेदन से अंगुली तक, कुछ जन्म से नख तक, तो कुछ छेदन से नख तक, कुछ जन्म से गर्दन तक, तो कुछ छेदन से गर्दन तक,
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अप्पेगे हणुयमन्भे, अप्पेगे हणुय मच्छे, अप्पेगे होटुमन्भे, अप्पेगे होटुमच्छे, अप्पेगे दंतमन्भे, अप्पेगे दंतमच्छ। अप्पेगे जिन्भमन्भे, अप्पेगे जिन्भमच्छे, अप्पेगे तालुमन्भे, अप्पेगे तालुमच्छे, अप्पेगे गलमन्मे, अप्पेगे गलमच्छे, अप्पेगे गंडमन्भे, अप्पेगे गंडमच्छे, अप्पेगे कण्णमन्भे, अप्पेगे कण्णमच्छे, अप्पेगे णासमन्भे, अप्पेगे णासमच्छे, अप्पेगे अच्छिमन्ने, अप्पेगे अच्छिमच्छ, अप्पेगे भमुहमन्भे, अप्पेगे भमुहमच्छे, अप्पेगे णिडालमन्भे, अप्पेगे णिडालमच्छे, अप्पेगे सीसमन्मे, अप्पेगे सीसमच्छे,
२६. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए ।
३०. एत्य सत्यं समारंभमाणस्स इच्चेए प्रारंभा अपरिणाया भवंति ।
३१. एत्थ सत्यं असमारंभमाणस्स इच्चेए प्रारंभा परिषणाया भवंति ।
३२. तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं पुढवि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवणेहि पुढवि-सत्थं ___ समारंभावेज्जा, नेवणे पुढवि-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
३३. जस्सेए पुनवि-कम्म-समारंभा परिण्णाया भवंति, से ह मुणी परिप्णाय-कम्मे ।
-त्ति वेमि।
आयार-सुत्तं
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कुछ जन्म से ठुड्डी तक, तो कुछ छेदन से ठुड्डी तक, कुछ जन्म से होठ तक, तो कुछ छेदन से होठ तक, कुछ जन्म से दांत तक, तो कुछ छेदन से दांत तक, कुछ जन्म से जीम तक, तो कुछ छेदन से जीम तक, कुछ जन्म मे तालु तक, तो कुछ छेदन से तालु तक, कुछ जन्म से गले तक, तो कुछ छेदन से गले तक, कुछ जन्म मे गाल तक, तो कुछ छेदन से गाल तक, कुछ जन्म से कान तक, तो कुछ छेदन से कान तक, कुछ जन्म से नाक तक, तो कुछ छेदन से नाक तक, कुछ जन्म से आँख तक, तो कुछ छेदन से आँख तक, कुछ जन्म से भौंह तक, तो कुछ छेदन से मौह तक, कुछ जन्म से ललाट तक, तो कुछ छेदन से ललाट तक, कुछ जन्म से शिर तक, तो कुछ छेदन से शिर तक,
२९. कोई मूछित कर दे, कोई वध कर दे ।
[ जिस प्रकार मनुष्य के उक्त अवययों का छेदन भेदन कप्टकर है, उसी प्रकार पृथ्वीकाय के अवययों का।]
३०. शस्त्र-समारम्भ करने वाले के लिए यह पृथ्वीकायिक वध-वंधन अज्ञात है।
३१. शस्त्र-समारम्भ न करने वाले के लिए यह पृथ्वीकायिक वध-बंधन ज्ञात है ।
३२. उस पृथ्वीकायिक हिंसा को जानकर मेधावी न तो स्वयं पृथ्वी-शस्त्र का
उपयोग करता है, न ही पृथ्वी-शस्त्र का उपयोग करवाता है और न ही पृथ्वी-शस्त्र के उपयोग करने वाले का समर्थन करता है ।
३३. जिसके लिए ये पृथ्वी कर्म की क्रियाएँ परिज्ञात हैं, वही परिज्ञात-कर्मी [हिंसा-त्यागी ] मुनि है।
--ऐसा मैं कहता हूँ।
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शस्त्र-परिजा
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तइनो उद्देसो
३४. से वेमि
से जहावि अणगारे उज्जुकडे, णियागपडिवणे अमायं कुब्वमाणे वियाहिए।
३५. जाए सद्धाए णिवखंतो, तमेव अणुपालिया विहिता विसोत्तियं ।
३६. पणया वीरा महावाहि ।
३७. लोगं च प्राणाए अभिसमेच्चा अकुनोभयं ।
३८. ते वेमि
व सयं लोग अभाइक्खेज्जा, व अत्ताणं अभाइक्खेज्जा। जे लोयं अभाइखइ, से अत्ताणं अभाइवखइ । जे अत्ताणं अभाइक्सइ, से लोयं अभाइक्खइ ।
३६. लज्जमाणा पुढी पास।
४८. 'अणगारा मो' ति एगे पवयमाणा ।
४१. जमिणं विस्वत्वेहि सत्येहि उदय-कम्म-समारंभणं उदय-सत्यं समारंभमाणे
अणेगावे पाणे वित्तिक ।
४२. तत्थ खलु भगवया परिप्णा पवेइया ।
४३. इमल्स चेव जीवियस्स,
परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मायणाए, दुक्खपडिघायहे।
पायार-सुत्त
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तृतीय उद्देशक
३४. वही मैं कहता हूँ
जिससे अनगार ऋजु-परिणामी, मोक्ष-मार्गी और आर्जवधारी कहा गया है।
३५. जिस श्रद्धा से निष्क्रमण किया, उसका शंका-रहित पालन करें।
३६. वीर-पुरुष महापथ पर समर्पित हैं ।
३७. लोक को जिन-आज्ञा से समझकर भयमुक्त हों।
३८. वही मैं कहता हूं
[ जलकायिक ] लोक को न तो स्वयं अस्वीकार करे और न ही अपनी आत्मा को अस्वीकार करे। जो [ जलकायिक ] लोक को अस्वीकार करता है. वह आत्मा को अस्वीकार करता है, जो आत्मा को अस्वीकार करता है, वह [ जलकायिक ] लोक को अस्वीकार करता है।
३९. तू उन्हें पृथक पृथक लज्जमान/हीनभावयुक्त देख । ४०. ऐसे कितने ही भिक्षुक स्वाभिमानपूर्वक कहते हैं 'हम अनगार हैं।'
४१. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा जल-कर्म की त्रिया में संलग्न होकर जल
कायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करते हैं ।
४२. निश्चय ही, इस विषय में भगवान् ने प्रज्ञापूर्वक समझाया है।
४३. और इस जीवन के लिए,
प्रशंसा, सम्मान एवं पूजा के लिए, जन्म, मरण एवं मुक्ति के लिए दुःखों से छूटने के लिए, [प्राणी कर्म-बन्धन की प्रवृत्ति करता है ]
शस्व-परिना
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४४. से सयमेव उदय-सत्यं समारंभ, अणेहि वा उदय-सत्यं समारंभावेइ,
अण्णे बा उदय-सत्यं समारंभंते समणुजाण ।
४५. तं से अहियाए, तं से अबोहोए।
४६. ते तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए ।
सोच्दा भगवनो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि गायं भवइएस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु गरए।
४८. इच्चत्यं गड्ढिए लोए।
४६. जमिणं विरूवस्वेहि सत्येहि उदय-कम्म-समारंभेणं उदय-सत्यं समारंभमाणे
अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिसइ ।
५०. से वेमि
अप्पेगे अंधमन्मे, अप्पेगे अंधमच्छे, अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छ, अप्पेगे गुप्फमन्मे, अप्पेगे गुप्फमच्छे अप्पेगे जंघमन्भे, अप्पेगे जंघमच्छे, अप्पेगे जाणुमन्भे, अप्पेगे जाणुमच्छे, अप्पेगे ऊरुमन्भे, अप्पेगे ऊरुमच्छ, अप्पेगे कडिमन्मे, अप्पेगे कडिमच्छे, अप्पेगे णाभिमन्भे, अप्पेगे णाभिमच्छे, अप्पेने उयरमन्ने, अप्पेगे उयरमच्छे, अप्पेगे पासमन्भे, अप्पेगे पासमच्छे, अप्पेगे पिट्ठमन्मे, अप्पेगे पिटुमच्छे, अप्पेगे उरमन्भे, अप्पेगे उरमच्छे, अप्पेगे हिययमन्भे, अप्पेगे हिययमच्छे,
अायार-सुतं
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४४. वह स्वयं ही जल-शस्त्र का उपयोग करता है, दूसरों से जल-शस्त्र का
उपयोग करवाता है और जल-शस्त्र के उपयोग करने वालों का समर्थन करता है।
४५. वह हिंसा अहित के लिए है और वही अवोधि के लिए है।
४६. वह (साधु) उस हिंसा को जानता हुआ ग्राह्य-मार्ग पर उपस्थित होता है ।
४७. भगवान् या अनगार से सुनकर कुछ लोगों को यह ज्ञात हो जाता है
यही (हिंसा) ग्रन्थि है, यही मोह है, यही मृत्यु है, यही नरक है।
४८. यह आसक्ति हो लोक है ।
४९. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा जल-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर
जलकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है।
५०. वही मैं कहता हूँ---
कुछ जन्म से अन्चे होते हैं तो कुछ छेदन से अन्धे होते हैं कुछ जन्म से पंगु होते हैं तो कुछ छेदन से पंगु होते हैं, कुछ जन्म से घुटने तक, तो कुछ छेदन से घुटने तक, कुछ जन्म से जंघा तक, तो कुछ छेदन से जंघा तक, कुछ जन्म से जानु तक, तो कुछ छेदन से जानु तक, कुछ जन्म से उरु तक, तो कुछ छेदन से उरु तक, . कुछ जन्म से कटि तक, तो कुछ छेदन से कटि तक, कुछ जन्म से नाभि तक, तो कुछ छेदन से नाभि तक, कुछ जन्म से उदर तक, तो कुछ छेदन से उदर तक, कुछ जन्म से पसली तक, तो कुछ छेदन से पसली तक, कुछ जन्म से पीठ तक, तो कुछ छेदन से पीठ तक, कुछ जन्म से छाती तक, तो कुछ छेदन से छाती तक, कुछ जन्म से हृदय तक, तो कुछ छेदन से हृदय तक,
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शस्त्र-परिज्ञा
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अप्पैगे थणमन्भे, अप्पैगे थणमच्छे, अप्पेगे खंधमन्भे, अप्पेगे खंवमच्छे, अप्पेगे बाहुमन्ने, अप्पेगे वाहुमच्छे, अप्पेगे हत्यमन्मे. अप्पेगे हत्यमच्छे, अप्पेगे अंगुलिमन्भे, अप्पेगे अंगुलिमच्छे. अप्पेगे णहमज्भे, अप्पेगे णहमच्छ, अप्पेगे गोवमन्मे, अप्पेगे गीवमच्छे, अप्पेगे हणुयमन्मे, अप्पेगे हणयमन्छे, अप्पेगे हो?मन्ने, अप्पेगे होट्टनच्छे, अप्पेगे दंतमन्भे, अप्पेगे दंतमच्छे, अप्पेगे जिन्भमन्ने, अप्पेगे जिन्भमच्छे, अप्पेगे तालुमन्ने, अप्पेगे तालुमच्छे, अप्पेगे गलमन्ने, अप्पेगे गलमच्छे. अप्पेगे गंडमन्मे, अप्पेगे गंडमच्छे, अप्पेगे कण्णमन्मे, अप्पेगे कण्णमच्छ, अप्पेगे णासमन्ने. अप्पेगे णासमच्छे, अप्पेगे अच्छिमन्भे, अप्पेगे अच्छिमच्छे, अप्पेगे भमुहमन्ने, अप्पो भमुहमच्छे, अप्पेगे णिडालमन्भे, अप्पेगे गिडालनच्छे, अप्पेगे सीसमन्मे, अप्पेगे सीसमच्छे,
५१. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए ।
५२. से बेमि
संति पाणा उदय-निस्सिया जीवा अणेगा।
५३. इहं च खलु भो ! अणगाराणं उदय-जीवा विवाहिया ।।
५४. सत्यं चेत्यं अणुर्वीइ पासा .
प्राया-मुर्त
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कुछ जन्म से स्तन तक, तो कुछ छेदन से स्तन तक, कुछ जन्म से स्कन्ध तक, तो कुछ छेदन से स्कन्ध तक, कुछ जन्म से वाहु तक, तो कुछ छेदन से वाहु तक, कुछ जन्म से हाथ तक, तो कुछ छेदन से हाथ तक, कुछ जन्म से अंगुली तक, तो कुछ छेदन से अंगुली तक, कुछ जन्म से नख तक, तो कुछ छेदन से नख तक, कुछ जन्म से गर्दन तक, तो कुछ छेदन से गर्दन तक, कुछ जन्म से ठुड्डी तक, तो कुछ छेदन से ठुड्डी तक, कुछ जन्म से होठ तक, तो कुछ छेदन से होठ तक, कुछ जन्म से दांत तक, तो कुछ छेदन से दांत तक, कुछ जन्म से जीभ तक, तो कुछ छेदन से जीम तक, कुछ जन्म से तालु तक, तो कुछ छेदन से तालु तक, कुछ जन्म से गले तक, तो कुछ छेदन से गले तक, कुछ जन्म से गाल तक, तो कुछ छेदन से गाल तक, कुछ जन्म से कान तक, तो कुछ छेदन से कान तक, कुछ जन्म से नाक तक, तो कुछ छेदन से नाक तक, कुछ जन्म से आँख तक, तो कुछ छेदन से आँख तक, कुछ जन्म से भौंह तक, तो कुछ छेदन से भौंह तक, कुछ जन्म से ललाट तक, तो कुछ छेदन से ललाट तक, कुछ जन्म से शिर तक, तो कुछ छेदन से शिर तक,
५१. कोई मूछित कर दे, कोई वध कर दे ।
[ जिस प्रकार मनुष्य के उक्त अवययों का छेदन-भेदन कप्टकर है, उसी प्रकार जलकाय के अवययों का। 1.
५२. वही, मैं कहता हूँ
अनेक प्राणधारी जीव जल के आश्रित हैं ।
'५३. हे पुरुप! इस अनगार जिनशासन में कहा गया है कि जल स्वयं जीव रूप
५४. इस जलकायिक शस्थ [हिंसा पर विचार कर देख । शस्त्र-परिक्षा
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५५. पुढो सत्यं पवेइयं ।
५६. अदुवा अदिण्णादाणं ।
५७. कप्पइ णे, कप्पइ णे पाउं, अदुवा विभूसाए । ५८. पुढो सत्यहि विउति ।
५६. एत्यवि तेसि णो णिकरणाए ।
६०. एत्य सत्यं समारंभमाणस्स इच्चेए आरंभा अपरिण्णाया भवंति ।
६१. एत्य सत्यं असमारंभमाणस्स इच्चेए प्रारंभा परिण्णाया भवंति ।
६२. तं परिणाय मेहावी नेव तयं उदय-सत्यं समारंभेज्जा, वहि उदय-सत्यं
समारंभावेज्जा, उदय-सत्यं समारंभंते वि अण्गे ण समणुजाणेज्जा।
६३. जस्सेए उदय-कम्म-समारंभा परिणगाया भवंति, से हु मुणी परिण्णाय-कम्मे ।
-ति वेमि ।
चउत्यो. उद्देसो
६४. से चेमि
णेव सर्य लोग अभाइक्वेज्जा, व अत्ताणं अमाइक्वेज्जा । जे लोन अभाइवखइ, ते प्रत्ता अन्माइपखइ । जे अत्तापं अभाइक्खइ, से लोग अभाइक्सइ ।
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५५. शस्त्र अलग-अलग निरूपित हैं।
५६. अन्यथा अदत्तादान है।
[केवल हिंसा ही नहीं है, अपितु चोरी भी है।]
५७. कुछ लोगों के लिए जल पीने एवं नहाने के लिए स्वीकार्य है।
५८. वे पृथक-पृथक शस्त्रों से जलकाय की हिंसा करते हैं।
५६. यहाँ भी उनका कथन प्रामाणिक नहीं है।
६०. शस्त्र-समारम्भ करने वाले के लिए यह जलकायिक वध-बंधन अज्ञात है ।
६१. शस्त्र समारम्भ न करने वाले के लिए यह जलकायिक वध-बंधन ज्ञात है ।
६२. उस जलकायिक हिंसा को जानकर मेधावी न तो स्वयं जल-शस्त्र का
उपयोग करता है, न ही जल-शस्त्र का उपयोग करवाता है और न ही जल-शस्त्र के उपयोग करने वाले का समर्थन करता है।
६३. जिसके लिए ये जल-कर्म की क्रियाएँ परिज्ञात हैं, वही परिज्ञात-कर्मी [हिंसा-त्यागी ] मुनि है ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
चतुर्थ उद्देशक
६४. वही मैं कहता हूँ
[अग्निकायिक ] लोक को न तो स्वयं अस्वीकार करे और न ही अपनी आत्मा को अस्वीकार करे। जो [अग्निकायिक ] लोक को अस्वीकार करता है, वह आत्मा को अस्वीकार करता है, जो आत्मा को अस्वीकार करता है, वह [ जलकायिक ] लोक को अस्वीकार करता है।
सस्त्र-परिक्षर
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६५. जे दीहलोग-सत्थस्स सेयण्णे, से असत्यस्स खेवणे ।
जे असत्थस्त खेयण्णे, से दीहलोग-सत्थस्स खेयण ।
६६. वीरेहिं एयं अभिभूय दिट्ठ, संजेएहिं समा जहिं सया अप्पमहिं ।
६७. जे पमत्ते गुणढ़िए, से हु दंडे पदुच्चइ । ६८. तं परिणाय मेहावी इयाणि णो जमहं पुत्वमकासी पमाएणं ।
६९. लज्जमाणा पुढी पास ।
७०. 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा ।
७१. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि अगणि-कम्म-समारंभेणं अगणि-सत्थं समारंभ
माणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिसइ ।
७२. तत्थ खलु भगवया परिष्णा पवेइया ।
७३. इमस्स चेव जीवियस्स,
परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयगाए, दुक्खपडिघायहे।
७४. से सयमैव अगणि-सत्थं समारंभई, अण्णेहि वा अगणि-सत्यं समारंभाई,
अण्णे वा अगणि-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ ।
७५. त से अहियाए, तं से अवाहीए ।
७६. ते तं संजुज्झमाणे, पायाणीयं समुहाए ।
पायार-सुत्तं
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६५. जो अग्नि-गस्त्र को जानने वाला है, वह अणस्त्र/अहिंसा को जानने वाला
है। जो अहिंसा को जानने वाला है, वह अग्नि-शस्त्र को जानने वाला है।
६६. संयमी, अप्रमत, यमी, वीर-पुरुषों ने इस अग्नि-तत्त्व को सदैव साक्षात्
देखा है।
६७. जो प्रमत्त एवं अग्नि-गुणों का अर्थी है, वही हिंसक कहलाता है।
६८. यह जानकर मेधावी पुरुप सोचे कि जो मैंने पहले प्रमादवश किया, वह अब
नहीं करूंगा।
६९. तू उन्हें पृथक-पृथक लज्जमान हीनभावयुक्त देख।
.
७०. ऐसे कितने ही भिक्षुक स्वाभिमानपूर्वक कहते हैं - 'हम अनगार हैं।' ७१. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा अग्नि-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर
अग्निकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करते हैं ।
७२. निश्चय ही, इस विपय में भगवान् ने प्रज्ञापूर्वक समझाया है ।
और इस जीवन के लिए प्रशंसा, सम्मान एवं पूजा के लिए, जन्म, मरण एवं मुक्ति के लिए दुःखों से छूटने के लिए [ प्राणी कर्म-वन्धन की प्रवृत्ति करता है । ]
७४. वह स्वयं ही अग्नि-शस्त्र का प्रयोग करता है, दूसरों से अग्नि-शस्त्र का
प्रयोग करवाता है और अग्नि-शस्त्र के प्रयोग करनेवाले का समर्थन करता है।
७५. वह हिंसा अहित के लिए है और वही अबोधि के लिए है।
७६. वह साधु उस हिंसा को जानता हुआ ग्राह्य-मार्ग पर उपस्थित होता है ।
शस्त्र-परिज्ञा
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७७. तोच्चाभगवनो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णायं भवइ
एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए।
७८. इच्चत्यं गढिए लोए ।
७६. जमिणं विरूवरूवेहि सत्येहि अगणि-कम्न-समारंनेणं अगणि-सत्यं समारंभनाणे
अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ ।
८०. से वेमि
अप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे अंधमच्छ, अपेगे पायमन्मे, अप्पेगे पायमच्छे, अप्पेगे गुप्फमन्भे, अप्पेगे गुप्फमच्छे, अप्पेगे जंघमत्मे, अप्पेगे जंघमच्छ, अप्पेगे जाणुमन्भे, अप्पेगे जाणुमच्छे। अप्पेगे ऊरुमब्मे, अप्पेगे ऊरुमच्छे, अप्पेगे कडिमन्भे, अप्पेगे कडिमच्छे, अप्पेगे णाभिमन्भे, अप्पेगे णाभिमच्छ, अप्पेगे उयरमन्भे, अप्पेगे उयरमच्छ, अप्पेगे पासमन्भे, अप्पेगे पासमच्छे, अप्पेगे पिटुमन्भे, अप्पेगे पिटुमच्छे, अप्पेगे उरमध्भे, अप्पेगे उरमच्छे, अप्पेगे हिययमन्भे, अप्पेगे हिययमच्छे, अप्पेगे थणनमे अप्पेगे थणमच्छे, अप्पेगे खंघमन्भे, अप्पेगे खंधमच्छे, अप्पेगे बाहुमन्भे, अप्येगे वाहमच्छे, अप्पेगे हत्यमन्भेअप्पेगे हत्यमच्छे, अप्पेगे अंगुलिमभे, अप्पेगे अंगुलिमच्छे, अप्पेगे णहमन्मे, अप्पेगे णहमच्छे, अप्पो नीवमन्भे, अप्पेगे गीवमच्छे
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प्राचार मुत्त
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७७. भगवान् या अनगार से सुनकर कुछ लोगों को यह ज्ञात हो जाता है
यही [ हिंसा ] ग्रंथि है, यही मोह है, यही मृत्यु है, यही नरक है।
७८. यह आसक्ति ही लोक है ।
७६. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा अग्नि-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर
अग्निकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है ।
८०. वही मैं कहता हूँ
कुछ जन्म से अन्धे होते हैं, तो कुछ छेदन से अन्धे होते हैं, कुछ जन्म से पंगु होते हैं, तो कुछ छेदन से पंगु होते हैं, कुछ जन्म से घुटने तक, तो कुछ छेदन से घुटने तक, कुछ जन्म से जंघा तक, तो कुछ छेदन से जंघा तक, कुछ जन्म से जानु तक, तो कुछ छेदन से जानु तक, कुछ जन्म से उरु तक, तो कुछ छेदन से उरु तक, कुछ जन्म से कटि तक, तो कुछ छेदन से कटि तक, कुछ जन्म से नाभि तक, तो कुछ छेदन से नामि तक, कुछ जन्म से उदर तक, तो कुछ छेदन से उदर तक, कुछ जन्म से पसली तक, तो कुछ छेदन से पसली तक, कुछ जन्म से पीठ तक, तो कुछ छेदन से पीठ तक, कुछ जन्म से छाती तक, तो कुछ छेदन से छाती तक, कुछ जन्म से हृदय तक, तो कुछ छेदन से हृदय तक, कुछ जन्म से स्तन तक, तो कुछ छेदन से स्तन तक, कुछ जन्म से स्कन्ध तक, तो कुछ छेदन से स्कन्ध तक, कुछ जन्म से वाहु तक, तो कुछ छेदन से बाहु तक, कुछ जन्म से हाथ तक, तो कुछ छेदन से हाथ तक, कुछ जन्म से अंगुली तक, तो कुछ छेदन से अंगुली तक, कुछ जन्म से नख तक, तो कुछ छेदन से नख तक, कुछ जन्म से गर्दन तक, तो कुछ छेदन से गर्दन तक,
शस्त्र-परिक्षा
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अप्पेगे हणुयमन्भे, अप्पेगे हणुयमच्छे, अप्पेगे हो?मन्भे, अप्पेगे होटुमच्छे, अप्पेगे दंतमन्मे, अप्पेगे दंतमच्छ, अप्पेगे जिन्भमन्मे, अप्पेगे जिन्भमच्छे, अप्पेगे तालुमन्भे, अप्पेगे तालुमच्छ, अप्पेगे गलमन्मे, अप्पेगे गलमच्छ, अप्पेगे गंडमन्भे, अप्पेगे गंडमच्छे, अप्पेगे कण्णमन्मे, अप्पेगे कण्णमच्छे, अप्पेगे णासमन्भे, अप्पेगे णासमच्छे, अप्पेगे अच्छिमन्भे, अप्पेगे अच्छिमच्छ, अप्पेगे भमुहमन्भे, अप्पेगे भमुहमच्छ, अप्पेगे णिडालमन्मे, अप्पेगे णिडालमच्छे, अप्पेगे सीसमन्भे, अप्पेगे सीसमच्छे,
८१. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए ।
५२. से वेमि
संति पाणा पुढवि-णिस्सिया, तण-णिस्सिया, पत्त-णिस्सिया, कट-णिस्सिया
गोमय-णिस्सिया, कयवर-णिस्सिया । ८३. संति संपातिमा पाणा, पाहच्च संयंति य ।
अगणि च खलु पुट्ठा, एगे संघायमावज्जति ।। जे तत्थ संघायमावज्जंति, ते तत्थ परियावज्जति । जे तत्थ परियावज्जति, ते तत्थ उद्दायति ।।
८४. एत्थ सत्यं समारंभमाणस्स इच्चेए प्रारंभा अपरिणाया भवति ।
५५. एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेए आरंभा परिणाया भवंति ।
८६. तं परिणाय मेहावी नेव सयं अगणि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवणेहिं अगणि
सत्थं समारंभावेज्जा, अगणि-सत्थं समारंभमाणे अण्णे न समजाणेजा।
VE
प्रायार-सुत्तं
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कुछ जन्म से ठुड्डी तक, तो कुछ छेदन सं टुड्डी तक, कुछ जन्म से होठ तक, तो कुछ छेदन से होठ तक, कुछ जन्म मे दांत तक, तो कुछ छेदन से दांत तक, कुछ जन्म से जीभ तक, तो कुछ छेदन से जीभ तक, कुछ जन्म से तालु तक, तो कुछ छेदन से तालु तक, कुछ जन्म से गले तक, तो कुछ छेदन से गले तक, कुछ जन्म से गाल तक, तो कुछ छेदन से गाल तक, कुछ जन्म से कान तक, तो कुछ छेदन से कान तक, कुछ जन्म से नाक तक, तो कुछ छेदन से नाक तक, कुछ जन्म से आँख तक, तो कुछ छेदन से आँख तक, कुछ जन्म से भौंह तक, तो कुछ छेदन से मोह तक, कुछ जन्म से ललाट तक, तो कुछ छेदन से ललाट तक, कुछ जन्म से शिर तक, तो कुछ छेदन से शिर तक,
८१. कोई मूछित कर दे, कोई वध कर दे ।
[ जिस प्रकार मनुष्य के उक्त अवयवों का छेदन-भेदन कष्टकर है, उसी प्रकार अग्निकाय के अवयवों का । ]
८२. वही मैं कहता हूँ
प्राणी पृथ्वी के आश्रित हैं, तृण के आश्रित हैं, पत्नों के आथित हैं, काप्ठ के आश्रित हैं, गोवर-कण्डे के आश्रित हैं, कचरे के आश्रित हैं।
८३. संपातिम प्राणी अग्नि में आकर गिरते हैं और अग्नि का स्पर्श पाकर कुछ
संकुचित होते हैं । वे वहाँ परितप्त होते हैं और जो वहाँ परितप्त होते हैं, वे वहाँ मर जाते हैं।
८४. शस्त्र-समारम्भ करने वाले के लिए यह अग्निकायिक वध-वन्धन अनात है।
८५. शस्त्र-समारम्भ न करने वाले के लिए यह अग्निकायिक वध-बन्धन ज्ञात है।
८६. उस अग्निकायिक हिंसा को जानकर मेवावी न तो स्वयं अग्नि-गस्त्र का
उपयोग करता है, न ही अग्नि-शस्त्र का उपयोग करवाता है और न ही अग्नि-शस्त्र के उपयोग करने वाले का समर्थन करता है।
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पंचमो उद्देसो
८. तं पो करिस्तानि समुहाए ।
६. नत्ता मडम अभयं विदित्ता।
२०. तने जो करए. एलोवरए. एस्योवरए एस अपगारेति पच्दछ ।
११. ते गुणे से आटे ने प्रावटे से गुजे ।
२. उड्ई अहं तिरियं पाई पासनाने हवाई पानह. सुपनाजे सहाई हुई।
२३. उडं अहं तिरिय पार्डगं नुच्छमाणे त्वेन मृच्छत. सद्दे भाबि ।
६४. एस लोए चिाहिए। १५. एत्य अगुतै प्रणाणाए।
६६. पुणो-युगौ गुणासाए. वंकलमायारे. पमत्तै अगारमादसे ।
प्राधार
क्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् COUNCIL OF EDUCATIONAL RESEARCH AND TRAINING
ISBN: 81-7450-2
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८७. जिसके लिए ये अग्नि-कर्म की क्रियाएँ परिज्ञात है, वही परिक्षात कर्मी [हिना-त्यागी ] मुनि है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
पंचम उद्देशक
hur
दे
८८. मैं संयम-मार्ग पर समुपस्थित होकर उस हिंसा को नहीं करूंगा।
८६. मतिमान पुरुप अभय को जानकर [ हिंसा नहीं करता ]
१०. जो हिंसा नहीं करता, वह हिंसा से विरत होता है। जो विरत है, वह
अनगार कहा जाता है।
६१. जो गुण (इन्द्रिय-विपय) है, वह आवर्त संसार है और जो पावर्त है, वह
गुण है।
६२. अवं, अघो, तिर्यक्, प्राची दिशाओं में देखता हुमा रूपों को देखता है,
सुनता हुआ शब्दों को सुनता है ।
६३. ऊर्ध्व, अधो, तिर्यक्, प्राची दिशाओं में मूच्छित होता हुआ रूपों में मूच्छित
होता है, शब्दों में मूच्छित होता है।
६४. इसे संसार कहा गया है। ६५. जो इन [ इन्द्रिय-विपयों ] में अगुप्त/असंयमी है, वह प्राज्ञा/अनुशासन में
नहीं है।
६६. वह पुनः पुनः गुणों में आसक्त है, छल-कपट करता है, प्रमत्त है, गृहवासी
शस्त्र-परिज्ञा
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६७. लज्जमाणा पुढो पास ।
६८. 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा ।
६६. जमिणं विल्वरूवेहि सत्यहि वणस्सइ-काम-समारंभेणं वणस्सइ-सत्यं समारंभ
माणे अणेगल्वे पाणे विहिंसइ ।
१००. तत्थ खतु भगवया परिण्णा पवेइया ।
१०१. इमस्स चेव जीवियस्स,
परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहे।
१०२. ते सयमेव वणस्सइ-सत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा वणस्सइ-सत्थं समारंभावेइ,
अण्णे वा वणस्सइ-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ ।
१०३. तं ते अहियाए, तं से अबोहोए ।
१०४. से तं संवुज्झमाणे, पायाणीयं समुट्ठाए।
१०५. तोच्चा भगवनो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि गायं भवइ
एस खलु गंथे, एस खलु मोहे। एस खलु मारे, एस खलु णरए ।
१०६. इच्चत्थं गढिए लोए । । १०७. जमिणं विस्वस्वेहि सत्यहि वणस्सई-कम्म-समारनेणं, वणस्सइ-सत्यं तमा
रंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहितइ ।
पायार-सुत्तं
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६७. तू उन्हें पृथक-पृथक लज्जमान/हीनभावयुक्त देख । ६८. ऐसे कितने ही भिक्षुक स्वाभिमानपूर्वक कहते हैं - 'हम अनगार हैं ।'
६६. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा वनस्पति-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर
वनस्पतिकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करते हैं ।
१००. निश्चय ही, इस विषय में भगवान् ने प्रज्ञापूर्वक समझाया है ।
१०१. और इस जीवन के लिए ही
प्रशंसा, सम्मान एवं पूजा के लिए, जन्म, मरण एवं मुक्ति के लिए दु.खों से छूटने के लिए [ प्राणी कर्म-बन्धन की प्रवृत्ति करता है । ]
१०२. वह स्वयं ही वनस्पति-शस्त्र का प्रयोग करता है, दूसरों से वनस्पति-शस्त्र
का प्रयोग करवाता है और वनस्पति-शस्त्र के प्रयोग करनेवाला का समर्थन करता है।
१०३. वह हिंसा अहित के लिए है ओर वही अवोधि के लिए है ।
१०४. वह साधु उस हिंसा को जानता हुआ ग्राह्य-मार्ग पर उपस्थित होता है । १०५. भगवान् या अनगार से सुनकर कुछ लोगों को यह ज्ञात हो जाता है
यही [ हिंसा ] ग्रन्थि है, यही मोह है, यही मृत्यु है, यही नरक है।
१०६. यह आसक्ति ही लोक है।
१०७. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा वनस्पति-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर
वनस्पतिकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है।
शस्त्र-परिज्ञा
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१०८. से वैमि
अप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे अंधमच्छे, अप्पेगे पायमन्मे, अप्पेगे पायमच्छे, अप्पेगे गुप्फमन्भे, अप्पेगे गुप्फमच्छे, अप्पेगे जंघमन्भे, अप्पेगे जंघमच्छे अप्पेगे जाणुमब्भे, अप्पेगे जाणुमच्छे, अप्पेगे ऊरुमन्भे, अप्पेगे ऊरुमच्छे, अप्पेगे कडिमन्मे, अप्पेगे कडिमच्छे, अप्पेगे णाभिमन्मे, अप्पेगे णाभिमच्छे, अप्पेगे उयरमन्मे, अप्पेगे उयरमच्छे, अप्पेगे पासमन्मे, अप्पेगे पासमच्छे, अप्पेगे पिट्ठमन्भे, अप्पेगे पिटुमच्छे, अप्पेगे उरमन्भे, अप्पेगे उरमच्छ, अप्पेगे हिययमन्भे, अप्पेगे हिययमच्छे, अप्पेगे थणमन्भे, अप्पेगे थणमच्छे, अप्पेगे खंधमन्भे, अप्पेगे खंधमच्छ, अप्पेगे वाहुमन्भे, अप्पेगे बाहुमच्छे, अप्पेगे हत्यमन्भे, अप्पेगे हत्यमच्छे, अप्पेगे अंगुलिमन्मे, अप्पेगे अंगुलिनच्छे, अप्पेगे णहमन्मे, अप्पेगे णहमच्छे, अप्पेगे गीदमन्भे, अप्पेगे गीवमच्छे, अप्पेगे हणुयमन्भे, अप्पेगे हणुयमच्छ, अप्पेगे होटुमन्भे, अप्पेगे होटुमच्छे, अप्पेगे दंतमन्भे, अप्पेगे दंतमच्छे, अप्पेगे जिन्भमन्भे, अप्पेगे जिन्भमच्छे, अप्पेगे तालुमन्भे, अप्पेगे तालुमच्छे, अप्पेगे गलमन्भे, अप्पेगे गलमच्छे, अप्पेगे गंडमन्भे, अप्पेगे गंडमच्छे, अप्पेगे कण्णमन्भे, अप्पेगे कण्णमच्छे, अप्पेगे णासमन्भे, अप्पेगे णासमच्छे, अप्पेगे अच्छिमन्भे, अप्पेगे अच्छिमच्छे, अप्पेगे भमुहमन्भे, अप्पेगे भमुहमच्छे,
प्रांयार-सुत्तं
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१०८. वही मैं कहता हूँ
कुछ जन्म से अन्चे होते हैं, तो कुछ छेदन से अन्धे होते हैं, कुछ जन्म से पंगु होते हैं, तो कुछ छेदन से पंगु होते हैं, कुछ जन्म से घुटने तक, तो कुछ छेदन से घुटने तक, कुछ जन्म से जंघा तक, तो कुछ छेदन से जंघा तक, कुछ जन्म से जानु तक, तो कुछ छेदन से जानु तक, कुछ जन्म से उरु तक, तो कुछ छेदन से उरु तक, कुछ जन्म से कटि तक, तो कुछ छेदन से कटि तक, कुछ जन्म से नाभि तक, तो कुछ छेदन से नाभि तक, कुछ जन्म से उदर तक, तो कुछ छेदन से उदर तक, कुछ जन्म से पसली तक, तो कुछ छेदन से पसली तक, कुछ जन्म से पीठ तक, तो कुछ छेदन से पीठ तक, कुछ जन्म से छाती तक, तो कुछ छेदन से छाती तक, कुछ जन्म से हृदय तक, तो कुछ छेदन से हृदय तक, कुछ जन्म से स्तन तक, तो कुछ छेदन से स्तन तक, कुछ जन्म से स्कन्ध तक, तो कुछ छेदन से स्कन्ध तक, कुछ जन्म से वाहु तक, तो कुछ छेदन से वाहु तक, कुछ जन्म से हाथ तक, तो कुछ छेदन से हाथ तक, कुछ जन्म से अंगुली तक, तो कुछ छेदन से अंगुली तक, कुछ जन्म से नख तक, तो कुछ छेदन से नख तक, कुछ जन्म से गर्दन तक, तो कुछ छेदन से गर्दन तक, कुछ जन्म से ठुड्डी तक, तो कुछ छेदन से ठुड्डी तक, कुछ जन्म से होठ तक, तो कुछ छेदन से होठ तक, कुछ जन्म से दांत तक, तो कुछ छेदन से दांत तक, कुछ जन्म से जीम तक, तो कुछ छेदन से जीभ तक, कुछ जन्म से तालु तक, तो कुछ छेदन से तालु तक, कुछ जन्म से गले तक, तो कुछ छेदन से गले तक, कुछ जन्म से गाल तक, तो कुछ छेदन से गाल तक, कुछ जन्म से कान तक, तो कुछ छेदन से कान तक, कुछ जन्म से नाक तक, तो कुछ छेदन से नाक तक, कुछ जन्म से आँख तक, तो कुछ छेदन से आँख तक, कुछ जन्म से भौंह तक, तो कुछ छेदन से भौंह तक,
सस्न-परिज्ञा
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अप्पगे णिडालमन्भे, अप्पेगें णिडाल मच्छे, अप्पेगे सीसमन्भे, अप्पेगे सीसमच्छे,
१०६. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए ।
११०. से वेमि
इमंपि जाइधम्मयं, एयंपि जाइधम्मयं । इमंपि धिम्मयं, एयंपि धिम्मयं । इमंपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं । इमंपि छिण्णं. मिलाइ, एवं.पि छिण्णं मिलाइ
इमंपि आहारगं, एयंपि पाहारगं । इमंपि अणिच्चयं, एयंपि अणिच्चयं । इमंपि असासयं, एयंपि असासयं। इमंपि चनोवचइयं, एयंपि चनोवचइयं ।
इमंपि विपरिणामधम्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं ।
१.११. एत्य सत्यं समारंभमाणस्स इच्चेए प्रारंभा अपरिणाया भवंति ।
११.२. एत्य सत्थं प्रसमारंभमाणस्स इच्चेए प्रारंभा परिणाया भवति ।
११३. तं परिणाय मेहाची णेव सर्य वणस्सइ-सत्यं समारंभज्जा, णेवणेहं दणस्तइ.
सत्यं समारंभावेज्जा, णेवणे. वणस्सा-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
११४. जस्सेए वणस्सइ-सत्थ-समारंभा परिणाया भवंति, से हु मुणी परिण्णायकम्मे ।।
-त्ति बेमि
अायार-सुत्तं
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कुछ जन्म से ललाट तक तो कुछ छेदन से ललाट तक, कुछ जन्म से शिर तक, तो कुछ छेदन से शिर तक,
१०६. कोई मूर्च्छित कर दे, कोई वध कर दे 1
[ जिस प्रकार मनुष्य के उक्त अवययों का छेदन-भेदन कष्टकर है, उसी प्रकार वनस्पतिकाय के अवययों का । ]
११०. वही मैं कहता हूँ
यह (मनुष्य) भी जातिधर्मक है, यह (वनस्पति) भो जातिधर्मक है 1
यह (मनुष्य) भी वृद्धिधर्मक है, यह (वनस्पति) भी वृद्धिधर्मक है ।
यह (मनुष्य) भी चैतन्य है. यह (वनस्पति) भी चैतन्य है ।
यह (मनुष्य) भी छिन्न होने पर कुम्हलाता है, यह (वनस्पति) भी छिन्न होने पर कुम्हलाता है ।
यह (मनुष्य) भी आहारक है, यह (वनस्पति) भी आहारक है ।
यह (मनुष्य) भी अनित्य है, यह (वनस्पति) भी अनित्य है 1
यह (मनुष्य) भी अशाश्वत है, यह (वनस्पति) भी अशाश्वत है ।
यह मनुष्य भी उपचित और अपचित है, यह (वनस्पति) भी उपचित और अपचित है ।
यह (मनुष्य) भी विपरिणामीघर्मक है, यह (वनस्पति) भी चिपरिणामी - धर्मक है ।
१११. शस्त्र-समारम्भ करने वाले के लिए यह वनस्पति कायिक वध-वन्धन अज्ञात है |
११२. शस्त्र-समारम्भ न करने वाले के लिए यह वनस्पतिकायिक वव-बन्धन ज्ञात है ।
११३. उस वनस्पतिकायिक हिंसा को जानकर मेधावी न तो स्वयं वनस्पति-शस्त्र का उपयोग करता है, न ही वनस्पति-शस्त्र का उपयोग करवाता है और न ही वनस्पति-शस्त्र के उपयोग करने वाले का समर्थन करता है ।
११४. जिसके लिए ये वनस्पतिकर्म की क्रियाएं परिज्ञात हैं, वही परिज्ञातकर्मी [ हिंसा-त्यागी ] मुनि है ।
शरत-परिज्ञा
-- ऐसा मैं कहता हूँ ।
३.५
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११५. से वेमि
छट्टो उद्देसो
संति तसा पांणा, तं जहा
अंडया पोयया जराज्या रसया संसेयया संमुच्छिमा उब्भिया श्रोववाइया ।
११६. एस संसारेति पवृच्चई |
११७. मंदस्स श्रवियाणी ।
११८. णिज्भाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिणिव्वाणं ।
११. सव्वेंस पाणाणं, सव्वेंस भूयाणं, सव्वेंस जीवाणं, सव्वेंस सत्ताणं अस्सायं परिणिव्वाणं महत्भयं दुक्खं त्ति वेमि ।
१२०. तसंति पाणा पदिसो दिसासु य ।
१२१. तत्य-तत्य पुढो पास, आाउरा परितार्वेति ।
१२२. संति पाणा पुढो सिया ।
१२३. लज्जमाणा पुढो पास ।
१२४. 'अणगारा मो' ति एगे पवयमाणा ।
१२५. जमिणं विरूवरूहि सत्येहि तसकाय-समारंभेर्ण तसकाय-सत्यं समारंभमाणे श्रवणे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ ।
३६
१२६. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया ।
श्रायार-सुतं
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षष्ठ उद्देशक
११५ वही मैं कहता हूँ
ये त्रस प्राणी है जैसे किअंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, समूच्छिम, उद्भिज्ज/भूमिज और औपपातिक ।
११६. यह [ असलोक ] संसार है, ऐसा कहा जाता है।
११७. यह मंद और अज्ञानी के लिए होता है ।
११८. चिन्तन एवं परिशीलन करके देखें कि प्रत्येक प्राणी मुख चाहता है।
११६. सभी प्राणियों, सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सत्त्वों के लिए अशाता
और अपरिनिर्वाण ( दुःख ) भयंकर दुःख रूप है।
१२०. प्राणी प्रत्येक दिशा और विदिशा में त्रास/दुःख पाते हैं ।
१२१. तू यत्र-तत्र पृथक-पृथक देख ! आतुर मनुष्य दुःख देते हैं ।
१२२. प्राणी पृथक-पृथक हैं।
१२३. तू उन्हें पृथक पृथक लज्जमान/हीनभावयुक्त देख ।
१२४. ऐसे कितने ही भिक्षुक स्वाभिमानपूर्वक कहते हैं- 'हम अनगार हैं ।',
१२५. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा स-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर
त्रसकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है।
१२६. निश्चय ही, इस विषय में भगवान् ने प्रज्ञापूर्वक समझाया है।
शस्त्र-परिजर
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१२७. इमस्स चेव जीवियस्स,
परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहे।
१२८. से सयमेव तसकाय-सत्यं समारंभइ, अनुहिं वा तसकाय-सत्यं समारंभावेइ, __ अण्णे वा तसकाय-सत्यं समारंभमाणे समणुजाणइ ।
१२६. तं से अहियाए, तं से अबोहोए ।
१३०. से तं संवुझमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए ।
१३१. सोच्चा भगवनो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णायं भवइ
एस खलु गये, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु गरए ।
१३२. इच्चत्यं गड्ढिए लोए ।
१३३. जमिणं विरूवरूवेहि सत्यहि तसकाय-सनारने
अण्णे अणेगावे पाणे विहिसइ ।
सकाय सत्यं समारंभमाणे
१३४. से वेमि
अप्पेगे अंधमन्मे, अप्पेगे अंघमच्छे, अप्पेगे पायमन्मे, अप्पेगे पायमच्छे, अप्पेगे गुप्फमन्ने, अप्पेगे गुप्फमच्छे, अप्पेगे जंघमन्मे, अप्पेगे जंघमच्छे, अप्पेगे जाणुमन्मे, अप्पेगे जाणुमच्छे, अप्पेगे ऊरुमन्मे अप्पेगे ऊरनच्छे,
प्राचार-युक्त
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१२७ और इस जीवन के लिए
प्रशंसा, सम्मान एवं पूजा के लिए
जन्म, मरण एवं मुक्ति के लिए दुःखों से छूटने के लिए
[ प्राणी कर्म-वन्धन की प्रवृत्ति करता है । ]
१२- वह स्वयं ही त्रम-शस्त्र का उपयोग करता है, दूसरों से त्रस - शस्त्र का उपयोग करवाता है और त्रस - शस्त्र के उपयोग करने वालों का समर्थन करता है |
१२. वह हिंसा अहित के लिए है और वही अवधि के लिए है 1
१३०. वह (साधु) उस हिंसा को जानता हुआ ग्राह्य मार्ग पर उपस्थित होता है ।
१३१. भगवान् या अनगार से सुनकर कुछ लोगों को यह ज्ञात हो जाता हैयही (हिंसा) ग्रन्थि है,
यही मोह है,
यही मृत्यु हैं,
यही नरक है ।
१३२. यह आसक्ति हो लोक है ।
१३३. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा त्रस-कर्म को क्रिया में संलग्न होकर कायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करते हैं ।
१३४. वही मैं कहता हूँ
कुछ जन्म से ग्रन्धे होते हैं, तो कुछ छेदन से ग्रन्धे होते हैं । कुछ जन्म से पंगु होते हैं, तो कुछ छेदन से पंगु होते हैं, कुछ जन्म से घुटने तक, तो कुछ छेदन से घुटने तक, कुछ जन्म से जंघा तक तो कुछ छेदन से जंघा तक, कुछ जन्म से जानु तक, तो कुछ छेदन से जानु तक, कुछ जन्म से उरु तक, तो कुछ छेदन से उरु तक,
शस्त्र-परिज्ञा
tal
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प्पे कमिटमे अप्पेगे कडिमच्छे, प्पे णाभिमन्मे अप्पेगे णाभिमच्छे, प्पेगे उयरमन्मे, अप्पेगे उयरमच्छे, अप्पेगे पासमन्भे, अप्पेगे पासमच्छे अप्पे पिटुमट अप्पेगे पिट्ठमच्छे, अप्पेगे उरमन्मे, अप्पेगे उरमच्छे, अप्पे हिययमब्भे, अप्पेगे हिययमच्छे, अप्पे थणमभे, श्रप्पेगे थणमच्छे, अप्पे खंघम मे अप्पेगे खंघमच्छे, अप्पेगे बाहुममे अप्पेगे बाहुमच्छे, अप्पे हत्यमन्भे, अप्पेगे हत्थमच्छे, अप्पे अंगुलिम, अप्पेगे अंगुलिमच्छे, अप्पे हममे, म्रप्वेगे जहमच्छे, अप्पे गीवमन्भे, श्रप्पेगे गीवमच्छे, श्रध्येगे हणुयमन्भे, प्रप्पेगे हणुयमच्छे, अप्पे होम, श्रप्पेगे होट्ठमच्छे, श्रप्पेगे दंतमन्भे, अप्पेगे दंत मच्छे, अप्पेगे जिन्भमवभे, श्रप्पेगे जिन्भमच्छे, अप्पेगे तालुमन्भे, अप्पेगे तालुमच्छे, अप्पे गलमभे, श्रप्पेगे गलमच्छे, अप्पेगे गंडमब्भे, अप्पेगे गंडमच्छे, श्रप्पे कण्णमभे, अप्पेगे कण्णमच्छे, अप्पेगे णासमन्भे, प्रप्पेगे णासमच्छे, श्रप्पेगे श्रच्छिम मे अप्पेगे अच्छिमच्छे, अप्पेगे भमुहममे, अप्पेगे भमुहमच्छे, अप्पेगे णिडालमन्भे, अप्पेगे णिडालमच्छे, अप्पेगे सीसमभे, ग्रप्पेगे सोसमच्छे,
१३५. अप्पेगे संपमारए, अप्पे उद्दवए ।
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श्रायान्तं
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कुछ जन्म से कटि तक, तो कुछ छेदन से कटि तक, कुछ जन्म से नामि तक, तो कुछ छेदन से नाभि तक, कुछ जन्म से उदर तक, तो कुछ छेदन से उदर तक, कुछ जन्म से पसली तक, तो कुछ छेदन से पसली तक, कुछ जन्म से पीठ तक, तो कुछ छेदन से पीठ तक, कुछ जन्म से छाती तक, तो कुछ छेदन से छाती तक, कुछ जन्म से हृदय तक तो. कुछ छेदन से हृदय तक, कुछ जन्म से स्तन तक, तो कुछ छेदन से स्तन तक, कुछ जन्म से स्कन्ध तक, तो कुछ छेदन से स्कन्ध तक, कुछ जन्म से बाहु तक, तो कुछ छेदन से वाहु तक, कुछ जन्म से हाथ तक, तो कुछ छेदन से हाथ तक, कुछ जन्म से अंगुली तक, तो कुछ छेदन से अंगुली तक, कुछ जन्म से नख तक, तो कुछ छेदन से नख तक, कुछ जन्म से गर्दन तक, तो कुछ छेदन से गर्दन तक, कुछ जन्म से ठुड्डी तक, तो कुछ छेदन से ठुड्डी तक, कुछ जन्म से होठ तक, तो कुछ छेदन से होठ तक, कुछ जन्म से दांत तक, तो कुछ छेदन से दांत तक, कुछ जन्म से जीम तक, तो कुछ छेदन से जीम तक, कुछ जन्म से तालु तक, तो कुछ छेदन से तालु तक, कुछ जन्म से गले तक, तो कुछ छेदन से गले तक, कुछ जन्म से गाल तक, तो कुछ छेदन से गाल तक, कुछ जन्म से कान तक, तो कुछ छेदन से कान तक, कुछ जन्म मे नाक तक, तो कुछ छेदन से नाक तक, कुछ जन्म से आँख तक, तो कुछ छेदन से आँख तक, कुछ जन्म से भौंह तक, तो कुछ छेदन से माह तक, कुछ जन्म से ललाट तक, तो कुछ छेदन से ललाट तक, कुछ जन्म से शिर तक, तो कुछ छेदन से शिर तक,
१३५. कोई मूछित कर दे, कोई वध कर दे ।
[ जिस प्रकार मनुष्य के उक्त अवयवों का छेदन-भेदन कष्टकर है, उसी प्रकार अग्निकाय के अवयवों का।]
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१६६. से वैमि
अप्पेगे अच्चाए वहंति, अप्पेगे अजिणाए वहंति,
अप्पेगे मंसाए वहति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, अप्पेगे हिययाए वहंति, अप्पेगे पित्ताए वहंति, अप्पेगे वसाए वहंति, अप्पेगे पिच्छाए वहंति, अप्पेगे पुच्छाए वहंति, अप्पेगे वालाए वहंति, अप्पेगे सिंगाए वहंति, अप्पेगे विताणाए व्हंति, अप्पेगे दंताए वहंति, अप्पेगे दाढाए वहंति. अप्पेगे णहाए वहंति, अप्पेगे व्हारणीए वहंति, अप्पगे अट्ठोए वहंति, अप्पेगै अट्टिमिजाए वहंति, अप्पेगे अट्ठाए वहति, अप्पेगे अणट्ठाए वहति, अप्पेगे हिसिसु मेत्ति वा वहंति, अप्पेगे हितंति मेत्ति वा वहंति, अप्पेगे हिसित्संति मेत्ति वा वहंति,
१३७. एत्य सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेए प्रारंभा अपरिग्णाया भवंति ।
१३८. एत्य सत्यं असमारंभमाणस इच्चेए प्रारंभा परिणाया भवंति ।
१३६. तं परिष्णाय मेहावी व सयं तसकाय-तत्थं समारंभेज्जा, गेवणेहि तसकाय
सत्यं समारंभावेज्जा, णेवणे तसकाय-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा ।
१४०. जस्सेए तसकाय-सत्थ-समारंभा परिणाया भवंति, ने हुमुणी परिणायकम्मे ।
-त्ति बेमि ।
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१३६. वही मैं कहता हूँ
कुछ अर्चना [ देह-प्रलंकरण/मन्त्र-सिद्धि/यज्ञ-याग ] के लिए वध करते हैं, कुछ चर्म के लिए वध करते हैं। कुछ मांस के लिए वध करते हैं, कुछ रक्त के लिए वध करते हैं । कुछ हृदय/कलेजे के लिए वध करते हैं, कुछ पित्त के लिए वध करते हैं। कुछ चर्वी के लिए वध करते हैं, कुछ पंख के लिए वध करते हैं । कुछ पूंछ के लिए वध करते हैं, कुछ वाल के लिए वध करते हैं । कुछ सींग के लिए वध करते है, कुछ विषाण/हस्तिदंत के लिए वध करते हैं। कुछ दांत के लिए वध करते हैं, कुछ दाढ़ के लिए वव करते हैं । कुछ नख के लिए वध करते हैं. कुछ स्नायु के लिए वव करते हैं। कुछ अस्थि के लिए वध करते हैं, कुछ अस्थिमज्जा के लिए वध करते हैं । कुछ प्रयोजन से वव करते हैं, कुछ निप्प्रयोजन वध करते हैं । या कुछ 'मुझे मारा' इसलिए वध करते हैं, या कुछ 'मुझे मारते हैं। इसलिए वध करते हैं, या कुछ 'मुझे मारेंगे' इसलिए वध करते हैं।
१३७. शस्त्र-समारम्भ करने वाले के लिए यह त्रसकायिक वध-बंधन अज्ञात है।
१३८. शस्त्र समारम्म न करने वाले के लिए यह त्रसकायिक वध-वंधन ज्ञात है ।
१३६. उस सकायिक हिंसा को जानकर मेघावी न तो स्वयं त्रस-शस्त्र का
उपयोग करता है, न ही प्रस-शस्त्र का उपयोग करवाता है और न ही प्रस-शस्त्र के उपयोग करने वाले का समर्थन करता है।
१४०. जिसके लिए ये अस-कर्म की क्रियाएं परिज्ञात हैं, वही परिज्ञात-कर्मी [हिंसा-त्यागी ] मुनि है।
. ऐसा मैं कहता हूँ।
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सत्तमो उद्देसो
१४१. पहू एजस्स दुगु छणाए ।
१४२. यंकसी अहियं ति णच्चा ।
१४३. जे श्रज्भथं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे वहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ ।
१४४. एयं तुलसि ।
१४५. इह संतिया दविया, णावकखति वीजिरं ।
१४६. लज्जमाणा पुढो पास ।
१४७. 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा ।
१४८. जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहि वाउकम्म-समारंभेणं वाउ-सत्यं समारंभमाणे अणे गरूवे पाणे विहिंसइ ।
१४६. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया |
१५०. इमस्स चैव जीवियस्स,
परिवंदण - माणण-प्रयणाए, जाई - मरण - मोयणाए,
दुक्ख पडिघायहेउं ।
१५१. से सयमेव वाउ-सत्यं समारंभई, अण्णेहि वा वाउ-सत्यं समारंभावेई, प्र वा वाउ- सत्यं समारंभंते समणुजाणइ ।
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सप्तम उद्देशक
१४१. वह वायुकाय की हिंसा से निवृत्त होने में समर्थ है।
१४२. आतंकदर्शी पुरुष हिंसा को अहित रूप जानकर छोड़ता है ।
१४३. जो अध्यात्म को जानता है, वह वाह्य को जानता हैं।
जो वाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है ।
१४४. इस बात को तुला पर तौलें।
१४५. इस [ अर्हत-शासन ] में [ मुनि ] शान्त और करुणाशील होते हैं, अतः
वे वीजन की आकांक्षा नहीं करते ।
१४६. तू उन्हें पृथक-पृथक लज्जमान/हीनभावयुक्त देख ।
१४७. ऐसे कितने ही भिक्षुक स्वाभिमानपूर्वक कहते हैं - 'हम अनगार हैं।'
१४८. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा वायु-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर
वायुकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिसा करता है ।
१४६. निश्चय ही, इस विषय में भगवान् ने प्रज्ञापूर्वक समझाया है।
१५०. और इस जीवन के लिए
प्रशंसा, सम्मान एवं पूजा के लिए, जन्म, मरण एवं मुक्ति के लिए दु.खों से छूटने के लिए [प्राणी कर्म-वन्धन की प्रवृत्ति करता है।
१५१. वह स्वयं ही वायु-शस्त्र का प्रयोग करता है, दूसरों से वायु-शस्त्र को प्रयोग
करवाता है और वायु-शस्त्र के प्रयोग करने वालर का समर्थन करता है ।
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१५२. तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
१५३. से तं संवुज्झमाणे, पायाणीयं समुट्ठाए ।
१५४. सोच्चा भगवनो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेत्ति णायं भवइ
एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए।
१५५. इच्चत्थं गड्ढिए लोए।
१५६. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि वाउकम्म-समारंभणं, वाउ-सत्यं समारंभमाणे
अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिसइ ।
१५७. से वेमि
अप्पेगे अंधमन्मे, अप्पेगे अंधमच्छे, अप्पेगे पायमन्मे, अप्पेगे पायमच्छ, अप्पेगे गुप्फमन्भे, अप्पेगे गुप्फमच्छे, अप्पेगे जंघमन्भे, अप्पेगे जंघमच्छे, अप्पेगे जाणुमन्मै, अप्पेगे जाणुमच्छे, अप्पेगे ऊरुमन्मे, अप्पेगे ऊरुमच्छे, अप्पेगे कडिमन्भे, अप्पेगे कडिमच्छे, अप्पेगे णाभिमब्भे, अप्पेगे णाभिमच्छ, अप्पेगे उयरमन्भे, अप्पेगे उयरमच्छे, अप्पेगे पासमन्भे, अप्पेगे पासमच्छे, अप्पेगे पिट्रमन्भे, अप्पेगे पिटुमच्छे, अप्पेगे उरमन्भे, अप्पेगे उरमच्छे, अप्पेगे हिययमन्भे, अप्पेगे हिययमच्छे, अप्पेगे थणमन्भे, अप्पेगे थणमच्छे, अप्पेगे खंघमन्भे, अप्पेगे खंधमच्छे, अप्पेगे वाहुमन्मे, अप्पेगे वाहुमच्छे, अप्पेगे हत्थमन्भे, अप्पेगे हत्थमच्छे,
आयांर-सुत्त
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१५२. वह हिंसा अहित के लिए है ओर वही अवोधि के लिए है ।
१५३. वह साधु उस हिंसा को जानता हुआ ग्राह्य मार्ग पर उपस्थित होता है ।
१५४. भगवान् या अनगार से सुनकर कुछ लोगों को यह ज्ञात हो जाता हैयही [ हिंसा ] ग्रन्थि है,
यही मोह है,
यही मृत्यु है,
यही नरक है ।
१५५. यह आसक्ति ही लोक हैं ।
१५६. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा वायु-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर वायुकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है ।
१५७. वही मैं कहता हूँ
कुछ जन्म से अन्धे होते हैं, तो कुछ छेदन से अन्धे होते हैं, कुछ जन्म से पंगु होते हैं, तो कुछ छेदन से पंगु होते हैं, कुछ जन्म से घुटने तक, तो कुछ छेदन से घुटने तक, कुछ जन्म से जंघा तक, तो कुछ छेदन से जंघा तक, कुछ जन्म से जानु तक, तो कुछ छेदन से जानु तक, कुछ जन्म से उह तक, तो कुछ छेदन से उरु तक, कुछ जन्म से कटि तक, तो कुछ छेदन से कटि तक, कुछ जन्म से नाभि तक, तो कुछ छेदन से नाभि तक, कुछ जन्म से उदर तक, तो कुछ छेदन से उदर तक, कुछ जन्म से पसली तक, तो कुछ छेदन से पसली तक, कुछ जन्म से पीठ तक, तो कुछ छेदन से पीठ तक, कुछ जन्म से छाती तक तो कुछ छेदन से छाती तक, कुछ जन्म से हृदय तक, तो कुछ छेदन से हृदय तक, कुछ जन्म से स्तन तक, तो कुछ छेदन से स्तन तक कुछ जन्म से स्कन्ध तक, तो कुछ छेदन से स्कन्च तक, कुछ जन्म से वाहु तक, तो कुछ छेदन से वाहु तक, कुछ जन्म से हाथ तक, तो कुछ छेदन से हाथ तक,
शस्त्र-परिज्ञा
ون
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अप्पेगे अंगुलिमन्भे, अप्पेगे अंगुलिमच्छे, अप्पेगे णहमन्भे, अप्पेगे णहमच्छे, अप्पेगे गोवमन्भे, अप्पेगे गीवमच्छे, अप्पेगे हणुयमन्भे, अप्पेगे हणुयमच्छे, अप्पेगे हो?मन्भे, अप्पेगे हो?मच्छे, अप्पेगे दंतमन्भे, अप्पेगे दंतमच्छे, अप्पेगे जिन्भमन्भे, अप्पेगे जिब्भमच्छे, अप्पेगे तालुमन्भे, अप्पेगे तालुमच्छे, अप्पेगे गलमन्भे, अप्पेगे गलमच्छे, अप्पेगे गंडमन्भे, अप्पेगे गंडमच्छे, अप्पेगे कण्णमन्भे, अप्पेगे कण्णमच्छे, अप्पेगे णासमन्भे, अप्पेगे णासमच्छे, अप्पेगे अच्छिमन्भे, अप्पेगे अच्छिमच्छे, अप्पेगे भमुहमन्मे, अप्पेगे भमुहमच्छे, अप्पेगे णिडालमन्मे, अप्पेगे पिडालमच्छे, अप्पेगे सीसमन्मे, अप्पेगे सीसमच्छे,
१५८. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए ।
१५६. से वेमि
संति संपातिमा पाणा, पाहच्च संपयंति य । फरिसं च खलु पुट्ठा, एगे संघायमावज्जति ।। जे तत्थ संघायमावज्जति, ते तत्थ परियावज्जति । जे तत्थ परियावज्जति, ते तत्थ उद्दायंति ॥
१६०. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेए प्रारंभा अपरिण्णाया भवंति ।
१६१. एत्थ सत्यं असमारंभमाणस्स इच्चए प्रारंभा परिणाया भवति ।
१६२. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं वाउ-सत्यं समारंभेज्जा, णेवणेहि वाउ-सत्थं
समारंभावेज्जा, णेवण्णे वाउ-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा ।
आयार-सुत्तं
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कुछ जन्म से अंगुली तक, तो कुछ छेदन से अंगुली तक, कुछ जन्म से नख तक, तो कुछ छेदन से नख तक, कुछ जन्म से गर्दन तक, तो कुछ छेदन से गर्दन तक, कुछ जन्म से ठुड्डी तक, तो कुछ छेदन से ठुड्डी तक, कुछ जन्म से होठ तक, तो कुछ छेदन से होठ तक, कुछ जन्म से दांत तक, तो कुछ छेदन से दांत तक, कुछ जन्म से जीम तक, तो कुछ छेदन से जीभ तक, कुछ जन्म से तालु तक, तो कुछ छेदन से तालु तक, कुछ जन्म से गले तक, तो कुछ छेदन से गले तक, कुछ जन्म से गाल तक, तो कुछ छेदन से गाल तक, कुछ जन्म से कान तक, तो कुछ छेदन से कान तक, कुछ जन्म से नाक तक, तो कुछ छेदन से नाक तक, कुछ जन्म से आँख तक, तो कुछ छेदन से आँख तक, कुछ जन्म से भौंह तक, तो कुछ छेदन से भौंह तक. कुछ जन्म से ललाट तक, तो कुछ छेदन से ललाट तक, कुछ जन्म से शिर तक, तो कुछ छेदन से शिर तक,
१५८. कोई मूछित कर दे, कोई वध कर दे ।
[ जिस प्रकार मनुष्य के उक्त अवयवों का छेदन-भेदन कष्टकर है, उसी प्रकार अग्निकाय के अवयवों का। ]
१५६. वही मैं कहता हूँ, संपातिम प्राणी नीचे आकर गिरते हैं और वायु का
स्पर्श पाकर कुछ संकुचित होते हैं । जो यहाँ संकुचित होते हैं, वे वहाँ परितप्त होते हैं और जो वहाँ परितप्त होते है, ये वहाँ मर जाते है।
१६०. शस्त्र-समारम्भ करने वाले के लिए यह वायुकायिक चध-बन्धन अज्ञात है ।
१६१. शस्त्र-समारम्भ न करने वाले के लिए यह वायुकायिक वध-वन्धन ज्ञात है। १६२. उस वायुकायिक हिंसा को जानकर मेघावी न तो स्वयं वायु-शस्त्र का
उपयोग करता है, न ही वायु-शस्त्र का उपयोग करवाता है और न ही वायु-शस्त्र के उपयोग करने वाले का समर्थन करता है ।
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१६३. जस्सेए दाउ-सत्थं-समारंभा परिणाया भवंति, से हु मुगी परिणाय-कम्मे ।
-ति बेमि।
१६४. एत्थं पि जाणे उवादीयमाणा, जे प्रायारे ण रमंति प्रारंभमाणा विणयं
वयंति ।
१६५. छंदोवणीया अज्भोववण्णा ।
१६६. प्रारंभसत्ता पकरेंति संग ।
१६७. से वसुमं सव्व-समण्णागय-पण्णाणेणं अप्पाणणं अकरणिज पावं कम्म ।
१६८. तं णो अणेसि ।
१६९. ते परिणाय मेहावी णैव सयं छज्जीव-णिकाय-सत्यं समारंभेज्जा, णेवणेहि
छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
१७०. जस्सेए छज्जीव-णिकाय-सत्य-समारंभा परिणाया भवंति, से हु मुणी परिण्णाय-कम्मे ।
--त्ति बेमि ।
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१६३. जिसके लिए ये वायु-कर्म की क्रियाएँ परिजात हैं, वही परिज्ञात-कर्मी [ हिंसा-त्यागी ] मुनि है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
१६४. यहाँ समझे कि वे अावद्ध हैं, जो आचरण का पालन नहीं करते, हिंसा
करते हुए भी विनय/अहिंसा का उपदेश देते हैं ।
१६५. वे स्वच्छन्दी और विपय-गृद्ध हैं ।
१६६. हिंसा में प्रासक्त पुरुप संग/वन्धन वढ़ाते हैं ।
१६७. अहिंसक संवुद्ध-पुरुप के लिए प्रज्ञा से पापकर्म अकरणीय है ।
१६८. उसका अन्वेपण न करे।
१६६. उस छह जीवनिकायिक हिंसा को जानकर मेधावी न तो स्वयं छह जीव
निकाय-शस्त्र का उपयोग करता है, न ही छह जीवनिकाय-शस्त्र का उपयोग करवाता है, न ही छह जीवनिकाय-शस्त्र के उपयोग करने वाले का समर्थन करता है।
१७०. जिसके लिए ये छह जीवनिकाय-कर्म की क्रियाएँ परिज्ञात है, वही परिज्ञातकर्मी [हिंसा-त्यागी] मुनि है।
~ऐसा मैं कहता हूँ।
शस्त्र-परिज्ञो
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बीअं अज्झयणं लोग-विजो
द्वितीय अध्ययन लोक-विजय
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पूर्व स्वर
प्रस्तुत ग्रध्याय 'लोक-विजय' है । यह मानव-मन के द्वन्द्वों एवं ग्रात्म स्वीकृतियों का दर्पण है । साधक ग्रात्मपूर्णता के लिए समर्पित जीवन का एक नाम है | सम्भव है मन की हार और जीत के वीच वह भूल जाये । महावीर अनुत्तरयोगी श्रात्मदर्शी थे । साधकों के लिए उनका मार्ग-दर्शन उपादेय है । इस अध्याय में साधक की हर सम्भावित फिमलन का रेखाङ्कन है । साधना के राजमार्ग पर बढ़े पाँव शिथिल या म्खलित न हो जाय, इसके लिए हर पहर सचेत रहना साधक का धर्म है ।
प्रस्तुत अध्याय अन्तरङ्ग एवं बहिरङ्ग का स्वाध्याय है । असंयम से निवृत्ति और संयम से प्रवृत्ति – यही इस अध्याय के वर्ग-शरीर की अर्थ-चेतना है । निजानन्द-रसलीनता ही साधक का सच्चा व्यक्तित्व है । इस ग्रात्मरमरणता का ही दूसरा नाम ब्रह्मचर्य है ।
माधना के लिए चाहिए ऊर्जा । ऊर्जा मामर्थ्य की हो मुखछवि है । शरीर या इन्द्रियों को ऊर्जा जर्जरता की थोर याताशील है । इसे नव्य-भाव अर्थवत्ता के साथ नियोजित एवं प्रयुक्त कर लेने में इसकी महत् उपादेयता है । दीपक बुझने ने पहले उसकी ज्योति का उपयोग करना ही प्रज्ञा-कौशल है । मृत्यु के बाद कैसे करेंगे मृत्युंजयता !
1
माधक अहर्निश साधना के लिए ही कटिवद्ध होता है । उसके लिए समग्रता से बल-पराक्रम का प्रयोग करना साधक की पहचान है । अतः साधक को विराम और विश्राम कैसे शोभा देगा ? प्रस्थान- केन्द्र से प्रस्थित होने के बाद उसका सम्मोहन और कर्पण विसर्जित करना अनिवार्य है ।
वान्त का आकर्परेण पराजय का उत्सव है । पूर्वं मम्बन्धों का स्मरण कर उनके लिए मुंह से लार टपकाना श्रमण-धर्म की सीमा का अतिक्रमण है । यह तो त्यक्त प्रमत्तता एवं इन्द्रिय-विलासिता का पुनः ग्रङ्गीकरण है । ममत्व से मुक्त होना
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ही मुनित्व की प्रतिष्ठा है। लालसा का प्रत्याणी तो पुनः संसार का ही अाह्वान कर रहा है। स्वयं के धर्य पर सुस्थित होना अनिवार्य है। माधक को चाहिये कि वह तृण-खण्ड की भांति कामना के प्रवाह में प्रवाहित होने से स्वयं को बचाये । प्रस्तुत अध्याय साधक को उद्बुद्ध करता है शाश्वत के लिए।
__ मंमार नदी-नाव का संयोग है । अतः किसके प्रति प्रामक्ति और किसके प्रति अहं-भूमिका ! योनि-योनि में निवास करने के बाद कंसा जातिमद, सम्बन्धों का कसा सम्मोहन ? जव शरीर भी अपना नहीं है, तो किमका परिग्रह और किसके प्रति पग्निह-बुद्धि ? काम-क्रीड़ा प्रात्मरंजन है या मनोरंजन ? संयम-पथ पर पांव वर्धमान होने के बाद अनंयम का प्रालिंगन-क्या यही माधक को माध्यनिष्ठा है ?
जीवन स्वप्नवत् है। मारे सम्बन्ध गांचोगिक हैं। माता-पिता हमारे अवतरण में महायफ के अतिरिक्त और क्या हो सकते हैं ? पति और पत्नी विपरीत के याकर्पगण में मात्र एक प्रगाढ़ता है। बच्चे पंख लगने ही नीड़ छोड़कर उड़ने वाले पंछी हैं। बुढ़ापा यायु का बन्दीगृह है । यह मयं शरीर हाड़-मांस का पिंजरा है। मनुष्य तो निपट अकेला है। फिर धर्म-पथ से स्खलन कमा ? धर्म प्रात्मआश्रित है, शेप लोकाचार है, धूप-द-गा यांख-मिचौनी का खेल ।
नर्वदर्शी महावीर माधक को हर मंभावना पर पंनी दृष्टि रखे हुए हैं। कर्तव्यपथ पर चलने का संकल्प करने के वाद पांवों का मोच खाना संकल्पों का जथिल्य है । साधक को चाहिये कि वह पाठों याम अप्रमत्ता, प्रात्म-समानता, अनासक्ति, तटस्थता और निष्कामवृत्ति का पंचामृत पिये-पिलाये। इसी से प्राप्त होता है कैवल्य-लाभ, सिद्धालय का उत्तगधिकार ।
माधक अान्तरिक शत्रुओं को पगरत कर विजय का स्वर्ण पदक प्राप्त करता है । यह यात्म-विजय सत्यतः लोक-विजय है। सच्ची वीरता अन्य को नहीं अनन्य अपने आपको जीतने में है। देहगत और श्रात्मगत शवुयों पर विजयथी प्राप्त करने वाला ही जिन है, प्रात्म-शास्ता है, लोक-विजेता है।
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४.
५.
पढमो उद्देसो
३. अहो य राम्रो य परियप्पमाणे, कालाकालसमुट्टाई,
संजोगट्ठी, श्रद्वालोभी, आलु पे सहसाकारे, विणिविचित्ते एत्थ सत्थे पुणो- पुणो ।
५६
गुणे से लट्ठा, लट्ठाणे से गुणे ॥
P
इयं से गुणट्ठी महया परियावेणं पुणो पुणो रए पत्ते तं जहा - माया मे, पिया मे, भाया में, भइणी मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धूया मे, सुहा में, सहिसण- संथ संथुया में, विवित्तोवगरण- परियट्टण- भोयण- अच्छायणं मे, इच्चत्थं गड्ढए लोए वसे पत्ते ।
अप्पं च खलु श्राउयं इहमेगेसि माणवाणं तं जहा - सो परिणाहं परिहायमाणेहि, चक्खु - परिणाहं परिहायमाणेहि, घाण - परिणाहं परिहायमार्णोह, रसणा-परिणाणेहिं परिहायमाणेहि, फास-परिणाहि परिहायमाणेहि
भिक्कतं च खलु वयं संपेहाए, तो से एगया मूढभावं जणयंति ।
श्रायार-सुतं
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܀
४.
प्रथम उद्देशक
जो गुण है. वह मूल स्थान है । जो मूल स्थान है, वह गुग्गा है ।
६. इस प्रकार रात-दिन संतप्त होता हुआ कान या अकाल में विचरण करने वाला, संयोग-ग्रर्थी/परिग्रही, श्रर्थ-लोमी, ठगी, दु:साहनी, दत्तचित्त पुरुष पुन: पुन: शस्त्र / संहार करता है ।
५.
इन प्रकार वह गुग्गार्थी [विपानवत ] महत् परिनाम से पुनः पुनः प्रमाद में रत होता है । जैसे कि मेरी माता, मेरा पिता, मंग नाई, मेरी बहिन, मेरी पत्नी, मेरा पुत्र, मेरी पुत्री, मेरी पुत्रवतू मेरा मित्र, स्वजन, कुटुम्बी, परिचित, मेरे विविध उपकरण, परिवर्तन / धन-सम्पत्ति का प्रादानप्रदान, भोजन, वस्त्र इनमें ग्राम प्रमत्त होकर संसार में वास
करता है ।
निश्चय ही उस [ गंगार ] में कुछ मनुष्यों का प्रायुष्य ग्रन्थ है । जैसे कि-श्रोत्र-परिज्ञान से परिहीन होने पर, चक्षु परिज्ञान से परिहीन होने पर, प्रागु-परिज्ञान से परिहीन होने पर, रमना - परिज्ञान से परिहीन होने पर, स्व-परिज्ञान से परिहीन होने पर,
निश्चय ही इनसे अभिक्रान्त श्रायुष्य का संप्रेक्षण कर वे कभी मुभाव को प्राप्त करते हैं ।
शस्त्र-परिज्ञा
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६. जेहि वा सद्धि संवतइ ते वि णं एगया णियगा तं पुट्विं परिवयंति, सो वि
ते णियो पच्छा परिवएज्जा ।
७. णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए दा।
तुमं पि तेति गालं ताणाए वा, सरणाए वा ।
८. से ण हासाए, ण किड्डाए, ण रईए, पविभूसाए ।
६. इच्चेवं समुट्ठिए अहोविहाराए ।
१०. अंतरं च खलु इमं संपेहाए-धीरे मुहत्तमवि णो पमायए।
११. वयो अच्देइ जोवणं व ।
१२. जीविए इह जे पमत्ता, से हंता छेत्ता भेत्ता लुपित्ता विलुपिता उद्दवित्ता
उत्तासत्ता।
१३. अकडं करिस्तामित्ति मणमाणे ।
१४. जेहिं वा तौद्ध संवसइ ते वा णं एगया णियगा तं पुटिव पोति, तो वा ते
णियगे पच्छा पोसेज्जा।
१५. णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा ।
तुमंपि तेसिं गालं ताणाए वा, तरणाए वा।
१६. उवाइय-सेलेण वा संनिहि-निचो किन्जर, इहनेगति प्रसंजयागं भोयणाए ।
'१७. तनो से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जति ।
५.
प्राचार-सुतं
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________________
७.
जिनके साथ रहता है - वे स्वजन ही सबसे पहले निन्दा करते हैं। बाद में वह उन स्वजनों की निन्दा करता है ।
ε.
वे तुम्हारे लिए प्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तुम भी उनके लिए त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो ।
८.
न तो वह हास्य के लिए है, न क्रीड़ा के लिए, न रति के लिए और न ही शृङ्गार के लिए ।
तः पुरुष ग्रहो विहार / संयम - सावना के लिए समुपस्थित हो जाए ।
१०. इस अंतर को देखकर घीर-पुरुष मुहूर्तभर भी प्रमाद न करे ।
११. वय और यौवन वीत रहा है ।
१२. जो इस संसार में जीवन के प्रति प्रमत्त है, वह हनन, छेदन, भेदन, चोरी, डकैती, उपद्रव एवं प्रतित्रास करनेवाला होता है ।
१३. मैं वह करूँगा, जो किसी ने न किया हो, ऐसा मानता हुआ वह हिंसा करता है ।
१४. जिनके साथ रहता है, वे स्वजन ही एकदा पोपण करते हैं । बाद में वह उन स्वजनों का पोषण करता है ।
१५. वे तुम्हारे लिए त्रारण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तुम भी उनके लिए त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो ।
१६. इस संसार में उन असंयत-पुरुषों के भोजन के लिए उपभुक्त सामग्री में से संग्रह और संचय किया जाता है ।
१७. पश्चात् उनके शरीर में कभी रोग के उत्पाद / उपद्रव उत्पन्न हो जाते हैं । शस्त्र - परिज्ञा
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१८. जेहिं वा सद्धि संवसइ ते वा णं एगया णियगा तं पुन्वि परिहरंति, सो वा
ते णियगे पच्छा परिहरेज्जा ।
१६. णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा ।
तुमंपि तेसि णालं ताणाए वा, सरणाए वा।
२०. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, अणभिवकतं च खलु वयं संपेहाए, खणं जाणाहि
पंडिए!
२१. जाव सोय-परिणाणा अपरिहीणा,
जाव णेत्त-परिण्णाणा अपरिहीणा, जाव घाण-परिणाणा अपरिहीणा, जाव जीह-परिणाणा अपरिहीणा, जाव फास-परिण्णाणा अपरिहीणा।
२२. इच्चेएहिं विरूवरूवेहि पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं प्रायढें सम्म समणुवासिज्जासि ।
-त्ति वेमि।
बीओ उद्देसो
२३. अरई प्राउट्टे से मेहावी खणंसि मुक्के ।
२४. अणाणाए पृट्ठा वि एगे णियटति, मंदा मोहेण पाउडा ।
२५. 'अगरिग्गहा भविस्सामी' समुट्ठाए, लद्ध कामेहिगाहंति ।
२६. अणाणाए मुणिणो पडिलेहंति ।
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१८. जिनके साथ रहता है, वे स्वजन ही कभी छोड़ देते हैं। बाद में वह उन
स्वजनों को छोड़ देता है।
१६. वे तुम्हारे लिए धारण या शरण देने में समर्थ नहीं है । तुम भी उनके लिए
पारण या शरण देने में समर्थ नहीं हो।
२०. हे पंडित ! तू प्रत्येक सुल एवं दुःख को जानकर, अवस्था को अनतिकान्त
देखकर क्षरण को पहचान ।
२१. जब तक श्रोत्र-परिज्ञान पूर्ण है,
जव तक नेत्र-परिज्ञान पूर्ण है, जब तक घ्राण-परिज्ञान पूर्ण है, जव तक जीम-परिज्ञान पूर्ण है,
जव तक स्पर्ण-परिज्ञान पूर्ण है, २२. [तब तक] विविध प्रज्ञापूर्ण इस आत्मा के लिए सम्यक् अनुशीलन करे ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
द्वितीय उद्देशक
२३. जो अरति का निवर्तन करता है, वह मेधावी क्षणभर में मुक्त हो जाता है ।
२४. कोई मंदमति-पुरुप मोह से आवृत होकर, आज्ञा के विपरीत चलकर,
परीपह-स्पृष्ट होता हुआ निवर्तन करता है
२५. 'हम भविप्य में अपरिग्रही होंगे' कुछ यह विचार करके प्राप्त कामों को
ग्रहण करते हैं। २६. अनाज्ञा से मुनि [मोह का] प्रतिलेख/शोधन करते हैं । शस्त्र-परिज्ञा
६१
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२७. इत्थ मोहे पुणो-पुणो सण्णा णो हवाए णो पाराए ।
२८. विमुक्का हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो ।
२६. लोमं अलोमेण दुगंछमाणे, लद्धे कामे नाभिगाहइ ।
३०. विणइत्तु लोमं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणइ-पासइ ।
३१. पडिलेहाए णावकंखइ एस अणगारेत्ति पवुच्चइ ।
३२. अहो य राम्रो य परितप्पमाणे, कालाकालसमुट्ठाई,
संजोगट्ठी अट्ठालोभी, पालुपे सहसाकारे, विणिविटुचित्ते, इत्थ सत्थे पुणो-पुणो।
३३. से आय-बले, से णाइ-वले, से मित्त-वले, से पेच्च-वले, से देव-वले, से राय
वले, से चोर-वले, से अइहि-बले, से किवण-बले, से समण-वले, इच्चेएहिं विरूवरूवेहि कज्जेहिं दंड-समायाणं ।
३४. संपेहाए भया कज्जइ पाव-मोवखोत्ति मण्णमाणे. अदुमा प्रासंसाए ।
३५. तं परिणाय मेहावी व सयं एएहि कज्जेहिं दंड समारंभेज्जा, वण्णं
एएहि कज्जेहि दंडं समारंभावेज्जा, वणं एएहि कहि दंड समारंभ समणुजाणेज्जा।
३६. एस मग्गे पारिएहि पवेइए ।
३७. जहेत्य कुसले गोलिपिज्जासि ।
-त्ति वेमि
૬૨.
प्रायार-सुत्तं
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२७. इस प्रकार वारम्वार मोह में प्रसन्न पुरुष न इस पार है, न उस पार ।
'ही मनुष्य विमुक्त हैं, जो मनुष्य पारगामी हैं ।
२६. वे लोभ को प्रलोभ से परित्यक्त करते हुए प्राप्त कामों का ग्रवगाहन नहीं करते ।
३०. जो लोभ को छोड़कर प्रव्रजित होता है, वह कर्म को जानता है, देखता है ।
३१. जो प्रतिलेख की आकांक्षा नहीं करता, वह अनगार कहलाता है ।
३२. रात-दिन संतप्त, कालाकाल-विहारी, संयोग - अर्थी ( परिग्रही ), ग्रर्थलोमी, ठगी, दुःसाहसी, दत्तचित्त पुरुष पुनः पुनः शस्त्र / संहार करता है ।
२८.
३३. वह आत्मबल, वह ज्ञानिवल, वह मित्र-वल, वह प्रत्य-वल, वह देव-वल, वह राज-वल, वह चोर-वल, वह प्रतिथि-वल, वह कृपरण-बल, वह श्रमणवल के लिए इन विविध प्रकार के कार्यों से दंड-समादान / हिंसा करता है ।
३४. पुरुष संप्रेक्षा [ भविष्य की लालसा ] से, भय से हिंसा करता है । स्वयं को पाप मुक्त मानता हुआ आशा से हिंसा करता है ।
३५. उसे जानकर मेधावी पुरुष न तो स्वयं इन कार्यो / उद्देश्यों से हिंसा करे, न ही अन्य कार्यो से हिंसा करवाए और न ही अन्य द्वारा किये जाने वाले इन कार्यो से हिंसा करनेवाले का समर्थन करे ।
३६. यह मार्ग प्रार्थी द्वारा प्रवेदित है ।
३७. इसलिए कुशल - पुरुप लिप्त न हो ।
शस्त्र - परिज्ञा
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
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तीओ उद्देसो
३८. से असई उच्चागोए, असई णीयागोए ।
३६. णो होणे, णो अइरित्ते, णो पोहए ।
४०. इय संखाय के गोयावाई ? के माणावाई ? कसि वा एगे गिज्झे?
४१. तम्हा पंडिए णो हरिसे, णो कुप्पे ।
४२. भूहि जाण पडिलेह सायं ।
४३. समिए एयाणुपस्सी तं जहा-अंधत्तं वहिरत्तं भूयत्तं काणत्तं कुटतं खुज्जत्तं
वडभत्तं सामत्तं सवलत्तं ।
४४. सहपमाएणं अणेगरुवानो जोणीम्रो संधायइ विरूवरूवे फासे पडिसंवेयइ ।
४५. से अवुझमाणे होवहए जाइ-मरणं अणुपरियट्टमागे ।
४६. जीवियं पुढो पियं इहमेगेसि माणवाणं, खेत्त-वत्थु ममायमाणाणं ।
४७. पारतं विरत्तं मणिकुंडलं सह हिरण्णेण, इत्थियानो परिगिज्झ तत्थेव रत्ता।
४८. ण इत्थ तवो वा, दमो वा, णियमो वा दिस्सइ ।
४६. संपुण्णं वाले जीविउकामे लालप्पमाणे मुढे विष्परियासमुवेइ ।
श्राचार-सुत
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तृतीय उदेशक
३८. वह अनेक वार उच्च गोत्र और अनेक वार नोच गोत्र में उत्पन्न हुआ है।
३६. न होन है, न अतिरिक्त/उच्च । इनमें से किसी की भी स्पृहा न करे ।
४०. ऐसा समझ लेने पर कौन गोत्रवादी, कौन मानवादी और कौन किसमें गुद्ध ?
४१. इसलिए पंडित न हर्प करे, न क्रोध करे ।
४२. प्राणियों को जरनो और उनकी शाता को पहचानो।
४३. इनको समतापूर्वक देखो, जैसे कि अंधापन, बहरापन, गूंगागन, कानापन,
लूलापन, कुचड़ापन, बौनापन, कोढ़ीपन, चितकबरापन ।
४४, पुरुप प्रमादपूर्वक विभिन्न प्रकार की योनियों का संवान/धारण करता है
और नाना प्रकार की यातनाओं का प्रतिसंवेदन करता हैं ।
४५. वह अनजान होता हुआ हत और उपहत होकर जन्म-मरण में अनुपरिवर्तन/
परिभ्रमण करता है।
४६. क्षेत्र और वस्तु में ममत्व रखने वाले कुछ मनुष्यों को जीवन अलग-अलग
रूप में प्रिय है।
४७. वे रंग-बिरंगे मणि. कुण्डल और स्वर्ण के साथ स्त्रियों में परिगृद्ध होकर
उन्हीं में अनुरक्त होते हैं ।
४८. इनमें तप, दमन अथवा नियम दिखाई नहीं देते।
४६. पूर्ण अज्ञानी-पुरुप जीवन की कामना एवं भोगलिप्सा में मूढ़ है। इसलिए
वह विपर्यास को प्राप्त होता है।
शस्त्र-परिजा
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५० इणमेव णावकखंति, जणा ध्रुवचारिणी |
५१. जाई - मरणं परिण्णाय, चरे संकमणे दढे ।
५२. णत्थि कालस्त णागमो ।
५३. सव्वे पाणा पियाख्या सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियचहा पियजीविणो जीविकामा |
५४. सव्वेसि जोवियं प्रियं ।
५५ तं परिगिज्भ दुपयं चउप्पयं श्रभिजु जियाणं संसिचियाणं तिविहेणं जा वि से तत्थ मत्ता भवइ - अप्पा वा बहुगा वा ।
५६. से तत्थ गढिए चिट्ठा, भोयणाए ।
५७. तो से एगया दिविहं परिसिट्ठ संभूयं महोबगरणं भवइ ।
५८. तं पि से एगया दायाया विभयंति, श्रदत्तहारो वा से श्रवहरङ्ग, रायाणो वा विलुपंति, सइ वा से, विणस्सइ वा से, अगारदाहेण वा से डज्इ ।
५६. इय से परस्स अट्ठाए कूराई कम्नाई वाले पकुत्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विपरियाससुवे |
६०. मुणिणा हु एयं पवेइयं ।
६१. प्रणोहंतरा एए, नो य श्रहं तरितए ।
अईरंगमा एए, नोय तीरं गमित्तए । पारंगमा एए, नो य पारं गमित्तए ।
६६
श्रीयार-सुत्त
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५०. जो मनुप्य ध्र वचारी हैं, वे इस प्रकार के जीवन की आकांक्षा नहीं करते ।
५१. जन्म-मरण को जानकर दृढ़ संक्रमण/चारित्र में विचरण करे ।
५२. मृत्यु का समय निश्चित नहीं है ।
५३. सभी प्राणियों को प्रायुष्य प्रिय है, सुख शाता/अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल
है, वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है और जीवन की कामना है ।
५४. सभी के लिए जीवित रहना प्रिय है ।
उनमें परिगृद्ध होकर मनुष्य द्विपद (दास-दासी) और चतुप्पद (पशु) को नियुक्त करके विविध - मन, वचन, काया से संचय करता है। वह उनमें अल्प या अधिक उन्मत्त होता है।
५६. वह वहाँ उपभोग के लिए गृद्ध होकर बैठता है।
५७. तव वह किसी समय विविध, परिथेष्ठ, प्रचुर एवं महा-उपकरण चाला हो
जाता है।
५८. उसकी उस सम्पत्ति को किसी समय सम्बन्धीजन वाट लेते हैं, चोर चुरा
ले जाते हैं, राजा छीन लेता है, नष्ट हो जाता है, विनष्ट हो जाता है, अग्नि से जल जाता है।
५६. इस प्रकार वह दूसरे के अर्थ के लिए क्रूर कर्म करने वाला अज्ञानी है।
उस दुःख से मूढ़ व्यक्ति विपर्यास को प्राप्त करता है।
६०. निश्चय ही, मुनि/भगवान् महावरेर के द्वारा यह प्रवेदित है ।
६१. ये न तो प्रवाह को पार करने वाले हैं। ये न ही तट को प्राप्त करने वाले
हैं और न ही तट तक पहुँचने वाले है । ये अपारगामी है, इसलिए ये पार नहीं हो सकते।
शस्त्र-परिजर
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६२. आयाणिज्जच पायाय, तम्मि ठाणे ण चिट्ट ।
वियहं पप्पलेयण्णे, तम्मि ठाणम्मि चिदृ॥
६३. उदेसो पासगस्स पत्यि ।
६४. दाते पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव प्रावटें अणपरिया।
~ति वेमि
चउत्थो उर्दसो
६५. तो से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जति ।
६६. जेहिं वा सद्धि संवसई ते वा णं एगया णियया पुचि परिवयंति, सो वा ते
णियगे पच्छा परिवएज्जा ।
६७. णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा ।
तुमंपि तेसि णालं ताणाए वा, सरणाए दा।
६८. जाणित्त दुखं पत्तैयं सायं भोगामेव अणुसोयंति ।
६६. इहमेगेसि माणवाणं ।
७०. तिविहेण जावि से तत्य मत्ता भवइ-अप्पा वा व्हुगा वा ।
७१. से तत्य गड्डिए चिइ भोयगाए ।
प्राचारमुक्त
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६२. संयमी-पुरुप आदानीय (ग्राह्य) को ग्रहण करके उस स्थान में स्थित नहीं
होता। अखेदन/असंयमी-पुरुप वितथ्य/असत्य को प्राप्त करके उस स्थान में स्थित होता है।
६३: तत्त्वद्रष्टा के लिए कोई उपदेश नहीं है।
६४. परन्तु अज्ञानी पुरुप स्नेह और काम में आसन्न होने से दुःख का शमन नही करता । दु:खी व्यक्ति दुःखों के चक्र में ही अनुपरिवर्तन करता है ।
-ऐमा मैं कहता हूँ।
चतुर्थ उद्देशक
६५. तव उसके लिए रोग के उत्पात उत्पन्न हो जाते हैं।
६६. जिनके साथ रहता है, वे स्वजन ही सबसे पहले निन्दा करते है। बाद में
वह उन स्वजनों की निन्दा करता है।
'
६७. वे तुम्हारे लिए त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तुम भी उनके लिए
त्रारण यो शरण देने में समर्थ नहीं हो।
६८. वह प्रत्येक दुःख को शातीकारी जोनकर भोगों का ही अनुचिन्तन करता है।
६६. इस संसार में कुछ मनुप्यों के लिए भोग होते हैं ।
७०. वह मन-वचन-काया के तीन योगों से उनमें अल्प या अधिक उन्मत्त
होता है।
७१. वह वहाँ उपभोग के लिए गुद्ध होकर वैठता है ।
शस्त्र-परिक्षा
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७२. तत्रो से एगया विपरितिद्वं संभूयं महोवगरणं भवः ।
७३. तं पि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरइ, रायाणी वा
से विलुपंति, पस्सइ वा से, विपस्सइ वा से, अगारडाहेण वा उन्नाइ। .
७४. इय से परस्त अट्टाए कूराई कम्माई बाते पकुबमाणे तेण दुक्खेण मूढे
विपरियासमुवे।
७५. प्रासं च छंदं च विगिच धोरे ।
४६. तुमं चेव तं सल्लमाहट्ट ।
७७. जेण सिया तेग णो सिया ।
७८. इणमेव णावबुझति, जे जणा मोहपाउडा ।
se. थोभि लोए पवहिए।
२०. ते भो वयंति-एयाई प्राययणाई।
२१. से दुक्खाए मोहाए माराए परगाए गरग-तिरिक्साए ।
२. सययं मूढे घम्म णाभिजाणइ ।
६३. उपाहु वीरे-अप्पमानौं महामोहे ।
६४, अल कुसलत्त पमाएणं ।
८५. संति-मरणं संपेहाए ।
प्राचार-गुन
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७२. तब वह किसी समय विविध, परिथेप्ठ प्रचुर एवं महा-उपकरण वाला हो
जाता है।
७३. उसकी उस सम्पत्ति को किसी समय सम्बन्धीजन वाँट लेते हैं, चोर चुरा
ले जाते हैं, राजा छीन लेता है, नप्ट हो जाता है, विनष्ट हो जाता है, अग्नि से जल जाता है।
७४. इस प्रकार वह दूसरे के अर्थ के लिए क्रूर कर्म करने वाला अज्ञानी है । उस
दुःख से मूढ़ व्यक्ति विपर्यास करता है।
७५. हे धीर ! आशा और स्वच्छन्दता को छोड़ ।
७६. तू ही उस शल्य का निर्माता है ।
७७. जिससे [ भोग ] है, उसीसे नहीं है ।
७८. जो जन मोह से आवृत हैं, वे इसे समझ नहीं पाते।
७९. स्त्रियों से लोक व्यथित है।
८०. वे कहते हैं, हे पुरुप ! ये [भोग] आयतन हैं ।
८१. वे दुःख, मोह, मृत्यु, नरक और नरकानन्तर तिर्यच के लिए हैं ।
६२. सतत मूढ़-पुरुप धर्म को नहीं जानता है ।
८३. महावीर ने कहा- महामोह में प्रमाद मत करो।
८४. कुशल-पुरुप के लिए प्रमाद से क्या प्रयोजन ?
८५. शान्ति और मरण को संप्रेक्षा करो।
शस्त्र-परिज्ञा
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८६. भैज्रधम्म तपैहाए ।
८७. णालं पास।
१८. अलं ते एएहि ।
८६. एयं पस्स मुणी ! महन्भयं ।
१०. णाइवाएज्ज कंचणं।
६१. एस वीरे पसंसिए, जे ण णिविज्जड आयाणाए ।
६२. ण मे देइ ण कुप्पिज्जा, थोवं लधुन खिसए ।
६३. पडिसेहिनो परिणमिज्जा ।
६४. एयं मोणं समणुवासेज्जासि ।
-त्ति वैमि।
पंचमो उदेसो
६५. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि लोगस्त कम्म-समारंभा कज्जति तं जहा
अप्पणो से पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं णाईणं धाईणं राईणं दासाणं दासी कम्मकराणं कम्मकरीणं आससाए, पुढो पहेणाए, सामासाए, पायराताए।
६६. संनिहि-संनिचो कज्जइ इहमेगेसि माणवाणं भोयणाए ।
६७. समुढ़िए अर्णगारे आरिए पारियपणे पारियदंती अयं संधिड अदक्खु से गाइए, पाइयावए, ण समुणुजाणइ ।
प्राचार-युत्तं
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८६. भंगुर - धर्म / शरीर-धर्म की संप्रेक्षा करो ।
८७. देख ! ये पर्याप्त नहीं हैं ।
८८. इनसे तुम दूर रहो ।
८९. हे मुने ! इन्हें महाभय रूप देखो |
६०. किसी का भी प्रतिपात ( वध ) मत करो ।
१. वह वीर प्रशंसनीय हैं, जो आदान [ संयम-जीवन ] से जुगुप्सा नहीं करता । ६२. मुझे नहीं देता, यह सोचकर क्रोध न करे । थोड़ा प्राप्त होने पर न खीजे ।
९३. प्रतिपेध हो, तो लौट जाए ।
६४. इस प्रकार मौन की उपासना करे ।
पंचम उद्देशक
५. जिनके द्वारा विविध प्रकार के शस्त्रों से लोक में कर्म समारम्भ किये जाते हैं, जैसे कि वह अपने पुत्र, पुत्री, वधू, ज्ञातिजन, धाय, राजकर्मचारी, दास, दासी, नौकर, नौकरानी का आदेश देता है नाना उपहार, सायंकालीन भोजन तथा प्रातः कालीन भोजन के लिए ।
६. वे इस संसार में कुछ लोगों के भोजन के लिए सन्निवि और सन्निचय करते हैं ।
७. वह संयम स्थित, अनगार, आर्यप्रज्ञ, आवेदर्शी, अवसर-द्रष्टा, परमार्थ - नाता अग्राह्य का न ग्रहरण करे, न करवाए और न समर्थन करे ।
शास्त्र - परिज्ञा
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१८. सध्वामगंधं परिण्णाय, णिरामगंधो परिवए ।
६६. अस्सिमाणे कय-विक्कएस । से ण किणे, ण किणावए, किणंतं
समणुजाण ।
१००. से भिक्खू कालणे दलण्णे मायपणे खेयपणे खणयाणे विणयपणे ससमयपर
समयण्णे भावणे, परिग्गहं अममायमाणे, कालाणवाई, अपडिपणे ।
१०१. दुहरो छेत्ता णियाइ ।
१०२. वत्थं पडिग्गह, कंवलं पायपुंछणं, उग्गहं च क्डासणं एएसु चेव जाएज्जा।
१०३. लढे आहारे अणगारो मायं जाणेज्जा से जहेयं भगवया पवेइयं ।
१०४. लाभो त्ति न मज्जेज्जा ।
१०५. अलाभो ति ण सोयए।
१०६. बहुं पिलधुण णिहे ।
१०७. परिगहाओ अप्पाणं अवसक्किज्जा ।
१०८. अण्णहा णं पासए परिहरिज्जा।
१०६. एस मग्गे आरिएहि पवेइए।
११०. जहत्य कुसले गोलिपिज्जासि ।
-त्ति मि
७४
पायार-सुतं
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६८. वह समस्त शुद्ध श्राहारों को जानकर निरामगंधी/ शाकाहारी / शुद्धाहारी रूप में विचरण करे ।
६. क्रय-विक्रय में अदृश्यमान / अकिंचन होता हुआ वह [ अनगार ] न तो क्रय करे, न क्रय करवाए और न क्रय करने वाले का समर्थन करे ।
१००. वह भिक्षु कालज्ञ, बलज, मात्रज्ञ, क्षेत्रज, क्षरणज्ञ, विनयज्ञ, स्वसमय - परसमयज्ञ, भावज्ञ, परिग्रह के प्रति अमूच्छित काल का अनुष्ठाता और प्रतिज्ञ बने ।
१०१. वह [ राग और द्वेष ] दोनों को छेदकर मोक्षमार्गी बने ।
१०२. वह वस्त्र, प्रतिग्रह / पात्र, कंवल, पाद-पुछन, अवग्रह स्थान और कटासन / आसन - इनकी ही याचना करे ।
१०३. अनगार प्राप्त ग्राहार की मात्रा / परिमारण को समझे । जैसा उसे भगवान ने कहा है ।
१०४. लाभ होने पर मद न करे ।
१०५. अलाभ होने पर शोक न करे ।
१०६. बहुत प्राप्त होने पर संग्रह न करे ।
१०७. परिग्रह से स्वयं को दूर रखे ।
१०. तत्त्वद्रष्टा अन्यथा - भाव को छोड़ दे |
१०६. यह मार्ग प्रार्यपुरुषों द्वारा प्रवेदित है ।
११०. यथार्थ कुशल- पुरुष [ परिग्रह ] में लिप्त न हो ।
शस्त्र - परिज्ञा
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
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१११. कामा दुरतिक्कमा ।
११२. जीवियं दुप्पडिबूहगं ।
११३. कामकामी खलु अयं पुरिसे ।
११४. से सोयइ जूरइ तिप्पइ परितप्पइ ।
११५. आययचक्ख लोग-विपस्सी लोगस्स अहो भाग जाणइ, उढं भागं जाणइ,
तिरियं भागं जाणइ।
११६. गड्ढिए अणुपरियट्टमाणे, संधि विदित्ता इह मच्चिएहि ।
११७. एस वीरे पसंसिए, जे बद्ध पडिमोयए ।
११८. जहा अंतो तहा वाहिं, जहा वाहिं तहा अंतो ।
११६. अंतो अंतो पूइ-देहंतराणि पासइ पुढोवि सवंताई, पंडिए पडिलेहाए ।
१२०. से मइमं परिण्णाय, मा य हु लालं पच्चासो ।
१२१. मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावायए ।
१२२. कासंकासे खलु अयं पुरिसे, वहुमाई ।
१२३. कडेण मूढे पुणो तं करेइ ।
१२४. लोहं वेरं वढेइ अप्पणो ।
१२५. जमिणं परिकहिज्जइ, इमस्स चैव पडिवूहणयाए ।
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आयार-सुत
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१११. काम दुरतिक्रम है।
११२. जीवन दुष्प्रतिबृह/वृद्धिरहित है।
११३. यह पुरुष निश्चयतः काम-कामी है।
११४. यह शोक करता है, जीर्ण/ज्वरित होता है, तप्त होता है, परितप्त होता है।
११५. आयतचक्ष/दीर्घदर्णी और लोकविपश्यी लोक के अधोभाग को जानता है,
ऊर्ध्वभाग को जानता है, तिर्यक्भाग को जानता है ।
११६. अनुपरिवर्तन करने वाला गृद्ध-पुरुष इस मृत्युजन्य सन्धि को जानकर
[निष्काम बने । ]
११७. जो वन्धन से प्रतिमुक्त है, वही वीर प्रशंसित है ।
११८. [ देह ] जैसी भीतर है, वैसी बाहर है; जैसी वाहर है, वैसी भीतर है ।
११६. मनुष्य देह के भीतर-से-भीतर अशुचिता देखता है, उसे पृथक्-पृथक् छोड़ता
है। पंडित इसका प्रतिलेख/चिन्तन करे ।
१२०. वह मतिमान् पुरुप यह जानकर लालसा का प्रत्याशी न बने ।
१२१. वह तत्त्व-ज्ञान से स्वयं को विमुख न करे ।
१२२. निश्चय ही यह पुरुष [ विचार करता है कि ] 'मैंने किया या करूंगा।'
वह बहुमायावी है।
१२३. वह मूर्ख उस कृतकार्य को वारम्वार करता है।
१२४. वह अपने लोभ और वैर को बढ़ाता है । १२५. इसीलिए कहा जाता है कि ये [लोभ और वैर] संसार-वृद्धि के लिए हैं ।
शस्त्र-परिज्ञा
७७
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१२६. अमरा य महासड्ढी, अट्टमेयं पेहाए अपरिग्णाए कंदइ ।
१२७. से तं जाणह जमहं बेमि ।
१२८. तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता।
१२६. अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे, जस्स वि य णं करे।
१३०. अलं बालस्स संगणं ।
१३१. जे वा से कारेइ बाले।
१३२. ण एवं अणगारस्स जाय।
-त्ति बेमि।
छट्ठो उद्देसो
१३३. से तं संवुज्झमाणे, प्रायाणीयं समुहाए ।
१३४. तम्हा पावं कम्मं, णेव कुज्जा ण कारवेज्जा ।
१३५. सिया से एगयरं विप्परामुसइ ।
१३६. छसु अण्णयरं सि कप्पई।
१३७. सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण टुवखेण मूढे विप्परियासमुवैई ।
प्रायार-सुतं
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१२६. अमरा य महासड्ढी, अट्टमेयं पेहाए अपरिण्णाए कंदइ ।
१२७. से तं जाणह जमहं बेमि ।
१२८. तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हंता छेत्ता भेत्ता लु पत्ता विलु पत्ता उद्दवइत्ता ।
१२६. अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे, जस्स वि य णं करेइ ।
१३०. अलं बालस्स संगेणं ।
१३१. जे वा से कारेइ बाले ।
१३२. ण एवं अणगारस्स जायइ ।
छट्टो उद्देसो
१३३. सेतं संबुज्झमाणे, श्रायणीयं समुट्ठाए ।
१३४. तम्हा पावं कम्मं, णेव कुज्जा ण कारवेज्जा |
१३५. सिया से एगयरं विप्परामुसह ।
१३६. हसु अण्णयसि कप्पई ।
१३७. सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुवखेण मूढे विप्प रियासमुवैइ ।
७८
-त्ति बेमि ।
प्रायार-सु
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१३८. तएण विप्पमाएण, पुढो वयं पकुव्वइ ।
१३६. जंसिमे पाणा पवहिया, पडिलेहाए णो णिकरणाए ।
१४०. एस परिण्णा पवृच्चइ, कम्मोवती ।
१४१. जे ममाइय-मई जहाइ, से जहाइ ममाइयं ।
१४२. से हु दिट्ठपहे सुणी, जस्स णत्थि ममाइयं ।
१४३. तं परिणाय मेहावी ।
१४४. विइत्ता लोगं, वंता लोगसण्णं, से मइमं परक्कमेज्जासि त्ति बेमि ।
१४५. णारई सहई वीरे, वीरेण सहई रई ।
जम्हा श्रविमणे वीरे, तम्हा वीरे ण रज्जइ ।
१४६. सह य फासे अहियासमाणे, निव्विद दि इह जीवियत्स, मुणी मोणं समादाय, धुणे कम्म-सरोरगं ।
१४७. पंतं लू हं सेवंति वीरा समत्तदंसिणो ।
१४८. एस ओहंतरे मुणी, तिष्णे मुत्ते विरए, वियाहिए ति बेमि ।
१४६. दुबसु मुणी अणाणाए ।
१५०. तुच्छए गिलाइ वत्तए ।
१५१. एस वीरे पसंसिए अच्चेइ लोयसंजोयं ।
5.
प्रायारत
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१३८. वह स्वयं के अति प्रमाद से पृथक-पृथक अवस्थाओं को प्राप्त करता है।
१३९. जिनसे ये प्राणी व्यथित हैं, उन्हें प्रतिलेख करके भी वे निराकरण नहीं
कर पाते हैं।
१४०. यह परिज्ञा कही गयी है । इससे कर्म उपशान्त होते हैं ।
१४१. जो ममत्व-मति को त्याग करता है, वह ममत्व को त्याग करता है।
१४२. वही दृष्टिपथ मुनि है, जिसके ममत्व नहीं है ।
१४३. वही परिज्ञात मेधावी (मुनि) है ।
१४४. लोक को जानकर एवं लोक-संज्ञा को छोड़कर वह बुद्धिमान [ मुनि ! पराक्रम करे।
-ऐसा मैं कहता हूँ। १४५. वीर-पुरुप अरति को सहन करता है ।
वीर-पुरुप रति को सहन नहीं करता है। वीर-पुरुप अविमन/निर्विकल्प है, इसलिए वीर-पुरुप रंज नहीं करता है ।
१४६. शब्द और स्पर्श को सहन करते हुए मुनि इस जीवन को तुष्टि और
जुगुप्सा को मौनपूर्वक देख-परखकर कर्म-शरीर अलग करे ।
१४७. समत्वदर्शी वीर-पुरुप नीरस और रूक्ष भोजन का सेवन करते हैं ।
१४८. मुनि इस घोर संसार-सागर से तीर्ण, मुक्त एवं विरत कहा गया है।
-ऐसा मैं कहता हूँ। १४६. प्राज्ञारहित मुनि दुर्वसु/अयोग्य है। १५०. वह तुच्छ है, कहने में ग्लानि का अनुभव करता है।
१५१. वह वीर प्रशंसनीय है, जो लोक-संयोग को छोड़ देता है ।
लोक-विजय
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१५२. एस गाए पवुच्चइ ।
१५३. दुक्ख पवेश्यं इह माणवाणं, तस्स दुवसत्त कुसला परिगमुनाहरति ।
१५४. इइ कम्मं परिणाय सव्वसो ।
१५५. ने अणण्णदंसी, ते अणण्णाराने,
जे अणण्णारामे, ते अणण्णदंसी।
१५६. जहा पुण्णस्त कत्यइ, तहा तुच्यस्त कत्यइ ।
जहा तुन्छस्त कत्या, तहा पुण्णस्त कत्था ॥
१५७. अदि य हणे अणाइयमाणे एत्यपि जाण, सेति त्यि ।
१५८. के यं पुरिते? के च गए ?
१५६. एस बोरे पसंसिए, जे यद्धे पडिमोथए, उड्डं अहं तिरियं दिसासु ?
१६०. से स्वो सवपरिण्णाचारी।
१६१. ण लिप्पई छणपएण बोरे ।
१६२. से मेहावी अणुग्धायण-खेयपणे, जे प बंधप्पनोसपणेती ।
१६३. जुसले पुण णों वह, गो मुक्के ।
१६४. से जं च प्रारभे, जं च णारभे ।
६६५. अणारच पारने ।
आचार सुर्त
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१५२. यह न्याय [लोकनीति कहलाता है ।
१५३. इस संसार में जो दुःख मनुप्यों के लिए कहे गये हैं, उन दुःखों का कुशल
[साधक] परिज्ञा (प्रज्ञा) पूर्वक परिहार करते हैं ।
१५४. इस प्रकार कर्म सर्व प्रकार से परिजात है।
१५५. जो अनन्यदर्शी (प्रात्मदर्णी) है, वह अनन्य (आत्मा) में रमण करता है,
जो अनन्य (आत्मा) में रमण करता है, वह अनन्यदर्णी (आत्मदर्शी) है।
१५६. जैसा पुण्यात्मा के लिए कथन किया गया है, वैसा ही तुच्छ के लिए कथन
किया गया है । जैसा तुच्छ के लिए कथन किया गया है, वैसा ही पुण्यात्मा के लिए कथन किया गया है।
१५७. अनादर होने पर घात करना, इसे श्रेयस्कर न समझे।
१५८. यह पुरुप कौन है ? किस नय (दृष्टिकोण) का है।
१५६. वह वीर प्रशंसित है, जो ऊर्ध्व, अवो, तिर्यक् दिशा में आवद्ध को मुक्त
करता है।
१६०. वह सभी ओर से पूर्ण प्रजाचारी है।
१६१. वीर-पुरुप क्षण भर भी लिप्त नहीं होता है ।
१६२. जो वन्ध-मोक्ष का अन्वेषक कर्म का अनुपात करता है, वह मेवावी क्षेत्रज्ञ है।
१६३. कुशल-पुरुप (पूर्ण ज्ञानी) न तो वद्ध है, न मुक्त ।
१६४. वह आचरण करता है और आचरण नहीं भी करता ।
१६५. अनारब्ध/अनाचीर्ण का आचरण नहीं करता है। लोक-विजय
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१६६. छणं छणं परिणाय, लोगसणं च सध्वसी।
१६७. उद्देसो पासगस्स पत्थि ।
१६८. बाले पुणे णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुरखी दुक्खाणमेव प्रावट अणुपरियट्टइ।
-त्ति बेमि
पायार-सुत
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१६६. लोक-संजा सभी ओर से क्षण-क्षण परिजात है।
१६७. तत्त्वद्रप्टा के लिए कोई निर्देश नहीं है ।
१६८. परन्तु स्नेह और काम में आसक्त वाल/अजानी-पुरुप दुःख-शमन न करने से दुःखी हैं । वे दुःखों के प्रावर्त/चक्र में ही अनुपरिवर्तन करते हैं।
-~-ऐसा मैं कहता हूँ।
लोक-विजय
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तइयं अज्झयणं सीओसरिराज्ज
तृतीय अध्ययन शीतोष्यीय
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पूर्व स्वर
प्रस्तुत अध्याय का नाम 'शीतोप्णीय है। 'शीत' अनुकूलता का परिचय-पव है, तो उज्य प्रनिकूलना का । अनुकूल और प्रतिकूल में साम्य-भाव रखना समत्वयोग है । शुक्ल और कृण दोनों पक्षों में सूर्य की भांति समरोशनी प्रसारित करने वाला ही महावीर के महापथ का पथिक है।
मनोदीप की निष्कम्पता ही समत्वदर्शन है। 'मैं वर्तमान हूँ। अनीत और भविप्य में मेरा कम्पन सार्यक नहीं है । वर्तमान का अनुपश्यी ही मन की संभरणशील वृत्तियों का अनुप्रेक्षरण कर सकता है। प्राप्त क्षण को प्रेक्षा करने वाला ही दीक्षित है।
साधक मंसार में प्रिय और अप्रिय को विभाजन-रेखाएँ नहीं खींचता। दो आयामों के मध्य, वायें और दायें तट के वीच प्रवहणशील होना सरित्-जल का सन्तुलन है। दो में से एक का चयन करना सन्तुलितता का अतिक्रमण है। चयनवृत्ति मन की माँ है । समत्व चयन-रहित समर्शिता है। चुनावरहित सजगता में मन का निर्माण नहीं होता। चयन-दृष्टि ही मन की निर्मात्री है। साधना का प्रथम चरण मन के चांचल्य को समझना है। मनोवृत्तियों को पहचानना और मन की गाँठों को खोजना प्रात्म-दर्शन को पूर्व भूमिका है । मन तो रोग है। गेग को समझना और उसका निदान पाना स्वास्थ्य-लाभ का सफल चरण है।
सर्वदर्शी महावीर अध्यात्म विद्या के प्रमुख अधिष्ठाता हैं। उन्होंने मन को प्रत्येक वृत्ति का अतल अध्ययन किया है। प्रस्तुत अध्याय साधकों की स्नातक कक्षा में दिया गया उनका अभिभापण है। उनके अनुसार मनोवृत्तियों का पठन-अध्ययन अप्रमत्त चेता-पुरुप ही कर सकता है।
महावीर की अध्यापन-शैली अत्यन्त विशिष्ट है। वे अध्यात्म के प्रात्मद्रटा दार्शनिक हैं। वे एक के ज्ञान में अनेक का ज्ञान स्वीकार करते हैं। एक मनोवृत्ति को समग्रभाव से पढ़ना वृत्तियों के सम्पूर्ण व्याकरण को निहारना है। मन का
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द्रप्टा अपने अस्तित्व का पहरेदार है। द्रष्टाभाव, साक्षीभाव मन के कर्दम से उपरत होकर प्रात्म-गगन में प्रस्फुटित होने का प्रथम प्रायाम है।
मन का विखराव वाह्य जगत के सौजन्य से होता है। इस विखराव में चेतना दोहरा संघर्ष करती है। पहला संघर्ष चेतना के आदर्श और वासना-मूलक पक्षों में होता है तथा दूसरा उस परिवेश के साथ होता है, जिसमें मनुष्य अपनी इच्छा/वासना की पूर्ति चाहता है । यह संवर्प ही प्रात्म-ऊर्जा को विच्छिन और कुण्ठित करता है।
___ 'शीतोष्णीय' वह अध्याय है, जो आदर्श और यथार्थ, प्राभ्यन्तर और वाह्य, गति और स्थिति, व्यक्ति और समाज में मन्तुलन लाने का पाठ पढ़ाता है । विक्षोभ उत्तेजना तथा संवेदना से उत्पन्न होता है। प्रस्तुत अध्याय विक्षोभ-निवारण हेतु समत्व योग को अचूक मानता है।
मनुष्य अनेक चिनवान है । इसलिए वह अनगिनत चित्तवृत्तियों का समुदाय है। इच्छा चितवृत्ति की ही सहेली है । इच्छात्रों का भिक्षापान दुष्पूर है। इच्छापूति के लिए की जाने वाली थम-साधना चलनी में जल भरने जैसी विचारणा है। चित्त के नाटक का पटापेक्ष कैसे किया जाये, प्रस्तुत अध्याय यही कौशल सिखाता है।
___ साधक का धर्म है-चारित्रगत वारीकियों के प्रति प्रतिपग/प्रतिपल जगना । प्रमाद एवं विलासिता की चपेट में आ जाना साधना-पथ में होने वाली दुर्घटना है । वह अप्रमत्त नहीं, घायल है।
. साधक महापथ का पांथ है । अप्रमाद उसका न्यास है। मौन मन ही उसके मुनित्व की प्रतिष्ठा है। अप्रमत्तता, अनासक्ति, निष्कपायता, समदर्शिता एवं स्वावलम्बिता के अंगरक्षक साथ हों, तो साधक को कैसा खतरा । प्रात्म-जागरण का दीप पाटी याम ज्योतिर्मान रहे, तो चेतना के गहराव में कहाँ होगा अन्धकार और कहाँ होगा भटकाव !
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१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
ε.
पढमो उद्देसो
६०
सुत्ता अनुणी, मुणिणो सया जागरंति ।
लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं ।
समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्योवरए ।
जत्सिमे सहा य रुवा य रसा व गंधा य फासा च श्रभितमण्णागया भवंति, से प्रायवं नाणवं बेयवं धम्मवं वंभवं ।
पणार्णोह परियाणइ लोयं, मुणोति बुच्चे ।
धम्मविक उज्जू श्रावट्टसोए संगमभिजाणइ |
सोश्रो सिणच्चाई से निग्ये इ-र-सहे फरुसियं णो वेएइ ।
जागर - वेरोवरए वीरे एवं बुदखा पमोवखसि ।
जरामच्चुवसोवणीए गरे, सययं मूढे धम्मं णाभिजाणइ ।
१०. पासिय ाउरे पाणे अप्पमत्तो परिव्वए ।
११. मंता एवं मइमं ! पास ।
१२. आरंभजं दुखणंति णच्चा माई पसाई पुरेइ गन्नं ।
आयार-तं
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प्रथम उद्देशक
१. सुषुप्त अमुनि है, मुनि सदा जागृत है ।
२.
लोक में दुःख को अहितकर समझें ।
३. लोक के समय [आचार] को जानकर शस्त्र से उपरत हों।
४. जिसको ये शब्द रूप, रस, गंध और स्पर्श भली-भाँति ज्ञात है, वह आत्मज्ञ,
ज्ञानज, वेदज्ञ, धर्मज्ञ और ब्रह्मज्ञ है ।
५.
जो लोक को प्रज्ञा से जानता है, वह मुनि कहा जाता है।
६. ऋजु धर्मविद्-पुरुप आवर्त/संसार की परिधि के सम्बन्ध को जानता है।
७. वह शीत-उष्ण का त्यागी निर्ग्रन्थ अरति-रति को सहन करता है, कठोरता
का अनुभव नहीं करता है।
८.
इस प्रकार जागृत और वैर ने उपरत वीर-पुरुप दुःखों से मुक्त होता है ।
६.
सतत मूढ़ नर जरा और मृत्युवश धर्म को नहीं जानता है ।
१०. प्राणी को आतुर देखकर अप्रमत्त रहे ।
११. हे मतिमन् ! इस तरह मानकर देख ।
१२. यह दुःख हिंसज है, ऐसा जानकर मायावी और प्रमादी वारम्वार गर्भ/
जन्म प्राप्त करता है।
शीतोष्णीय
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१३. उवेहमाणो सद्द-रूवेसु उज्जू, माराभिसंको मरणा पमुच्चइ ।
१४. अप्पमत्तो कामेह, उवरो पावकम्मेहि, वीरे पायगुत्ते खेयणे ।
१५. जे पज्जवज्जाय-सत्यस्स खेयष्णे, से असत्थस्स खेयपणे,
जे असत्थस्स खेयण्णे, से पज्जवज्जाय-सत्थस्स खेयणे ।
१६. अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ ।
१७. कम्मुणा उवाही जायइ । १८. कम्मं च पडिलेहाए।
१६. कम्ममूलं च जं छणं, पडिलेहिय सव्वं समायाय, दोहि अंतेहि अदिस्समाणे ।
२०. तं परिण्णाय मेहावी विइत्ता लोग, वंता लोगसणं ।
२१. से मेहावी परक्कमेज्जासि ।
-त्ति वेमि।
बौनो उद्देसो
२२. जाइं च ड्ढि च इहज्ज ! पासे भूएहि जाणे पडिलेह सायं, तम्हा तिविज्जो
परमंति णच्चा, सनत्तदंसी ण करेइ पावं ।
२३. उम्मच पास इह मच्चिएहि ।
६२
पायार-सुतं
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१३. शब्द और रूप की उपेक्षा करने वाला ऋजु-पुरुप मार की आशंका एवं
मृत्यु से मुक्त होता है ।
१४. काम से अप्रमत्त, पापकर्म से उपरत, पुरुष वीर, आत्मगुप्त और क्षेत्रज्ञ है।
१५. जो पर्याय की उत्पत्ति का शस्त्र जानता है, वह अशस्त्र को जानता है ।
जो अशस्त्र को जानता है, वह पर्याय की उत्पत्ति का शस्त्र जानता है।
१६. अकर्म का व्यवहार नहीं रहता है।
१७. कर्म से उपाधियाँ उत्पन्न होती हैं ।
१८. कर्म का प्रतिलेख करें।
१६. उसी क्षण कर्म के मूल का प्रतिलेख कर सभी उपायों को ग्रहण करके दोनों
अन्तों/तटों [ राग और द्वेप 1 से अदृश्यमान रहे ।
२०. वह परिज्ञात मेधावी-पुरुप लोक को जानकर, लोक-संज्ञा का त्याग करे ।
२१. वह मेधावी पराक्रम करे ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
द्वितीय उद्देशक
२२. हे आर्य ! इस संसार में जन्म और वृद्धि को देख । प्राणियों को समझ एवं
उनकी शाता को देख । ये तीन [ सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र ] विद्याएँ परम हैं, यह जानकर समत्वदर्शी पाप नहीं करता है।
२३. इस संसार में मृत्यु-पाश से उन्मुक्त वनो। शीतोष्णीय
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२४. प्रारंभजीवी उभयाणुपस्सी।
२५. कामेसु गिद्धा णिचयं करेंति, संसिच्चमाणा पुणति गन्नं ।
२६. अवि से हासमासज्ज, हंता गंदोति मन्नइ ।
२७. अलं वालस्स संगेणं ।
२८. वेरं वड्डेइ अप्पणो।
२६. तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा, प्रायंकदंसी ण करेइ पावं ।
३०. अग्गं च मूलं च विगिच धीरे ।
३१. पलिच्छिदिया णं णिक्कम्मदंसी एस मरणा पमुच्चइ ।
३२. से हु दिट्ठपहे मुणो।
३३. लोयंसी परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते,
समिए सहिए सया जए कालखी परिवए।
३४. बहुं च खलु पाव-कम्मं पगडं।
३५. सच्चंसि घिई कुव्वह ।
३६. एत्योवरए मेहावी सव्वं पाव-कम्मं झोस ।
३७. अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरिप्णए ।
प्राचार-सुत
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२४. हिंसक पुरुष उभय (शरीर व मन) का अनुपश्यी है।
२५. काम-गृद्ध पुरुप संचय करते हैं और संचय करते हुए पुनः पुनः गर्भ प्राप्त
करते हैं।
२६. वह हँसी में भी हनन करके आनन्द मानता है ।
२७. वालक (मूढ़) की संगति से क्या प्रयोजन ?
२८. वह अपना वैर वढ़ाता है।
२६. ये तीन [सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र] विद्याएँ परम हैं, यह जानकर . अातंकदर्शी/आत्मदर्शी पाप नही करता है।
३०. धीर-पुरुप अग्र [घाती कर्म] और मूल [मिथ्यात्व] का त्याग करे । ३१. कर्म-छेदन करने वाला निष्कर्मदर्शी है, वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है।
३२. वही पथद्रष्टा मुनि है ।
३३. लोक में परमदर्शी, विविक्त जीवी, समत्वयोगी उपशान्त, समितिसहित, सदा
विजयी, कालकांक्षी (समाधिमरणाकांक्षी) होकर परिव्रजन करता है।
३४. निश्चय ही बहुत से पापकर्म किये गये हैं।
३५. सत्य में धृति करो।
३६. . इस [सत्य] में रत रहने वाला मेवावी पुरुष समस्त पाप-कर्मों का शोपण
कर डालता है।
३७. निश्चय ही यह पुरुष अनेक चित्तवान है । वह केतन/चलनी को पूरना/भरना
चाहता है।
शीतोष्णीय
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३८. से अण्णवहाए अण्णपरियावाए श्रष्णपरिहाए, जलव्यवहाए जणवयपरियावाए जणवयपरिहाए ।
३६. प्रतेवित्ता एयम इच्चेवेने समुट्टिया |
४०. तम्हा तं विइयं णो सेवए विस्तारं पातिय णाणो ।
४१. उववायं चवणं णच्चा । अणणं चर माहणे !
४२. से ण छणे ण छणावए, छर्णतं णाणुजाणइ ।
४३. निव्विद द अरए पयासु ।
४४. प्रणोमदंसी पिसण्णे पावेहि कम्महि ।
४५. कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्त पाते णिरयं महंतं । तम्हा हि वीरे विरए वहाम्रो, छिदेज्न सोयं लहुनूय-गामी ॥
४६. ग्रंथं परिण्णाय इहज्जेव धीरे, सोवं परिष्णाय चरेज्ज देते । चम्मज्ज लद्ध ं इह माणवेहि, णो पाणिणं पाणे समारंनेज्जाति ॥
तइप्रो उद्देसी
४७. संधि लोगस्स जाणित्ता, आयस्रो बहिया पासं ।
इ
- क्षि बेमि
पायार-सुत
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३८. वह दूसरों का वध, दूसरों को परिताप, दूसरों का परिग्रह, जनपद का वध,
जनपद को परिताप, जनपद का परिग्रह [करना चाहता है।
३६. इस अर्थ का सेवन करके वह वेग/संसार-प्रवाह में उपस्थित है ।
४०. इसलिए ज्ञानी पुरुप इसे निस्सार देखकर दूसरी बार सेवन न करे।
४१. उत्पाद और च्यवन को जानकर तत्त्वद्रप्टा अनन्य (ध्रौव्य) का आचरण
करे।
४२. वह न तो क्षय करे, न क्षय करवाए और न ही क्षय करने वाले का समर्थन
करे।
४३. प्रजा की जुगुप्सा एवं आनन्द में अरत वनें ।
४४. अनुपमदर्शी पापकर्मो से दूर रहे ।
४५. वीर-पुरुप क्रोध एवं मान का हनन करे । लोभ को महान् नरक समझे।
इसलिए वीर-पुरुप वध से विरत रहे । लघुभूतगामी-पुरुप (साम्यभावी) शोक का छेदन करे।
४६. इन्द्रियविजयी धीर-पुरुप ग्रन्थियों को जानकर, शोक को जानकर विचरण
करे। इस मनुष्य-जन्म में उन्मज्ज/कच्छपवत् इन्द्रिय-संयमी होकर प्राणियों के प्रारणों का वध न करे।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
तृतीय उद्देशक
४७. लोक की सन्धि को जानकर वाह्य (जगत) को प्रात्मवत देख ।
शीतोष्णीयं
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४८. तम्हा ण हंता ण विधायए ।
४६. जमिणं अण्णमण्णावइगिच्छाए पडिलेहाए ण करेइ पावं कम्मं, किं तत्य मुणी कारणं सिया ?
५०. समयं तत्युहाए, अप्पाणं विध्वसायए ।
५१. अणण्णपरमं नाणी, णो पमाए कयाइ वि ।
५२. आयगुत्ते सया वीरे, जायामायाए जावए ।
५३. विरागं रूवेहिं गच्छेज्जा, महया खुड्डएहि वा ।
५४. आगई गई परिण्णाय, दोहिं वा अंतेहिं श्रदिस्समाणे ।
से ण छिज्जइ ण भिज्जइ ण उज्झइ, ण हम्मद कंचणं सव्वलोए ||
५५. प्रवरेण पुव्दं ण सरंति एगे, किमस्सई ? किं वागमिस्सं ? भासंति एगे इह माणवा उ, जमस्सईनं श्रागमिस्सं ॥
५६. णाईप्रमट्ठ ण य श्रागमिस्सं, श्रट्ठ नियच्छति तहागया उ ! विधूय कप्पे एयाणुपस्सी, णिज्भोसइत्ता खवगे महेसी ॥
५७. का अरई ? के आणंदे ? एत्थंपि अग्गहे चरे ।
५८. सव्वं हासं परिच्चज्ज, आलोण-गुत्तो परिव्वए ।
५६. पुरिसा ! तुममेव तु मित्तं किं वहिया मित्तमिच्छसि ?
६०. जं जाणेज्जा उच्चालइयं तं जाणेज्जा दूरालइयं । जं जाणेज्जा दूरालइयं, तं जाणेज्जा उच्चालइयं ॥
ह
यार-मु
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४८. इसलिए न मारे, न घात करे ।
४६. जो एक दूसरे को चिकित्सिक की तरह प्रतिलेख (परीक्षण) करके पाप कर्म नहीं करता है, क्या यह मुनि-पद का कारण है ?
५०. समता का प्रेक्षक आत्मा को प्रसन्न करे, निर्मल करे ।
५१. अनन्य परम ज्ञानी (आत्मज्ञ ) कभी भी प्रमाद न करे ।
५२. आत्म- गुप्त वीर सदा यात्रा की मात्रा (संयम ) का उपयोग करे ।
५३. महान या क्षुद्र रूपों से विराग करे ।
५४. प्रगति और गति को जानकर दोनों ही अन्तों ( राग-द्वेप) से अदृश्यमान होता हुआ वह ज्ञानी सम्पूर्ण लोक में किसी तरह से न तो छेदा जाता है, न भेदा जाता है, न जलाया जाता है, न मारा जाता है ।
५५. कुछ लोग अतीत और भविष्य का स्मरण नहीं करते । कुछ मनुष्य कहते हैं कि अतीत में क्या हुआ और भविष्य में क्या होगा ?
५६. तथागत को न तो अतीत से प्रयोजन है, न भविप्य से प्रयोजन है । विधूतकल्पी मह इनका अनुपश्यी बने । वह इन्हें धुनकर क्षय करे ।
५७. क्या ग्ररति है, क्या आनन्द है ? इन्हें ग्रहण किये बिना विचरण करे |
५८. ग्रालीन- गुप्त ( त्रिगुप्त ) पुरुष सभी प्रकार के हास्य का परित्याग कर परिव्रजन करे |
५९. हे पुरुष ! तुम ही तुम्हारे मित्र हो । फिर बाहरी मित्र की इच्छा क्यों करते हो !
६०. जो उच्चालय (जीवात्मा) को जानता है, वह दूरालय ( परमात्मा) को जानता है । जो दूरालय ( परमात्मा ) को जानता है, वह उच्चालय ( जीवात्मा) को जानता है ।
शीतोष्णीय
££
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६१. पुरिसा ! प्रत्ताणमेव श्रभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पनोपखसि ।
६२. पुरिसा ! सच्चमेव समभिजानाहि ।
६३. सच्चस्स प्राणाए उर्वाट्ठिए से मेहावी मारं तरइ ।
६४. सहिए वम्ममादाय, सेयं समणुपस्सइ ।
६५. दुहग्रो जीवियस्स, परिवंदण माणण-पूयणाए, जंति एगे पमादेति ।
६६. सहिए दुक्खमत्ताए पुट्ठो जो भंभाए ।
६७. पासिमं दविए लोयालोय-पवंचाश्रो मुच्चइ ।
६८. से वंता कोहं च, माणं च मार्य च, लोनं च ।
६६. एयं पासगस्त दंसणं उवरयसत्यस्त पलियंत करम्स |
७०. श्रयाणं सगडभि ।
चउत्थो उद्देसो
७१. जे एगं जाड, से सव्वं जाणई, जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ।
७२. सव्वग्रो पमत्तत्स भयं सव्वश्रो अप्पमत नयि भर्मं ।
ܘܐ
-त्ति वेनि
यायारन्मुत
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६१. हे पुरुप ! अात्मा का ही अभिनिग्रह कर। ऐसा करने से त दःखों से छट
जाएगा।
६२. है पुरुप ! सत्य को ही जान ।
६३. जो सत्य की प्राज्ञा में उपस्थित है, वह मेधावी मार/मृत्यु से तर जाता है ।
६४. वह धर्मयुक्त होकर श्रेय का अनुपश्यन करता है ।
६५. जीवन को [राग और द्वेप से] द्विहत करने वाले कुछ साधक परिवन्दन,
मान और पूजा के लिए प्रमाद करते हैं।
६६. दु:ख-मात्रा से स्पृष्ट साधक झुंझलाहट न करे ।
६७. द्रव्य-द्रष्टा (तत्त्व-द्रष्टा) लोक-अलोक के प्रपंच से मुक्त हो जाता है ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
चतुर्थ उद्देशक
६८. वह क्रोध, मान, माया और लोम का चमन करने वाला है।
६६. यह शस्त्र से उपरत और कर्म से परे द्रप्टा का दर्शन है।
७०. गृहीत कर्मों का भेदन करता है।
७१. जो एक [तत्त्व] को जानता है, वह सब [तत्सम्वन्धित गुणों ने जानत है । जो सवको जानता है, वह एक को जानता है।
LF 2..... ७२. प्रमत्त को सभी ओर से भय है, अप्रमत्त को सभी ओर से भय नहीं है। शीतोष्णीय
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७३. जे एगं नामे, से बहुं नामे,
जे बहुं नामे, से एगं नामे ।
७४. दुक्खं लोयस्स जाणिता, वंता लोगस्स संजोगं, जति धौरा महाजाणं ।
७५. परेण परं जति ।
७६. नावकखंति जीवियं ।
७७. एग विगिचमाणे पुढो विगिचई,
पुढो विगिचर्माणे एगं विगिचइ ।'
७८. सड्ढी प्राणाए मेहावी ।
७६. लोगं च प्राणाए अभिसमेच्चा अकुप्रोभयं ।
८०. अस्थि सत्थं परेण परं, णत्यि असत्यं परेण परं ।
जे कोहदंसी से, माणदंसी । जे माणदंसी से, मायदंसी । जे मायदंसी से, लोभदंसी । जे लोभदंसी से, पेज्जदंसी। जे पेज्जदंसी से, दोसदंसी । ने दोसदंसी से, मोहदंसी। जे मोहदंसी से, गन्भदंसी। जे गन्भदंसी से, जम्मदंसी। जे जम्मदंसी से, मारदंसी । जे मारदंसी से, निरयदंसी । जे निरयदंसी से, तिरियदंसी । जे तिरियदंसी से, दुक्खदंसी ।
s
१०२
श्रीयार सुत
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७३. जो एक को नमाता है, वह बहुतों को नमाता है।
जो बहुतों को नमाता है, वह एक को नमाता है ।
७४. धीर-पुरुप लोक के दुःख को जानकर, लोक के संयोग का वमन कर महा
यान को प्राप्त करते हैं।
७५. वे श्रेय से श्रेय की ओर जाते हैं ।
७६. वे जीवन की आकांक्षा नहीं करते ।
७७. एक (कर्म/कपाय) का क्षय करने वाला अनेक (कर्मो कपायों) का क्षय
करता है । अनेक का क्षय करने वाला एक का क्षय करता है।
७८. आज्ञा में श्रद्धा करने वाला मेधावी है ।
७६. आज्ञा से लोक को जानकर पुरुप भय-मुक्त हो जाता है ।
५०. शस्त्र तीक्ष्ण-से-तीक्ष्ण हैं । अशस्त्र तीक्ष्ण-से-तीक्ष्ण नहीं है ।
जो क्रोधदर्शी है, वह मानदर्शी है। जो मानदी है, वह मायादी है। जो मायादर्शी है, वह लोभदर्शी है । जो लोभदर्शी है, वह प्रेम/रागदर्शी है। जो प्रेम/रागदी है. वह द्वेषदर्शी है । जो द्वेपदी है, वह मोहदी है। जो मोहदर्शी है, वह गर्मदर्शी है । जो गर्भदर्शी है, वह जन्मदर्शी है । जो जन्मदर्शी है, वह मृत्युदर्शी है। जो मृत्युदर्शी है, वह नरकदर्शी है । जो नरकदर्शी है, वह तिर्यचदी है। जो तिर्यचदर्शी है, वह दुःखदर्शी है।
शीतोंप्णीय .
१०३
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२. ते मेहावी अभिनिद्वैज्जा कोहं च, मागं च, मायं च, लोहं च, पेज च,
दोतंच, मोहं च, गन्नं च, जम्मंच, मारं च, नरगंच, तिरियं च, दुक्तं च ।
८३. एवं पासगस्त दंतणं उवरयसत्यस्स पलिमंतकरत ।
८४. आयाणं णितिद्धा सान्नि ।
८५. किमत्यि उवाही पासगस्त ण विष्लइ ?
पत्यि ।
-त्ति बेमि ।
१०४
ऑयार सुत
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१२. वह मेवावी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम/राग, द्वेप, मोह, गर्म, जन्म,
मार/मृत्यु, नरक, तिर्यच और दुःख से निवृत हो । ८३. यह शस्त्र-उपरत और कर्म-द्रष्टा का दर्शन है ।
८४. गृहीत को रोककर भेदन करे ।
५५. क्या द्रष्टा की कोई उपाधि है या नहीं ?
नहीं है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
शीतोष्णीय
१०५
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चउत्थं अज्झयणं सम्मत्तं
चतुर्थ अध्ययन सम्यक्त्व
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पूर्व स्वर
प्रस्तृत अध्याय 'सम्यक्त्व' है । अध्याय की दृष्टि से यह चौथा चरण है, किन्तु अध्यात्म की दृष्टि से पहला । यह अर्हत-दर्शन की वर्णमाला का प्रथम अक्षर है। यही जैनत्व की अभिव्यक्ति है। यह वह चौराहा है, जिसमें अध्यात्म-जगत के कई राज-मार्ग मिलते हैं । अतः सम्यक्त्व के लिए पगक्रम करना महावीर के महापथ का अनुगमन/अनुमोदन है।
'सम्यक्त्व' साधुता और ध्रुवता की दिव्य आभा है। सम्यक्त्व और साधुता के मध्य कोई द्वैत-रेखा नहीं है। साधु सम्यक्त्व के बल पर ही तो संसार की चारदिवारी को लांघता है। इसलिए सम्यक्त्व साधु के लिए सर्वोपरि है।
सत्यदर्शी महावीर सम्यक्त्व की ही पहल करते हैं। उनकी दृष्टि में सम्यक्त्व. विशेपणों का विशेपण है,प्राभूपणों का भी आभूपण है । यह सत्य की गवेषणा है। साधक प्रात्म-गवेपी है । आत्मा ही उसके लिए परम-सत्य है। इसलिए सम्यक्त्व साधक का सच्चा व्यक्तित्व है। उसकी आँखों में सदा अमरता की रोशनी रहती है। कालजयी क्षरणों में जीने के लिए ही उसका जीवन समर्पित है। कालजयता के लिए अस्तित्व का अभिज्ञान अनिवार्य है। अस्तित्व शाश्वत का घरेलु नाम है। सम्यवत्व उस शाश्वत की ही पहिचान है।
सम्यक्त्व प्रात्म-विकास की प्राथमिक कक्षा है। वस्तु-स्वरूप के बोध का नाम सम्यक्त्व है। विना सम्यक्त्व के साधक वस्तु मात्र की अस्मिता का सम्मान कसे करेगा? पदार्थों का श्रद्धान कैले किलकारियां भर सकेगा ? अहिंसा और करणा कसे संजीवित हो पायेगी ? अध्यात्म की स्नातकोत्तर सफलताओं को अर्जित करने के लिए सम्यक्त्व की कक्षा में प्रवेश लेना अपरिहार्य है।
साधक की सबसे बड़ी सम्पदा सम्यक्त्व ही है। प्रात्म-समीक्षा के वातावरण में इसका पल्लवन होता है । सम्यक्त्व अन्तदप्टि है। इसका विमोचन बहिष्टियों को संतुलित मार्गदर्शन है। फिर वे सत्य का आग्रह नहीं करतीं, अपितु सत्य का ग्रहण करती हैं । माटी-सोना, हर्प-विपाद के तमाम द्वन्द्वों से वे उपरत हो जाती
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हैं। इसी से प्रवर्तित होती है सत्य की शोध-यात्रा । विना सम्यक्त्व के अध्यात्ममार्ग की शोभा कहाँ ? भला, ज्वर-ग्रस्त को माधुर्य कभी रसास्वादित कर सकता है। असम्यक्त्व मिथ्यात्व जीवन का ज्वर नहीं तो और क्या है ? सचमुच, जिसके हाथ में सम्यक्त्व की मशाल है, उसके सारे पथ ज्योतिर्मय हो जाते हैं ।
प्रस्तुत अध्याय संयमित एवं संवरित होने की प्रेरणा देता है । जिसने मन, वचन और काया के द्वार बन्द कर लिए हैं, वही सत्य का पारदर्शी और मेधावी साधक है। उसे इन द्वारों पर अप्रमत्त चौकी करनी होती है। उसकी आँखों की पुतलियाँ अन्तर्जगत के प्रवेश-द्वार पर टीकी रहती है। बहिर्जगत के अतिथि इमी द्वार से प्रवेश करते हैं । अयोग्य और अनचाहे अतिथि द्वार खटखटाते जरूर हैं, किन्तु वह तमाम दस्तकों के उत्तर नहीं देता, मात्र सम्यक्त्व की दस्तक सुनता है। वह उन्हीं लोगों की अगवानी करता है, जिससे उसके अंतर-जगत का सम्मान और गौरव वर्धन हो।
अस्तित्व का समग्र व्यक्तित्व सम्यक्त्व की खुली खिड़की से ही अवलोक्य है। अध्यात्म का अध्येता सम्यक्त्व से अपरिचित रहे, यह संभव नहीं है। व्यक्ति के मुपुप्त विवेक में हरकत पैदा करने वाला एकमात्र सम्यक्त्व ही है। यथार्थता का तट, सम्यक्त्व का द्वीप मिथ्यात्व के पार है। हृदय-शुद्धि, अहिंसा, संवर, कषायनिग्रह एवं संयम की पतवारों के सहारे असद्-सागर को पार किया जा सकता है।
स्वस्थ मन के मंच पर ही अध्यात्म के प्रासन को विछावट होती है। प्राध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए मन की निरोगिता अावश्यक है और मन को निरोगिता के लिए कषायों का उपवास उपादेय है । विषयों से स्वयं की निवृत्ति ही उपवास का सूत्रपात है । क्षमा, नम्रता और संतोष के द्वारा मन को स्वास्थ्य-लाभ प्रदान किया जा सकता है।
। प्रस्तुत अध्याय अनुत्तरयोगी महावीर के अनुभवों की अनुगूंज है। सम्यक्त्व का सिद्धान्त सत्य को न्याय-तुला है । जीवन को मौलिकताओं और नैतिक प्रतिमानों को उज्ज्वलतर बनाने के लिए यह सिद्धान्त अप्रतिम सहायक है। सत्रमुत्र, जिसके हाथ सम्यक्त्व-प्रदीप से शून्य हैं, वह मानो चलता-फिरता 'शव' है, अँधियारी रात में दिग्भ्रान्त-पान्थ है। साधक के कदम बढ़ें जिन-मग पर, अन्धकार से प्रकाश की ओर । मुक्त हो जीवन की उज्ज्वलता, मिथ्यात्व की अँधेरी मुट्ठी से ।
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पढमो उदेसो
१.
से वेमिजे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सब्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति. एवं पण्णवेति, एवं परवति-सवे पाणा, सब्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयन्वा, ण परिघेत्तव्वा, ण परियावेयत्वा, ण उद्दवेयन्वा ।
२.
एस धम्मे सुद्ध।
३. णिइए सासए समिच्च लोयं खेयणेहिं पर्वइए ।
४.
तं जहाउढिएतु वा, अणुट्टिएसु वा, उवढिएसु वा, अणुवट्ठिएसु वा, उवरयदंडेसु वा, अणुवरयदंडेसु वा, सोवहिएसु वा, अणोवहिएसु वा, संजोगरएसु वा, असंजोगरएसु वा, तच्चं चेयं ।
५. तहा चेयं, अस्सि चैर्य पच्चई । ६. तं प्राइत्तु ण णिहे ण णिविखवे, जाणित्तु धम्मं जहा तहा । ७. दि→हि णिव्वेयं गच्छेज्जा । ८. णो लोगस्सेसणं चरे।
११०
आयार-सुत्तै
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________________
२.
३.
४.
५.
६.
७.
वही मैं कहता हूँ
जो प्रतीत, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) और भविष्य के अन्त भगवन्त हैं, वे सभी इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार भापण करते हैं, इस प्रकार प्रज्ञापन करते हैं, प्ररूपित करते हैं कि सभी प्राणी, सभी भूत, सभी जीव, सभी सत्वों का न हनन करना चाहिये, न प्राज्ञापित करना चाहिये, न परिगृहीत करना चाहिये, न परिताप देना चाहिये, न उत्पाद / प्राण-व्यपरोपण करना चाहिये |
प्रथम उद्देशक
यह शुद्ध धर्म है ।
लोक को नित्य, शाश्वत जानकर खेदज्ञों (ज्ञानियों) के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है ।
जैसे कि -
उत्थित होने पर या अनुत्थित होने पर, दंड से उपरत होने पर अथवा दंड से अनुपरत होने पर, सोपाधिक होने पर अथवा ग्रनोपाधिक होने पर, संयोगरत होने पर अथवा असंयोगरत होने पर, यह तत्त्व प्रतिपादित किया गया है ।
जैसा तथ्य है, वैसा प्ररूपित किया गया ।
उस धर्म को यथातथ्य ग्रहण कर एवं जानकर न स्निग्ध हो न विक्षिप्त 1
दृष्ट कैसे निर्वेद रहे !
८. लोकपरा न करे |
सम्यक्त्व
१११
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६. जस्स गत्यि इमा जाई, अण्णा तस्स को सिया ?
१०. दिळं सुयं मयं विण्णायं, जमेयं परिकहिज्जइ ।
११. समेमाणा पलेमाणा, पुणो-पुणो जाई पकति ।
१२. अहो य राम्रो य जयमाणे, घोरे सया आगयपण्णाणे ।
पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते सया परक्कमेज्जासि ।
-त्ति मि।
बौनो उद्देसो
१३. जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते प्रासवा,
जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा। --एए पए संवुज्झमाणे, लोयं च प्राणाए अभिसमेच्चा पुढो पवेइयं ।
१४. आघाइ गाणी इह माणवाणं संसारपडिवण्णाणं संवुज्झमाणाणं
विण्णाणपत्ताणं ।
१५. अट्ठा वि संता अदुवा पमत्ता, अहाँसच्चमिण ति बेमि ।
१६. नाणागमी मच्चमुहस्त अत्थि, इच्छापणीया वंकाणिकया ।
कालग्गहीमा णिचए णिविट्ठा, पुढो-पुढो जाइं पकप्पयति ।
१७. इहमेगेसि तत्य-तत्थ संयवो भवग।
११२
आयार पुतं
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६. जिसे यह जाति (लोकवरणा-बुद्धि) नहीं है, उसके लिए अन्य क्या है ?
१०. जो यह कहा जाता है वह दृष्ट, श्रुत, मत और विज्ञात है।
११. आसक्त एवं लीन होने वाले पुरुप पुनः पुनः उत्पन्न होते रहते हैं।
१२. रात-दिन प्रयत्नशील धीर-पुरुष आगत प्रज्ञा से प्रमत्त को सदा वहिर्मुख देखे और सदा अप्रमत्त होकर पराक्रम करे ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
द्वितीय उद्देशक
१३. जो आसन हैं, वे परिस्रव हैं। जो परिस्रव हैं, वे प्रास्रव हैं।
जो अनास्रव हैं, वे अपरिस्रव हैं । जो अपरिस्रव हैं, वे अनास्रव हैं । -इस पद का जाता लोक को प्राज्ञा से जानकर पृथक-पृथक प्रवेदित करे।
१४. संसार-प्रतिपन्न, संवुध्यमान, विज्ञान-प्राप्त मनुष्यों के लिए यह उपदेश
दिया है।
१५. प्राणी पाते भी हैं और प्रमत्त भी । यह यथासत्य है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
१६. मृत्यु-मुख के नाना मार्ग हैं - इच्छा-प्रणीत, वंकानिकेत/कुटिल, कालगृहीत
एवं संग्रह-निविष्ट । [ इन मार्गों पर चलने वाला ] पृथक्-पृथक जातियों जन्मों को प्राप्त करता है।
१७. इस संसार में कुछ लोगों के लिए उन स्थानों के प्रति मानो संस्तव/लगाव
होता है।
सम्यक्त्व
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१८. अहोववाइए फासे पडिसंवेयंति ।
१६. चिट्ठ कूरेहि कम्मेहि, चिठ्ठ परिचिट्ठइ ।
२०. अचिट्ठ कूरेंहि कम्मेहि, णो चिट्ठ परिचिट्ठइ ।
२१. एगे वयंति अदुवा वि णाणी ?
णाणी वयंति अदुवा वि एगे ?
२२. आवंती केयावंती लोयंति समणा य माहणा य पुढो विवायं वयंति-से
दिटुं च णे, सुयं च णे, मयं च णे, विण्णायं च णे, उड्ढे अहं तिरियं दिसासु सत्वनो सुपडिलेहियं च णे-सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता हंतव्वा, अज्जावेयव्वा परिघेत्तवा, परियावेयन्वा, उद्दवेयवा । एत्य वि जाणह पत्थित्य दोसो, प्रणारियवयणमेयं ।
२३. तत्थ जे आरिया, ते एवं वयासी-से दुढिच मे, दुस्सुयं च भे, दुम्मयं च
भे, दुटिवण्णायं च भे, उड्ढं अहं तिरिय दिसासु सव्वनो दुप्पडिलेहियं च भे, जंणं तुटभे एवं प्राइवखह, एवं भासह, एवं परूवेह, एवं पण्णवेह-सवे पाणा सव्वे भूया सवे जीवा सवे सत्ता हंतव्वा, अज्जावेयन्वा, परिघेतव्वा, परियावेयव्वा, उद्दवेयव्वा । एत्थ वि जाणह पत्थित्थ दोसो, अणारियवयणमेयं ।
२४. वयं पुण एवमाइक्खामो, एवं भासामो, एवं परूवेमो, एवं पण्णवेमो-तत्वे
पाणा सवे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयन्वा, प परिघेतव्वा, ण परियावेयवा, ण उद्दवेयच्वा एत्य वि जाणह णत्थित्य दोसो, मारियवयणमेयं ।
११४
आयार-उत्तं
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१८. वे प्रोपपातिक स्पर्श का प्रतिसंवेदन करते हैं ।
१६. क्रूर कर्मों में स्थित पुरुष उन स्थानों में ही स्थित होता है ।
२०. क्रूर कर्मों में स्थित पुरुष उन स्थानों में स्थित नहीं होता है ।
२१. यह और कोई कहता है या ज्ञानी भी ? ज्ञानी कहते हैं अथवा और कोई भी ?
२२. लोक में कुछेक श्रमरण और ब्राह्मण अलग-अलग विवाद करते हैं । वह मैंने देखा, मैंने सुना, मैंने मान्य किया और मैंने विज्ञात किया है । ऊर्ध्व, अधो, सभी दिशाओं में प्रतिलेखित किया है कि सभी प्राणी, सभी जीव, सभी भूत, सभी सत्त्वों का हनन करना चाहिये, ग्राज्ञापित करना चाहिये, परिघात करना चाहिये, परिताप करना चाहिये और विमोचन करना चाहिये । इसमें कोई दोष नहीं है, ऐसा समझें । यह ग्रनार्यो का वचन है ।
-
२३. इनमें जो आर्य हैं उन्होंने ऐसा कहा - वह तुम्हारे लिए दुर्दिष्ट है, तुम्हारे लिए दु:श्रुत है, तुम्हारे लिए दुर्मान्य है और तुम्हारे लिए दुर्विज्ञात है । ऊर्ध्व, ध और तिर्यक् सभी दिशाओंों में तुम्हारे लिए दुष्प्रतिलेख है । यदि तुम ऐसा ग्राख्यान करते हो, ऐसा भाषण करते हो, ऐसा प्ररूपित करते हो, ऐसा प्रज्ञापित करते हो - सभी जीव, सभी भूत, सभी सत्त्व का हनन करना चाहिये, श्राज्ञापित करना चाहिये, परिघात करना चाहिये, परिताप करना चाहिये और विमोचन करना चाहिये । इसमें कोई दोष नही है ऐसा समझें | यह अनार्यो का वचन है ।
-
२४. पुनः हम सब इस प्रकार प्राख्यान करते हैं, इस प्रकार भाप करते हैं, इस प्रकार प्ररूपण करते हैं, इस प्रकार प्रज्ञापित करते हैं कि सभी प्राणियों, सभी जीवों, सभी भूतों, सभी सत्त्वों का न हनन करना चाहिये, न श्राज्ञापिंत करना चाहिये, न परिघात करना चाहिये, न परिताप करना चाहिये । इसमें कोई दोष नहीं है, ऐसा समझें । यह श्रार्यवचन है ।
सम्यक्त्व
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२५. पुर्व निकाय समय पत्तेयं पुच्छिस्तामो-हंभो पवाइया ! कि में सार्व
दुक्ख असायं?
२६. समिया पडिवणे यावि एवं व्या-सवेसि पाणाणं, ससि भूयाण,
सन्वेसि जीवाणं, सन्वेसि सत्ताणं असायं अपरिणिवाणं महन्मयं दुक्खं ।
-त्ति बेमि ।
तइनो उदेसो
२७. उवेहि एण बहिया य लोयं, से सव्वलोनि जे केइ विष्णू ।
अणुवीइ पास णिविखत्तदंडा, जे के सत्ता पलियं चयति ।।
२८. गरा मुयच्चा धम्मविउत्ति अंजू ।
२६. आरंभज दुलमिणति णच्चा, एवमाहु तमत्तदसिणो।
३०. ने सवे पावाइया दुक्खत्त कुसला परिष्णमुदाहरति ।
३१. इंय कम्म परिणाय सव्वतो ।
३२. इह आणाकंत्री पंडिए अणिहे एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कलैहि
अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं।
३३. जहा जुगाई कढ़ाई, हववाहो पमत्थड एवं अत्तसमाहिए अभिहे ।
११६
प्राचार-सुतं
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२५. सर्वप्रथम प्रत्येक समय (सिद्धान्त ) को जानकर मैं पूछूंगा हे प्रवादी ! तुम्हारे लिए शाता दुःख है या अशाता ?
२६. समता प्रतिपन्न होने पर उन्हें ऐसा कहना चाहिये-
सभी प्राणियों, सभी जीवों, सभी भूतों और सभी सत्त्वों के लिए असाता अपरिनिर्वाण (ग्रनिष्ट) महामय रूप दुःख है ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
तृतीय उद्देशक
२७, वाह्य लोक की उपेक्षा कर । जो कोई ऐसा करता है, वह सम्पूर्ण लोक में विष्णु / विज्ञ होता है । ग्रनुवीची / अनुचिन्तन करके देख - हिंसा का त्याग करने वाला जीव ही पलित / कर्म को क्षीण करता है ।
२८. मृत / मुक्त-पुरुष की अत्र करने वाला धर्मविद् एवं ऋजु है ।
२६. यह दुःख हिंसज है, ऐसा जाननेवाला समत्वदर्शी कहा गया है ।
३०. वे सभी कुशल प्रवचनकार दुःख को परिज्ञा को कहते हैं ।
३१. इस प्रकार सभी ओर से कर्म परिज्ञात हैं
३२. इस संसार में आज्ञाकांक्षी पंडित अस्निग्ध, रागरहित एक ही आत्मा की संप्रेक्षा करता हुआ शरीर को धुने, स्वयं को कसे, अपने को जर्जर करे ।
३३. जिस प्रकार जीर्ण काष्ठ को अग्नि जला देती है, उसी प्रकार आत्म-समाहित पुरुप राग रहित होता है ।
सम्यक्त्व
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३४. विगिच कोहं अविकपमाणे, इमं णिरुद्धाउयं संपेहाए दुक्खं च जाण
अदुवागमेस्सं।
३५. पुढो फासाई च फासे, लोयं च पास विष्फंदमाणं ।
३६. जे णिचुडा पवेिहि कम्मेहि, अणियाणा ते वियाहिया, तम्हा अइविज्जो गो पडिसंजलिज्जासि ।
-त्ति वेमि
चउत्थो उद्देसो
३७. श्रावीलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोग, हिच्चा उवसमं ।
३८. तम्हा अविमणे वीरे सारए समिए सहिए सया जए ।
३६. दुरणुचरो मग्गो वीराणं अणियट्टगामीणं ।
४०. विगिच मंस-सोणियं ।
४१. एस पुरिसे दविए वीरे ।
४२. प्रायाणिज्जे वियाहिए, जे धुणाई समुस्सय, वसित्ता बंभचेरैसि ।
४३. णेत्तेहि पलिच्छिणेहि, पायाणसोय-गढिए बाले।
४४. अव्वोच्छिण्णंबंधणे, अणनिक्कतसंजोए ।
११६
आयार-मुक्त
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३४. इस आयु के निरोध की संप्रेक्षा कर निकम्प होता हुआ क्रोध को छोड़
एवं अनागत दुःखों को जान ।
३५. विभिन्न फासों/जालों में फंसे हुए विस्पन्दमान/स्वच्छन्दी लोक को देख ।
३६. जो पापकर्मों से निवृत्त हैं, वे अनिदान कहे गये हैं। अतः प्रबुद्ध-पुरुप संज्वलित न हों।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
चतुर्थ उद्देशक
३७. पूर्व संयोग को छोड़कर, उपशम को ग्रहण कर [शरीर को] पापीड़ित,
प्रप्रीडित तथा निप्पीड़ित करे।
३८. इसलिए अविमन वीर-पुरुप सदा सार तत्त्व में समिति-सहित विजयी बने ।
३६. अनिवृतगामियों के लिए वीरों का मार्ग दुप्चर है ।
४०. मांस एवं रुधिर को छोड़ ।
४१. यह पुरुप द्रविक/दयालु एवं वीर है ।
४२. जो ब्रह्मचर्य में वास करके शरीर को धुनता है, वह आज्ञापित कहा गया है ।
४३. नेत्र-विषयों में प्रासक्त एवं प्रागत स्रोतों में गृद्ध पुरुप बाल है ।
४४. वह बन्धन-मुक्त नहीं है, संयोग-रहित नहीं है।
सम्यक्त्व
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४५. तर्मति अवियापत्र आणाए लंभी गत्थि ।
४५. जस्स णत्थि पुरा पच्छा, मज्ने तस्स कुप्रो तिया ?
४७. से हु पण्णाणमंते बुद्ध आरंभोवरए सम्ममेयंति ।
४. पासह जेण बंधं वहं घोरं, परियावं च दारुणं ।
४६. पलिच्छिदिय बाहिरंग च सौयं णिक्कम्मसी इह मच्चिएहि, कम्मान सफलं दठ्ठे तो णिज्जाइ वेयवी ।
:
-त्ति बेमि ।
५०. जे खलु भो ! वोरा समिया सहिया सया जया संघसिणो ग्रानोवरया !
५१. अहा तहं लोयं ।
५२. उबेहमाणा, पाईणं पडणं दाहिणं उईणं इयं सच्चंसि परिचिट्टिनु ।
५३. साहिस्तामो गाणं वीराणं तमियाणं सहियाणं तया जयाणं संघदतिर्ण नोवरयाणं श्रहातहं लोय ।
५४. समुदेहमाणाणं किमत्य उवाही ?
५५. पासगस्त ण विज्जइ ?
णत्यि |
१२०
-त्ति बेमि ।
यागर-सुतं
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४५. अविज्ञायक / अज्ञानी पुरुष अन्धकार में पड़ा हुआ आज्ञा का लाभ नहीं
ले सकता ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
४६. जिसका पूर्व - पश्च नहीं है, उसका मध्य क्या होगा ?
४७. जो सम्यवत्व को खोजता है, वही प्रज्ञावान, बुद्ध और हिंसा से उपरत है ।
४८. तू देख ! जिसके कारण बन्ध, घोर वध, और दारुण परिताप होता है ।
४६. इस मृत्युलोक में निष्कर्मदर्शी वेदन- पुरुष वाहरी स्रोतों को आच्छादित करता हुआ कर्मों के फल को देखकर निवृत्त हो जाता है ।
५०. अरे, वे ही पुरुष हैं, जो समितिसहित, सदा विजयी, संघटदर्शी / सम्यक्त्वदर्शी, आत्म-उपरत है ।
५१. लोकं यथास्थित है ।
५२. पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर की उपेक्षा करता हुआ सत्य में स्थित रहे ।
५३. मैं वीर, समिति सहित, विजयी, संघटदर्शी एवं ग्रात्म-उपरत पुरुषों के ज्ञान को कहूँगा ।
५४. यथास्थित लोक की उपेक्षा करने वालों के लिए उपाधि से क्या प्रयोजन ?
५५. तत्त्वद्रष्टों के लिए [ उपावि से प्रयोजन ] है या नहीं ?
नहीं है ।
सम्यक्त्वे
- ऐसा मैं कहता हूँ
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पंचम अज्झयणं लोगसारो
पंचम अध्ययन लोकसार
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पूर्व स्वर
प्रस्तुत अध्याय 'लोकसार' है । धर्मनान संयम/निर्वाण ही निखिल लोक का नवनीत है। आत्मा की मौलिकताएं प्रच्छन्न हैं। उन्हें अनावरित एवं निरभ्र करना ही प्रस्तुत अध्याय का अन्तस्वर है । अतः यह अध्याय अात्महितपो पुरुप का व्यक्तित्व है, अध्यात्म की गुणवत्ता का आकलन है।
अध्यात्म यात्म-उपलब्धि का अनुष्ठान है । अनुण्ठाता को स्वयं का दीपक स्वयं को ही वनना पड़ता है । 'स्वयं' 'अन्य' का ही एक अंग है। अतः दूसरों में स्वयं की और स्वयं में दूसरों की प्रतिध्वनि सुनना अस्तित्व का अभिनन्दन है । दूसरों में स्वयं का अवलोकन ही अहिंसा का विज्ञान है । सम्पूर्ण अस्तित्व का अन्तर्सम्बन्ध है । क्षुद्र से क्षुद्र जीव में भी हमागे जैसी आत्मचेतना है । अतः किमी को दुःख पहुंचाना स्वयं के लिए दुःख का निर्माण करना है । सुख का वितरण करना अपने लिए सुख का निमन्त्रण है । जीव का वध अपना ही वध है । जीव की कारणा अपनी ही करुणा है । अतः अहिंसा का अनुपालन स्वयं का संरक्षरण है।
अहिंसा और निर्विकारिता का नाम ही अध्यात्म है। साधक अध्यात्म का अध्येता होता है। अतः हिमा और विकारों से उसकी कैसी मैवी ! विकार/वासना भोग-सम्भोग स्वयं की अ-ज्ञान दणा है। साधक तो 'पागमचा/ज्ञानचक्षु' कहा जाता है, अतः इनका अनुगमन अन्धत्व का समर्थन है।
प्रस्तुत अध्याय अप्रमाद का मार्ग दरशाता है । साधक का परिचय-पत्र अप्रमाद ही है। अप्रमाद और अपरिग्रह दोनों जुड़वा हैं। भगवान् ने मूर्छा को परिग्रह कहा है । मूर्छा का ही दूसरा नाम प्रमाद है । प्रमाद हिंसा का स्वामी है । अतः मूर्छा से उपरत होना अध्यात्म की सही आराधना है।
मूर्छा एक अन्धा मोह है। वह अनात्म को आत्मतत्व के स्तर पर ग्रहण करता है । भगवान् की भापा में यह मिथ्यात्व का मंचन है। प्रात्मतत्त्व और अनात्मतत्त्व का मिलन विजातीयों का संगम है । दोनों में विभाजन-रेखा खींचना ही भेदविज्ञान है।
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साधक प्रात्मदर्शन के लिए सर्वतोभावेन समर्पित होता है। अतः शारीरिक मूर्छा से ऊपर उठना भेद-विज्ञान की क्रियान्विति है । शरीर और आत्मा के मध्य युद्ध चल रहा है । दोनों के बीच युद्ध-विगम की स्थिति का नाम ही उपवाम है। जीवन, जन्म एवं मृत्यु के बीच का एक स्वप्नमयी विस्तार है। स्वप्न-मुक्ति का आन्दोलन ही संयास है। जीवन एवं जगत् को स्वप्न मानना अनासक्ति प्राप्त करने की सफल पहल है । अनासक्ति/अमूर्छा साधना-जगत् की सर्वोच्च चोटी है और इसे पाने के लिए भौतिक सुख-सुविधायों को नश्वन्ता का हर क्षण स्मरण करना स्वयं में अध्यात्म का आयोजन है।
साधक सत्य-पथ का पथिक होता है । सत्य के साथ संघर्ष विना अनुमति के हमसफर हो जाता है। साधक विराट् संकल्प का धनी होता है। उसे संघर्ष/परीषह से घबराना नहीं चाहिये, अपितु सहिष्णता के बल पर उसे निष्फल और अपंग कर देना चाहिये । भगवान् ने कहा है कि परीपहों, विघ्नों को न सहना कायरता है। परोपह-पराजय संकल्प-शैथिल्य की अभिव्यक्ति है । साध्य के बीज को अंकुरित करने के लिए अनुकूलता का जल ही आवश्यक नहीं है, अपितु परीषहमूलक प्रतिकूलता को धूप भी अपरिहार्य है। दोनों के सहयोग से ही वीज का वृक्ष प्रकट होता है।
साधक सहनशील होता है, अतः वह निर्विवादतः समत्वयोगी भी होता है। भगवान् ने समत्व की गोद में ही धर्म का शैशव पाया है। साधनागत अनुकूलताएँ बनाए रखने के लिग धर्मसंघ का अनुशासन भी उपादेय है।
साधना के इन विभिन्न ग्रायामों से गुजरना अनामय लक्ष्य को साधना है। श्रात्म-विजय ही परम लक्ष्य है। भगवान् ने इसे त्रैलोक्य की सर्वोच्च विजय माना है । शरीर, मन और इन्द्रियों को निगृहीत करने से ही यह विजय साकार होती है। फिर वह स्वयं ही सर्वोपरि सम्राट होता है । मुक्त हो जाता है हर सम्भावित दासता से । इस विमल स्थिति का नाम ही मोक्ष है।
मोक्ष चेतना की आखिरी ऊँचाई है। उसके बारे में किया जाने वाला कथन प्राथमिक सूचना है, शिशु को तोतली बोली में वारहखड़ी है। मोक्ष तो सबके पार है । भाषा, तर्क, कल्पना और बुद्धि के चरण वहाँ तक जा नहीं सकते । वहाँ तो है सनातन मौन, निरिण की निर्धूम ज्योत ।
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पढमो उदेसो
१. पावंती केयावंती लोयंसि विप्परामुसंति ।
२. अट्ठाए अणटाए वा, एएसु चेव विप्परामुसंति ।
३.
गुरू से कामा।
४. तो से मारस्स अंतो।
५. जत्रो से मारस्स अंती, तो से दूरे ।
६.
णेव से अंतो, णेव से दूरे ।
७. से पासइ फुसियमिव, कुसग्गे पणुण्णं णिवइयं वाएरियं, एवं बालस्स जीवियं,
मंदस्स अवियाणो।
. कूराई कम्माई वाले पकुव्वमाणे ।
६. तेण दुखेण मूढे विप्परियासमुवेइ ।
१०. मोहेण गन्मं मरणाइ एइ ।
११. एत्य मोहे पुणो-पुणो।
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श्रीयार-सुत्त
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प्रथम उद्देशक
१. कुछ मनुष्य लोक में विपर्यास को प्राप्त होते हैं।
२. वे इन [जीव-निकायों में प्रयोजनवण या निष्प्रयोजन विपर्यात को प्राप्त
होते हैं।
३. उनकी कामनाएँ विस्तृत होती हैं ।
४. अतः वह मृत्यु के समीप है ।
५.
चूकि वह मृत्यु के समीप है, इसलिए वह [अमरत्व से] दूर है ।
६. वह [निष्काम-पुरुप] न ही [मृत्यु के] समीप है, न ही [अमरत्व से]
दूर है !
वह कुशाग्र-स्पशित ओसविन्दु को वायु-निवतित देखत्ता है, किन्तु मंद वाल/ अज्ञानी पुरुप इसे जान नहीं पाता ।
८. वाल/अज्ञानी-पुरुप क्रूर कर्म करता है।
६.
मूढ-पुरुप उससे उत्पन्न दुःख से विपर्यास करता है ।
१०. मोह के कारण गर्भ जन्म मरण प्राप्त करता है।
११. यहां मोह पुनः पुनः होता है ।
लोकसार
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१२. संतयं परियाणनो, संसारे परिणाए भवइ,
संतयं अपरियाणो, संसारे अपरिणाए भवः ।
१३. जे छेए से सागारियं ण सेवइ ।
१४. कट्ट एवं अबियाणो, विइया नंदस्त बालया।
१५. लक्षा हुरत्या पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अपासेवणयाए ।
-तिमि !
१६. पासह एगे रूबेतु गिद्ध परिणिज्जमाणे: एत्य फासे पुणो-पुनो।
१७. प्रावती केयादती लोयंत्ति प्रारंभजीवी, एएसु चेव प्रारंभजीवो ।
१८. एत्य वि वाले परिचमाणे रमइ पाहि कम्महि, असरणे सरणं ति
मण्णमाणे।
१६. इहमेगेति एगचरिया नदइ-से व्हकोहै बहुमा बहुमाए बहुलोहे बहुरए
बहुनडे बहुसडे बहुसंकप्पे, पासवसक्की पलिउच्चप्ले, उद्वियवायं पवयमाणे मा मे केइ अदक्खू ।
२०. अण्णाण-पमाय-दोसे, सययं मूढे घाम गाभिजाई ।
२१. अट्टा पया माणव ! कम्मकोविया जे अणुवरया, अविज्जाए पलिमोक्खमाहु, प्रावट्टमेव अणपरियति ।
-त्ति देमि।
प्राचार-सुन
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१. संशय के परिज्ञान से संसार परिज्ञात होता है।
संशय के अपरिज्ञान से संसार अपरिज्ञात होता है ।
१३. जो छेक/बुद्धिमान् है, वह सागार गृहवास/सम्भोग का सेवन नहीं करता।
१४. सेवन करके भी अविज्ञायक कहना मन्दपुरुप की दोहरी मूर्खता है ।
१५. प्राप्त अर्थों (मैथुन-सार) को प्रतिलेख कर, जानकर उसका अनासेवन आज्ञापित करे।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
१६. देखो ! कुछ लोग रूप में गृद्ध हैं । वे यहाँ परिणीयमान होकर स्पर्श/दुःख
को प्राप्त होते हैं।
१७. कुछ लोग लोक में हिंसाजीची हैं । वे इन (विपयों) में [प्रासक्तिवश] ही
हिंसाजीवी हैं।
१८. यहाँ वाल-पुरुष अशरण को शरण मानता हुअा, विपयों में छटपटरता हुआ
पाप-कर्मों में रमण करता है।
१६. कुन्छ साधु एकचारी होते हैं । वे वहुक्रोवी, वहुमानी, बहुमायावी, वहुनटी,
वहुशठी, बहुसंकल्पी, आस्रव में आसक्त, कर्म में आच्छन्न, [विषयों में] उद्यमशील और प्रवृत्तमान हैं । मुझे कोई देख न ले [इस भय से छिपकर अनाचरण करते हैं।
२०. सतत् मूढ़ पुरुष प्रज्ञान, प्रमाद और दोप के कारण धर्म को नहीं जानता।
२१. हे मानव ! जो लोग आते, कर्म-कोविद, अनुपरत और अविद्या से मोक्ष . होना कहते हैं, वे आवर्त/संसारचक्र में अनुपरिवर्तन करते हैं ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
लोकसार .
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बीप्रो उदेसो
२२. श्रावंती केयावंती लोयंति अणारंभजीवी, एएलु चेव श्रणारंभजीवी ।
२३. एत्थोवरए तं झोसमाणे अयं संघोति श्रदक्खु, जे इमस्स विग्गहस्त श्रयं खणेति णेसी ।
२४. एस मग्गे आरिएहि पवेइए ।
२५. उट्ठिए णो पमायए ।
२६. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं ।
२७. पुढो छंदा इह माणवा, पुढो दुक्खं पवेइयं ।
२८. से विहितमाणे प्रणवयमाणे, पुट्ठो फासे विपणुण्णए ।
२६. एस समिया परियाए विधाहिए ।
३०. जे असता पावेहि कम्मेहि, उदाहु ते आयँका फुर्सति ।
३१. इय उदाहु वीरे 'ते फासे पुट्ठो श्रहियासए' ।
३२. से पुवं पेयं पच्छापेयं ।
३३. भेउर-धम्मं, विद्धसण-धम्मं, प्रधुवं, प्रणिइयं, असासर्य, चयावचर्य, विपरिणाम-धम्मं, पासह एयं रुवसंधि ।
३४. समुप्पेहमाणस्स इक्काययण रयस्स इह विप्यमुक्कस्स, णत्थि मग्गे विरयस्स ।
-त्ति बेमि
प्रायार-सुतं
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द्वितीय उद्देशक
२२. कुछ लोग लोक में अहिंसाजीवी हैं । वे इन [विषयों] में [अनासक्तिवश ] ही अहिंसाजीवी है ।
२३. जो इस विग्रहमान वर्तमान क्षरण का अन्वेषी है, वह इस [ संसार से ] उपरत होकर उन [विषयों ] को झुलसाता हुआ, 'यह संधि है' ऐसा देखे ।
२४. यह मार्ग प्रार्य पुरुषों द्वारा प्रवेदित है ।
२५. उत्थित पुरुप प्रमाद न करे ।
२६. प्रत्येक प्राणी के दुःख और सुख को जानकर [ श्रप्रमत्त वने । ]
२७. इस संसार में मनुष्य पृथक-पृथक इच्छा वाले, पृथक-पृथक दुःख वाले प्रवेदित हैं ।
२८. वह [ मुनि ] हिंसा न करते हुए अनर्गल न बोलते हुए, स्पर्शो से स्पृष्ट होने पर सहन करे ।
२९. यह समिति - पर्याय ( श्रमण - धर्म ) व्याख्यात है ।
३०. जो पापकर्मों में असक्त हैं वे कदाचित् प्रातंक / परीपह का स्पर्श करते हैं । ३१. यह महावीर ने कहा है कि वे स्पर्शो से स्पृष्ट होने पर सहन करे ।
३२. वह [ आतंक ]] पहले भी था, पश्चात् भी रहेगा ।
३३. तुम इस रूपसंधि / शरीर के भंगुर-धर्म, विध्वंसन-धर्म, ध्रुव, अनित्य, अशाश्वत, उपचय- अपचय और विपरिणाम- धर्म को देखो ।
३४. [ शरीर- धर्मे] संप्रेक्षक, एक ग्रायतन [आत्मा] में रत, विप्रमुक्त / अनासक्त विरत पुरुष के लिए कोई मार्ग / उपदेश नहीं है ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
लोकसार
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३५. श्रावंती केयावती लोगसि परिगहावंती । से अप्पं वा, बहुं वा, अणुवा,
थूलं वा, चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा, एएसु चेव परिगहावंती।
३६. एयमेव एगेसि महन्भयं भवइ ।
३७. लोगवित्तं च णं उदेहाए ।
३८. एए संगे अवियाणनो से सुपतिवद्धं सूवणीयं ति गच्चा, पुरिसा परमचक्लू
विपरक्कमा ।
३६. एएसु चेव बंभचेरं।
-त्ति वेमि।
४०. से सुयं च मे अज्झत्थियं च मे बंध-पोक्खो तुझ अज्झत्येव ।
४१. एत्य विरए अणगारे, दोहरायं तितिक्खए ।
पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए ।
४२. एवं मोणं सम्म अणुवासिज्जासि ।
तिइप्रो उद्देसों
४३. सावंती केयावंती लोयंसि अपरिंगहांयंती, एएसु चैव अपरिग्गहावंती ।
४४. सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं णिसामिया।
१३२
श्रीयांर-सुत्त
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३५. कुछ मनुष्य इस लोक में परिग्रही हैं। वे अल्प या बहुत, अणु या स्थूल,
सचित्त या अचित्त [वस्तु का परिग्रहण करते हैं। वे इनमें ही परिग्रही हैं।
३६. यह [परिग्रह] कुछ लोगों के लिए महाभयकारक होता है ।
३७. लोक-वृत्त की उपेक्षा करे।
३८. इस संग/बन्धन को न जानने से ही वह सुप्रतिबद्ध और सूपनीत/आसक्त है।
यह जानकर परम चक्षुष्मान् पुरुप पराक्रम करे ।
यह
३६. इन [ अपरिग्रही साधकों ] में ही ब्रह्मचर्य होता है।
___-ऐसा मैं कहता हूँ। ४०. मैंने सुना है, मैने अध्ययन/अनुभव किया है - बन्ध और मोक्ष हमारी
आत्मा में ही है।
४१. यहाँ विरत अनगार आजीवन तितिक्षा करे । देख! प्रमत्त वाह्य है। अप्रमत्त
होकर परिजजन कर।
४२. इस मौन (ज्ञान) में सम्यग् वास कर ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
तृतीय उद्देशक
४३. कुछ लोग इस लोक में अपरिग्रही हैं । वे इन [वस्तुओं] में ही अपरिग्रही
४४. मेधावी-पुरुप पण्डितों के वचन को सुनकर ग्रहण करे।
लोकसार
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४५. सनियाए घन्मे, पारिएहि पवेइए ।
४६. नहेत्य नए संघो कोसिए, एवमप्यत्य संधी दुग्नोसिए भवइ, तम्हा वेनि
पो पिहज्ज वीरियं ।
४७. जे पुढाई, गो पच्छा-णिवाई।
जे पुखुट्टाई. पच्छा-णिवाई। __ जे पो पुस्खुट्टाई, गो पच्छा-णिवाई।
४८. सेवि तारिसिए सिया, ने परिणाय लोगमणेत्तयति ।
४६. एवं णियाय मुपिणा पदेइयं-इह आणाखो पंडिए अपिहे, पुवावररायं
जयमाणे, सया तीलं संपेहाए, सुणिया भवे अकामे अमझे।
५०. इमेण व जुन्नाहि, कि ते जुझण बन्यो
?
५१. जुदाहिं खलु दुल्लहं।
५२. जहेत्य कुत्तहिं परिग्णा-विवेगे नालिए ।
५३. चुए हु बाले गन्नाइसु रज्जइ ।
५४. अस्ति चेयं पबच्चई, स्वंसि वा छति वा ।
५५. ते हु एगे संविद्धपहे मुणी, अण्णहा लोगमुवेहमाणे ।
५६. इय कम्मं परिणाय, सव्वती से ण हितइ । संजमई पो पगन्नइ ।
'
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पायांर-सुतं
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४५. प्रार्य पुरुषों ने समता में धर्म कहा है ।
४६. जैसा यहाँ मैने सन्धि/परिग्रहकर्म-सन्धि को झुलसाया है, इस प्रकार अन्यत्र
सन्धि को झुलसाना दुष्कर होता है । इसलिए मैं कहता हूँ, शक्ति का निगृहन/गोपन मत करो।
४७. जो/कोई पहले उठता है, पश्चात् पतित नहीं होता है । जो कोई पहले
उठता है, पश्चात् पतित होता है । जो, कोई न पहले उठता है, न पश्चात् पतित होता है।
४८. जो परित्याग करके लोक का आश्रय लेते हैं, वे वैसे ही [ गृहवासी जैसे ]
हो जाते हैं।
४६. यह जानकर मुनि (भगवान) ने कहा- इस [ अर्हन-शासन ] में प्राजा
कांक्षी अनासक्त पण्डित-पुरुप रात्रि के प्रथम एवं अन्तिमयाम में यतनाशील बने । सदाशील की सम्प्रेक्षा करे । [तत्त्व सुनकर अकाम और अक्रुद्ध बने ।
५०. इससे (स्वयं से) ही युद्ध कर । वाह्य युद्ध से तुम्हारा क्या प्रयोजन है ?
५१. युद्ध के योग्य होना निश्चय ही दुर्लभ है ।
५२. यथार्थतः कुशल-पुरुप (भगवान) ने [युद्ध-प्रसंग] में परिज्ञा और विवेक
का प्ररूपण किया है।
५३. पथ-च्युत हुए वाल/अज्ञानी-पुरुप गर्भ में ही रहते हैं ।
५४. इस [ अर्हत्-शासन 1 में कहा जाता है रूप या हिसा में [ प्रासक्त पुरुप पथ
च्युत हो जाता है ।]
५५. वह मुनि ही पथ पर आरूढ़ है, जो लोक को अन्यथा देखता है ।
५६. इस प्रकार कर्म को जानकर वह सर्वशः/सर्वथा हिंसा नहीं करता, संयम
करता है, प्रगल्भता नहीं करता ।
लोकसार
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५७. उवेहमाणो पत्तयं सायं वण्णाएसी णारने कंचणं सव्वलोए ।
५८. एगप्पमुहे विदित्तप्पइण्णे, णिविण्णचारी अरए पयासु ।
५६. से वसुनं सत्व-समण्णागय-पण्णाणेणं अप्पाणेगं अकरणिज्ज पावं कम्म।
६०. तंणो अणेसि ।
६१. जं सम्मति पासहा, तं मोणंति पासहा ।
जं मोणंति पासहा, तं सम्मति पासहा ।
६२. ण इमं सक्कं सिढिलेहिं अद्दिज्जमाणेहिं गुणासाहि वंकसमायारेहि पमतेहि
गारमावसंतेहि।
६३. मुणी मोणं समायाए, धुणे कम्म-सरीरगं ।
६४. पंतं लूहं सेवंति, वीरा समत्तदंसिणो।
६५. एस श्रोहंतरे मुणी, तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए ।
-त्ति देमि
चउत्थो उदेसो
६६. गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स दुज्जायं दुप्परयकंतं भवइ अवियत्तस्स भिक्खुणो।
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आयार-सुत्तं
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५७. प्रत्येक प्राणी की शाता को देखते हुए वर्णामिलापी होकर सर्वलोक में
किंचित भी हिंसा न करे।
५८. एक आत्मा की ओर अभिमुख रहे, विरोधी दिशाओं को पार करे,
निविण्णचारी/विरक्त रहे, प्रजा में अरत बने ।
५६. उस सम्बुद्ध-पुरुप के लिए प्रज्ञा से पाप-कर्म अकरणीय है।
६०. उसका अन्वेपण न करे ।
६१. जो सम्यक्त्व देखता है, वह मौन/मुनित्व देखता है, जो मौन/मुनित्व देखता
है, वह सम्यक्त्व देखता है।
६२. शिथिल, आर्द्र, गुणास्वादी/विपयासक्त, वक्रसमाचारी/मायावी, प्रमत्त,
गृहवासी के लिए यह शक्य नहीं ।
६३. मुनि मौन स्वीकार कर कर्म-शरीर को धुने ।
६४. समत्वदर्शी वीर प्रान्त (नीरस) और लूखा/क्ष [ भोजन ] का सेवन
करते हैं।
६५. इस [ संसार-] प्रवाह को तरने वाला मुनि तीर्ण, मुक्त और विरत कहा कहा जाता है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
चतुर्थ उद्देशक
६६. अव्यक्त/अपरिपक्व भिक्षु ग्रामानुग्राम विहार करने से दुर्यातना सहता है,
दुष्पराक्रम करता है।
लोकसार
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६७. वयसा वि एगे वुइया कुप्पंति माणवा ।
६८. उण्णयमाणे य गरे, महया मोहेण मुज्झइ ।
६६. संवाहा बहवे भुज्जो-मुज्जो दुरइक्कमा अजाणो अपासो।
७०. एयं ते मा होउ।
७१. एयं कुसलस्स दसणं ।
७२. तट्ठिोए तम्मोत्तीए तप्पुरकारे तस्सण्णी तण्णिवेसणे ।
७३. जयंविहारी चित्तणिवाई पंथणिज्झाई पलिबाहिरे ।
७४. पासिय पाणे गच्छेज्जा, से अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे संकुचेमाणे
पसारेमाणे विणियट्टमाणे संपलिमज्जमाणे ।
७५. एगया गुणसमियस्स रोयो कायसंफासं समणुचिष्णा एगइया पाणा
उद्दायति ।
७६. इहलोग-वेयण-वेज्जावडियं ।
७७. जं आउट्टिकयं कम्म, तं परिण्णाय विवेगमे ।
७८. एवं से अप्पमाएणं, विवेगं किट्टइ वेयवी !
७६. से पभूयदंसी पभूयपरिणाणे उवसंते समिए सहिए सयाजए, दर्बु
विप्पडिवेएइ अप्पाणं
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प्रायार-सुतं
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६७. किसी की व्यक्त वाणी से भी मनुष्य कुपित हो जाते हैं ।
६८. उन्नतमान होने पर मनुष्य महान् मोह से मूढ़ हो जाता है ।
६६. अज्ञान और प्रदर्शन के कारण पुनः-पुनः आने वाली वहुत-सी वाघानों का
अतिक्रमण करना दुप्कर है।।
७०. तुम ऐसे मत बनो।
७१. यह कुशल-पुरुप (महावीर) का दर्शन है ।
७२. उस (महावीर-दर्शन) में दृष्टि कर, उसे प्रमुख मान, उसका ज्ञान कर
उसी में वास करे।
७३. यतना/संयमपूर्वक विहार करने वाला मुनि चित्त लगाकर पथ पर ध्यान से
चले।
७४. वे पाते हुए, लौटते हुए, संकुचित होते, फैलते हुए, ठहरे हुए, धूलि में
लिपटते हुए प्राणियों को देखकर चले ।
७५. कभी क्रिया करते हुए गुणसमित मुनि की देह का स्पर्श पाकर कुछ प्राणी
उत्पीड़ित/मृत हो जाते हैं।
७६. इससे लोक में वेदन-वेद/वेदनीय कर्म का वन्ध होता है।
७७. प्राकुट्टिकृत/प्रवृत्तिमूलक जो कर्म हैं, उन्हें जानकर विवेक/क्षय करो।
७८, उस [ कर्म ] का अप्रमाद से विवेक/क्षय होता है, ऐसा वेदविद् [ महावीर]
ने कहा है।
७६. वह विपुलदर्शी, विपुलज्ञानी, उपशान्त, समित/सत्प्रवृत्त, [ रत्नत्रय-]
सहित सदाजयीमुनि [ स्त्रियों को ] देखकर मन में विचार करता है
लोकसार
१३६
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किमेस जणो करिस्सइ ? एस से परमारामो, जात्री लोगम्मि इत्यो ।
८०. मुणिणा हु एवं पवेइयं ।
८१. उत्वा हिज्जमाणे गामधम्मेहि अवि णिव्वलासए, अवि प्रोमोयरियं कुज्जा, अवि उड्नुं ठाणं ठाइज्जा, अवि गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, अवि श्राहारं वोच्छिदेज्जा, अवि चए इत्यीसु मणं ।
८२. पुव्वं दंडा पच्छा फासा, पुव्वं फासा पच्छा दंडा ।
८३. इच्चेए कलहासंगकरा भवंति । पडिलेहाए ग्रागमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए ।
८४. से णो काहिए णो पातणिए णो संपनारणिए णो ममाए णो कयकिरिए वडगुत्ते अन्भप्प-संबुडे परिवज्जए तथा पावं ।
८५. एवं मोणं समणुवा सिज्जासि ।
८६. ते वेमि-तं जहां,
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पंचमो उद्देसो
—त्ति वेमि ।
वि हरए पडिपुणे, समति भोमे चिट्टइ | उवसंतरए सारवखमाणे, ते चिट्ठइ सोयमज्झाए ।
-त्ति बेनि ।
प्रयार-सुत्तं
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यद्यपि इस लोक में जो स्त्रियाँ हैं, वे परम सुख देने वाली हैं, किन्तु वे [ स्त्री- ] जन मेरा क्या करेगी ?
८०. मुनियों के लिए यह प्ररूपित है ।
८१. कभी ग्राम धर्म / वासना से उबाधित होने पर निर्बल भोजन भी करे, नोदरि का भी करे ( कम खाए), ऊर्ध्वस्थान पर भी स्थित होए, ग्रामानुग्राम विहार भी करे, आहार का विच्छेद भी करे, स्त्रियों में मन का त्याग भी करे ।
८२. कभी पहले दंड और पीछे स्पर्श होता है, तो कभी पहले स्पर्श और पीछे दण्ड होता है ।
८३. ये कलह और ग्रासत्तिजनक होते हैं । इन [ काम भोग के परिणामों] को प्रतिलेख कर, जानकर [ प्राचार्य ] इनके अनासेवन की आज्ञा दे । - ऐसा मै कहता हूँ ।
८४. वे न तो [ कामभोगजन्य ] कथा करे, न दृष्टि करे, न प्रसारण करे, न ममत्व करे, न क्रिया करे, वचन - गुप्ति / मौन करे, आत्म-संवरण करे, सदा पाप का परिवर्जन करे ।
८५. इस मौन / ज्ञान में सम्यक् प्रकार से वास कर |
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
पंचम उद्देशक
६. मैं कहता हूँ जैसे कि कोई हृद प्रतिपूर्ण है, समभूमि में स्थित है, उपशान्त, रज/पंक रहित है, सुरक्षित है और स्रोत के मध्य में स्थित है ।
लोकसार
१४१
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८७. से पास सव्वो गुत्ते, पास लोए महेसिणो,
जे य पण्णाणमंता पवुद्धा प्रारंभोवरया ।
८८. सम्ममेयंति पासह ।
८६. कालस्स कंखाए परिव्वयंति ।
-ति वैमि।
६०. विगच्छ-समावण्णेणं अप्पाणेणं णो लभइ समाहि ।
६१. सिया वेगे अणुगच्छंति, असिया वेगे अणुगच्छंति,
अणुगच्छमाहिं अणणुगच्छमाणे कहं ण णिविज्जे ?
६२. तमेव सच्चं णीसंक, जं जिहिं पवेइयं ।
६३. सढिस्स णं समणुण्णस्स संपन्वयमाणस्स-समियंति मण्णमाणस्स एगया
समिया होइ,समियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया होइ, असमियंति मण्णमाणस्स एगया समिया होइ, असमियंति मण्णमाणस्स एगयाअसमिया होइ।
समियंति मण्णमाणस्स समिया वा, असमिया वा, समिया होइ उवेहाए । असमियंति मण्णमाणस्स समिया वा, असमिया वा, असमिया होइ उवेहाए।
६४. उवेहमाणो अणुवेहमाणं वूया-उवेहाहि समियाए ।
१५. इच्चैवं तत्य संधी झौसिनो भवइ ।
६६. उट्ठियस्स व्यिस्स गई समणुपासह ।
६७. एत्थवि बालभाव अप्पाणं गो उवदंसेज्जा ।
१४२
आयरिं-सुतं
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८७. लोक में सर्वत: [मन, वचन और शरीर से ] गुप्त महर्षियों को देख, जो प्रज्ञावान्, प्रबुद्ध और आरम्भ / हिंसा से उपरत है ।
८. देखो, यह सम्यक् है ।
८६. वे काल / मृत्यु की प्राकांक्षा करते हुए परिव्रजन करते हैं ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
६०. विचिकित्सा -समापन्न / शंकाशील श्रात्मा समाधि प्राप्त नहीं कर सकती ।
६१. कुछ पुरुष आश्रित होकर अनुगमन करते हैं, कुछ अनाश्रित होकर अनुगमन करते हैं । श्रनुगामियों के वीच अननुगामी को निर्वेद कैसे नहीं होगा ?
६२ . वही सत्य निःशंक है, जो जिनेश्वरों/तीर्थकरों द्वारा प्ररूपित हैं ।
९३. श्रद्धावान्, समनज्ञ और संप्रव्रज्यमान मुनि सम्यक् मानते हुए कभी सम्यक् होता है, सम्यक् मानते हुए कभी असम्यक् होता है, असम्यक् मानते हुए कभी सम्यक् होता है, असम्यक् मानते हुए कभी असम्यक् होता है । सम्यक् मानते हुए सम्यक् हो या ग्रसम्यक् उत्प्रेक्षा से सम्यक् हो जाता है । असम्यक् मानते हुए सम्यक् हो या असम्यक् उत्प्रेक्षा से असम्यक् हो जाता है।
४. उत्प्रेक्षमान (द्रष्टा / उदासीन ) पुरुप अनुत्प्रेक्षमान पुरुष से कहे --- सम्यक् (सत्य) की उत्प्रेक्षा / विचारणा करो ।
५. इस प्रकार [ सम्यक् सम्यक् / कर्म की ] सन्धि / ग्रन्थि नष्ट होती है ।
६६. उत्थित और स्थित पुरुष की गति को देखो ।
९७. इस / हिंसामूलक बालभाव में स्वयं को उपदर्शित, स्थापित मत करो ।
लोकसार
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६८. तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मण्णसि ।
तमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयध्वंति मण्णसि । तुमंसि नाम सच्चेव जं परियावयन्वंति मण्णसि । तुमंसि नाम सच्चेव जं परिघेतन्वंति मण्णसि । तुमंसि नाम सच्चेव जं उद्दवेयध्वंति मण्णसि ।
६६. अंजू चेय-पडिबुद्ध-जीवी, तम्हा ण हंता ण विघायए ।
१००. अणुसंवेयणमप्पाणेणं, जं हंतव्वं णाभिपत्थए ।
१०१. जे पाया से विण्णाया, जे विण्णाया से पाया ।
१०२. जेण विजाणइ से पाया।
१०३. तं पडुच्च पडिसंखाए ।
१०४. एस पायावाई समियाए-परियाए वियाहिए ।
-ति बेमि ।
छट्टो उद्देसो
१०५. अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे निरुवट्ठाणा । एवं ते मा होउ । एय
कुसलस्स देसणं।
१०६. तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए तप्पुरस्कार तस्सणी तणिवेसणे ।
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प्रायास्सुतं
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१८. वह तू ही है, जिसे तू हंतव्य मानता है।
वह तू ही है, जिसे तू आज्ञापयितव्य मानता है। वह तू ही है, जिसे तू परितापयितव्य मानता है। वह तू ही है, जिसे तू परिग्रहीतव्य मानता है । वह तू ही है, जिसे तू अपद्रावयितव्य (मारने योग्य) मानता है।
६६. [मुनि] ऋजु और प्रतिबुद्धजीवी होता है, इसलिए न हनन करता है, न
विधात ।
१००. स्वयं के द्वारा अनुसंवेदित होने के कारण हनन की प्रार्थना/इच्छा न करे।
१०१. जो आत्मा है, वह विज्ञाता है । जो विज्ञाता है वह आत्मा है ।
१०२. जिसके द्वारा जाना जाता है, वह आत्मा है।
१०३. इसकी प्रतीति से परिसंख्यान/सही अनुमान होता है ।
१०४. यह आत्मवादी सम्यक् पारगामी कहलाता है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
षष्ठ उद्देशक
१०५. कुछ पुरुप अनाज्ञा में उपस्थित होते हैं, कुछ व्यक्ति आज्ञा में निरुपस्थित
होते हैं । यह स्थिति तुम्हारी न हो । यह कुशल पुरुप [ महावीर ] कर दर्शन है।
१०६. उसमें दृष्टि करे, उसमें तन्मय वने उसे प्रमुख बनाये, उसकी, स्मृति करे,
उसमें वास करे।
लोकसार
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१०७. अभिनय प्रदक्खू, अणभिभूए पभू निरालंवणयाए ।
१०८. जे महं अवहिमणे ।
१०६. पवाएणं पवायं जाणेज्जा, सहसम्मइयाए, परवागरणेणं, अण्णांस वा श्रंतिए सोच्चा ।
११०. णिद्देसं णाइवट्टेज्जा मेहावी, सुपडिलेहिया सव्वश्री सव्वष्णा सम्मं समभिण्णाय ।
१११. इहारामो परिण्णाय, अल्लीण-गुत्तो परिव्वए ।
११२. णिट्टियट्ठी वीरे, आगमेण सदा परक्मेज्जासि ।
११३. उड्ढं सोया हे सोया, तिरियं सोया वियाहिया । एए सोया विवखाया, जहि संगइ पासहा ॥
११४. आवट्टं तु पेहाए, एत्थ विरमेज्ज वेयवी ।
११५. विणएत्तु सोयं क्सिम्म, एस महं अम्मा जाणइ, पासइ |
११६. पडिलेहाए णावकखइ, इह श्रागई गई परिष्णाय ।
११७. श्रच्चेइ जाइ-मरणस्स वट्टमग्गं वक्खाय-रए ।
-त्ति बेमि ।
११८. सव्वे सरा णियति, तक्का जत्थ ण विज्जइ, मई तत्थ ण गाहिया ।
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यार-सुतं
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१०७. अभिभूत ही अद्राक्षी ज्ञाता है । अनभिभूत ही निरालम्ब होने में समर्थ है ।
१०८. जो महान् है, वही अवहिर्मन है ।
१०६. पूर्व-जन्म की स्मृति से, सर्वज्ञ के वचनों से अथवा अन्य किसी ज्ञानी के
पास सुनकर प्रवाद (ज्ञान) से प्रवाद (ज्ञान) को जानना चाहिये।
११०. मेधावी सुप्रतिलेख/विचार कर सभी ओर से, सभी प्रकार से भली-भांति
जानकर निर्देश का अतिवर्तन न करे ।
१११. इस परिज्ञात आराम (आत्म-ज्ञान) में अलीन-गुप्त/जितेन्द्रिय होकर
परिव्रजन करे।
११२. नियाग-अ /मोक्षार्थी वीर-पुरुप आगम के अनुसार पराक्रम करे ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
११३. ऊर्ध्व-स्रोत, अघो-स्रोत, तिर्यक-स्रोत प्रतिपादित है। ये स्रोत ग्राख्यात हैं,
जिनके द्वारा संगति/आसक्ति को देखो।
११४. वेदज्ञ ज्ञाता-पुरुप पावर्त की प्रेक्षा करके विरत रहे ।
११५. निष्क्रमित/ प्रवजित मुनि [कर्म/संसार-] स्रोत को रोके । ऐसा महान-पुरुष
ही अकर्म को जानता है, देखता है।
११६. [मुनि] इस परिजात गति-आगति का प्रतिलेख कर आकांक्षा नहीं करता ।
११७. व्याख्यातरत/ज्ञानरत पुरुप जाति-मरण के वृत्त-मार्ग/चक्रमार्ग को पार कर
लेता है।
११८. जहां सभी स्वर निवतित हैं, तकं विद्यमान नहीं हैं, वहाँ बुद्धि का प्रवेश
नहीं हो पाता है।
लोकसार
१४७
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११६. प्रोए अप्पइट्ठाणस्स खेयण्णे ।
१२०. से ण दोहे, ण हस्से, ण वट्टे, ण तंसे, ण चउरंसे, परिमंडले'
१२१. ण किण्हे, ण णोले, ण लोहिए, ण हालिदै, ण सुविकल्ले ।
१२२. ण सुरभिगंधे, ण दुरभिगधे ।
१२३. ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाए, ण अंविले, ण महुरे ।
१२४. ण कक्खडे, ण मउए, ण गमए, ण सीए, ण उण्हे, ण णि
ण लुक्खे ।
१२५. ण काऊ, ण रहे, ण संगे।
१२६. " इत्थी, ण पुरिसे, ण अण्णहा ।
१२७. परिणे सणे।
१२८. उवमा ण विज्जए अरूवी सत्ता ।
१२६. अपयस्स पयं पत्थि ।
१३०. से ण सद्दे, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे । इच्चेव ।
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प्राधार-सुतं
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११६. अप्रतिष्ठान खेदज्ञ ( लोकज्ञाता) के लिए प्रोज ( ज्ञान - प्रकाश ) है |
१२०. वह [ज्ञान-प्रकाश आत्मा]न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्र्यस्त्र / त्रिकोण है, न चतुरस्र / चतुष्कोण है, न परिमण्डल / गोलाकार है ।
१२१. [वह] न कृष्ण है, न नील है, न लोहित है, न पीत है, न शुक्ल है ।
१२२. [ वह ] न सुगन्धित है, दुर्गन्धित ।
१२३ . [ वह ] न तिक्त है, न कटुक है, न कपाय / कसैला है, न अम्ल है, न मधुर है ।
१२४. [वह] न कर्कश है, न मृदु है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न उष्ण है, न स्निग्ध है, न लूखा / रूक्ष है ।
१२५. [ वह ] न काय है, न रुह / पुनर्जन्मा है, न संग है ।
१२६. [ वह ] न स्त्री है, न पुरुष है, न ग्रन्य / नपुंसक है ।
१२७. वह परिज्ञ है, संज्ञ है ।
१२८. [ वह ] उपमा - रहित अरूपी सत्ता है |
१२६. उस अपदस्थ का पद नहीं है ।
१३०. वह न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है, न स्पर्श है
लोकसार
। इतना ही ।
- ऐसा मै कहता हूँ ।
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छठें अज्झयणं
धुयं
षष्ठ अध्ययन
धुत
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पूर्व स्वर
प्रस्तुत अध्याय 'युन/धून' है। यह अध्याय कर्म-मरण का अभियान है। जीवन की उत्पत्ति से लेकर महामुनित्व की प्रतिष्ठा का नारा वृतान्त इसमें आकलित है। चेतना की जागरूकता ही आरोग्य-लान है। कार्मिक परिवेश के माय चेतना की साझेदारी मंत्री विपर्यास है। प्रात्मा एकाकी है. अतः और तो क्या कर्म भी उसके लिए पड़ोती है, घरेलू नहीं। परकोच पदार्थों से स्वयं को अतिरिक्त देखने का नाम ही भेद-विज्ञान है।
कर्मों की खेती कपाय और विषय-वासना के बदौलत होती है। राग और वैप कर्म के बीज हैं। कर्म जन्म-मरण का हलघर है । जन्म-मरण से ही दुःख की तिक्त तुम्बी फलती है। और, दुःख संसार की वास्तविकता है। मुनि-जीवन वीतरागता का अनुमान है । इसलिए यह संसार से दूरी है। ___मनुष्य का मन सदा संसरणशील रहता है। अतः मन की मृत्यु का नाम हो मृनित्व की पहवान है। मन प्रचण्ड ऊर्जा का स्वामी है। यदि इसके व्यक्तित्व का मन्यच्चोध कर इसे नृजनात्मक कार्यों में लगा दिया जाए, तो वह प्रात्नदर्शन/ परमात्म-साक्षात्कार में अनन्य सहायक हो सकता है।
जीवन में मुनित्व एवं गार्हस्थ्य दोनों का अंकुरण सम्भव है । मन की कसौटी पर गृहस्य भी मुनि हो सकता है और मुनि भी गृहस्थ । तन-मन को सत्ता पर आत्म-प्राधिपत्य प्राप्त करना स्वराज्य की उपलब्धि है। कर्म-शबुओं को फोड़ने के लिए अहर्निश सन्नद्ध रहना आत्मशास्ता का दायित्व है।
सत्य की मुखरता प्रात्मा की पवित्रता से है। मन के मौन हो जाने पर ही निःशब्द सत्य निर्विकल्प समाधि अंकृत होती है। अतः वाह्याभ्यन्तर की स्वच्छता वास्तव में कैवल्य का प्रालिंगन है। स्वयं को जगाकर महामुनित्व का महोत्सव आयोजित करना स्वयं में सिद्धत्व की प्राण-प्रतिष्ठा है।
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इस प्रस्तावित स्थिति में प्रवेश करने के लिए अावश्यक है कि साधक को सदा उसे खोजना चाहिये, जो संसार-सरिता के सतत वहाव के बीच में भी स्थिर है। संसार तो नदी-नाव का संयोग है। अत: निस्संग-साधक के लिए संग उसी का उपादेय है, जिसे मृत्यु न चूम सके । संसार से महाभिनिष्क्रमरण/महातिक्रमण करने वाला सिद्धों की ज्योति विकसित कर सकता है ।
अभिनिष्क्रमण वैराग्य की अभिव्यक्ति है । वैराग्य राग का विलोम नहीं, अपितु राग से मुक्ति है। वैराग्य-पथ पर कदम वर्धमान होने के बाद संसार का आकर्पण दमित राग का प्रकटन है। यदि संसार के राग-पापारणों पर वैराग्य की सतत जल धार गिरती रहे तो कठोर से कठोर चट्टान को भी चकनाचूर किया जा सकता है।
वान्त संमार साधक का प्रतीत है और अतीत का स्मरण मन का उपद्रव है । अपने अस्तित्व में निवास करना ही प्रास्तिकता है। साधक ज्यों-ज्यों सूर्य बन तपेगा, त्यों-त्यों मुक्ति की पंखुरियों के द्वार उद्घाटित होते चले जाएंगे।
साधक का जीवन संघर्ष, अहिंसा एवं सत्यविजय की एक अभिनव याना है । वह शर्बुजयो एवं मृत्युंजयी है। सिद्धाचल के शिखने पर प्रारोहण करते समय चूकने/फिसलने का खतरा सदा साथ रहता है । पथ-च्युति चुनौती है, किन्तु प्रत्येक फिसलन एक शिक्षण है । अप्रमत्तता तथा जागरूकता पथ की चौकशी है । प्रज्ञासंप्रेक्षक और प्रात्म-जागृत पुरुष हर फिसलन के पार है । संयम-यात्रा को कष्टपूर्ण जानकर पथ-तट पर बैठ जाना संकल्प-शैथिल्य है। जागरूकतापूर्वक साधना-मार्ग पर बढ़ते रहना तपश्चर्या है । साधक के लिए सिद्धि ही सर्वोपरि कृत्य है । जीवनऊर्जा को समग्रता के साथ साधना में एकाग्र करने वाले के लिए कदम-कदम पर मंज़िल है।
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पढमो उदेसो
१. प्रोज्झमाणे इह माणवेसु, श्राधाइ से णरे ।
२. जस्स इमाओ जाइम्रो सव्वग्रो सुपडिलेहियाओ भवंति, श्रक्खाइ से णाणमणेलिसं ।
३. से किट्टइ सि समुट्ठियाणं णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पण्णाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं ।
४. एवं एगे महावीरा विप्परक्कमंति ।
५. पासह एगे अवसीयमाणे प्रणत्तपणे ।
६. से बेमि-से जहा विकु मे हरए विणिविट्ठचित्ते, पच्छन्न- पलासे, उम्मगं से णो लहइ ।
७. भंजगा इव सन्निवेसं णो चयंति ।
८. एवं एगे - प्रणेगरूवह कुलह जाया, रूवह सत्ता कलणं थणंति, णियाणश्रो ते ण लभंति मोक्खं ।
६. अह पास तेहि - तेहि कुलेहि श्रायत्ताए जाया ।
१०. गंडी अहवा कोढी,
काणियं किमियं चेव,
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रायसी श्रवमारियं । कुणियं खुज्जियं तहा ॥
श्रायार-सु
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प्रथम उदेशक
१.
इस संसार में वही नर है, जो मनुष्योंके वीच बोधिपूर्वक आख्यान करता है ।
२.
३.
४.
५.
६.
७.
5
कुछ पुरुष वृक्ष के समान नियत स्थान को नहीं छोड़ते ।
इस प्रकार कुछ पुरुष अनेक प्रकार के कुलों में उत्पन्न होते हैं, रूपों / विषयों में ग्रासक्त होते हैं, करुण स्तनित / विलाप करते हैं, निदान के कारण वे मोक्ष को प्राप्त नहीं करते ।
अरे देख ! उन-उन कुलों/रूपों में तू बार-वार उत्पन्न हुआ है ।
१०. गण्डी—–— कण्ठरोगी, कोढ़ी, राजंसी / राजरो दमा, अपस्मार - मृगी, कारणा, कूरिणत्व हस्त-पंगुता,
सुन्नता -- लकवा,
कुब्जता - कुवड़ापन,
६.
जिसे वे जातियाँ सभी प्रकार से सुप्रते लेखित हैं, वह श्रनुपम ज्ञान का आख्यान करता है !
धुत
समुपस्थित, निक्षिप्तदण्ड, समाधियुक्त, प्रज्ञावन्त पुरुष के लिए ही इस संसार में मुक्ति-मार्ग प्रकीर्तित है ।
इस प्रकार कुछ महावीर पुरुष विशेष पराक्रम करते हैं ।
अवसाद करते हुए कुछ अनात्मप्रज्ञ पुरुष को देखो ।
वही कहता हूँ जैसे कि पलाश से प्रच्छन्न हृद में कोई विनिविष्ट / एकाग्रचित्त का उन्मार्ग को प्राप्त नहीं करता है ।
१५५
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उरि च पास मूयं च, सूणियं च गिलासिणि । वेवई पीढसप्पि च, सिलिवयं महुमेहणि ॥ सोलस एए रोगा, अक्खाया अणुपुत्वसो । अह णं फुसंति प्रायंका, फासा य असमंजसा. ॥ मरणं तेसि संपेहाए, उववायं चयणं च गच्चा । परिपागं च संपेहाए, तं सुणेह जहा-तहा ॥
११. संति पाणा अंधा तमंसि वियाहिया।
१२. तामेव सई असई अइअच्च उच्चावयफासे पडिसंवेएइ ।
१३. बुद्ध हि एवं पवेइयं ।
१४. संति पाणा वासगा, रसगा, उदए उदयचरा, आगासगामिणो ।
१५. पाणा पाणे किलेसंति ।
१६. पास लोए महन्भयं ।
१७. बहुदुक्खा हु जंतवो।
१८. सत्ता कामेसु माणवा।
१६. अवलेण वहं गच्छंति, सरीरेण पमंगुरेण ।
२०. अट्ट से बहुदुक्खे, इइ बाले कुम्वइ ।
२१. एए रोगे बहू णच्चा, पाउरा परियावए, णालं पास, अले तवेएहि ।
२२. एवं पास मुणी ! महन्भय ।
१५६
मायार-सुत्त
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उदरी - रोग - शूल - रोग, मूकता - गूंगापन, सूजन, भस्मकरोग, कम्पनत्व, पीठसप- पीठ का झुकाव, श्लीपद -- हाथीपगा और मधुमेह । ये सोलह रोग अनुपूर्व से आख्यात है । इसके अतिरिक्त प्रातंक, स्पर्श और असमंजसता का स्पर्श करते हैं । उनके मरण की सम्प्रेक्षा कर उपपात और च्यवन को जानकर तथा परिपाक / कर्मफल को देखकर उसे यथार्थ रूप में सुने ।
११. प्राणी अन्धकार में होने से अन्धे कहे गये हैं ।
१२. वहाँ पर एक बार या अनेक वार जाकर उच्च प्रताप-स्पर्श का प्रतिसंवेदन करता है ।
१३. यह बुद्ध-पुरुपों द्वारा प्रवेदित है ।
१४. प्रारणी वर्षंज, रसज, उदक / जलज, उदकचर प्राकाशगामी हैं ।
१५. प्राणी प्राणियों को क्लेश / कष्ट देते हैं ।
१६. लोक के महाभय को देख ।
१७. जन्तु वहुदुःखी हैं ।
१८. मनुष्य काम में ग्रासक्त हैं ।
१९. अवल भंगुर शरीर के लिए वध करते हैं ।
२०. जो आर्त है, वह वाल/ अज्ञानी बहुत दुःख करता है ।
२१. रोग बहुत है, ऐसा जानकर आतुर मनुष्य परिताप देते हैं। देखो ! समर्थ ही नहीं है । इनसे तुम्हारे लिए कोई प्रयोजन है ।
२२. मुने ! इस महाभय को देख ।
घुत
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२३. णाइवाएज्ज कंचणं ।
२४. श्रयाण भो ! सुस्सूस भो ! धूयवायं पवेयइस्सामि ।
२५. इह खलु प्रत्तत्ताए तेहि ते हि कुलह श्रभिसेएण श्रभिसेएण श्रभिसंभूया, श्रभिसंजाया, श्रभिणिब्बुडा, श्रभिसंबुड्ढा, अभिसंबुद्धा, श्रभिणिक्खंता, अणुपुवेण महामुनी ।
२६. तं परक्कमंतं परिदेवमाणा, मा णे चयाहि इय ते वयंति । छंदोवणीया श्रज्भोववण्ण, प्रक्कंदकारी जणगा रुवंति ||
२७. अतारिसे मुणी, णो श्रीहं तरए, जणगा जेण विप्पजढा ।
२८. सरणं तत्थ णो समेति, कहं णु णाम से तत्थ रमइ ?
२६. एयं गाणं सया समणुवा सिज्जासि ।
बीप्रो उदेसो
३०. श्राउरं लोयमायाए, चइत्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं वसित्ता वंभचेरसि वसु वा प्रणवसु वा जाणित्तु धम्मं श्रहा तहा, श्रहेगे तमचाइ कुसीला ।
३१. वत्थं पडिग्गहं कंवलं पायपुछणं विउसिज्जा ।
-त्ति बेमि !
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आयार-सुतं
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२३. किंचित् भी अतिपात न करे।
२४. हे शिष्य ! समझो, सुनो । मैं धुतवाद प्रवेदित करूंगा।
२५. इस संसार में आत्मभाव से उन-उन कुलों में अभिसिंचन करने से अभिसंभूत
हुए, अभिसंजात हुए, अभिनिविष्ट दुए, अभिसंवृद्ध हुए, अभिसम्बुद्ध हुए, अभिनिष्क्रान्त हुए और अनुपूर्वक महामुनि हुए।
२६. उस पराक्रमी पुरुष को विलाप करते हुए जनक कहते हैं कि तू हमें मत ___ छोड़ । वे छन्दोफ्नीक/सम्मानकर्ता, अभ्युपपन्न/प्रेमासक्त आक्रन्दकारी जनक
रोते हैं।
२७. [जनक कहते हैं--] वह न तो मुनि है, न अोध/प्रवाह को पार कर सकता
है, जो जनक को छोड़ देता है।
२८. मुनि उस [ संसार] की शरण में नहीं जाता। फिर वह कैसे संसार में
रमण कर सकता है ?
२६. इस ज्ञान में सदा वास कर ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
द्वितीय उद्देशक
३०. आतुर लोक को जानकर, पूर्व संयोग को त्याग कर, उपशम को धारण कर,
ब्रह्मचर्य में वास कर, यथातथ्य धर्म को पूर्ण या अपूर्ण रूप में जानकर भी कुशील-पुरुष [चारित्र-धर्म का पालन नहीं कर पाते ।
३१. वे वस्त्र, प्रतिग्रह/उपकरण, कम्बल, पाद-प्रोंछन का विसर्जन कर बैठते हैं ।
धुत
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३२. अणुपुत्वेण अहियासेमाणा परीसहे दुरहियासए ।
३३. कामे ममायमाणस्त इयाणि वा मुहत्ते वा अपरिमाणाए नेए ।
३४. एवं ते अंतराएहि काहिं आकेलिएहि अवितिण्णा चेए।
३५. अहेगे धम्ममायाय प्रायाणपभिई सुपणिहिए चरे, अप्पलीन नाणे दडे ।
३६. सन्वं निद्धि परिण्णाय, एस पणए नहामुगो ।
३७. अनिच्च सदनो संग 'ग महं अत्यत्ति इय एगोहं ।'
३८. अत्ति जयमाणे एत्य विरए अणगारे सव्वनो मुंडे रोयते ।
३६. जे अचेले परिवसिए संचिक्सइ प्रोमोयरियाए. से अक्कुळे व हए व तूचिए
वा पलियं पकत्य अदुवा पकत्य अतहिं सह-पासेहि, इय संखाए, एगयरे अण्णयरे अभिण्णाय, तितिक्खमाणे परिवए।
४०. जे य हिरी. जे य अहिरीमाणा।
४१. चिच्चा सव्वं वितत्तियं, फाते-फासे समियदसणे ।
४२. एए भो ! पगिणा वुत्ता, जे लोगसि अगागमणधम्मिपो ।
४३. प्राणाए मामगं घाम।
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पायार-सुत्त
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३२, क्रमशः दुःसह परीपों को सहन न करते हुए [वे चारित्र छोड़ देते हैं । 1
३३. काम में ममत्ववान होते हुए इसी क्षरण या मूहूर्त भर में अथवा अपरिमित समय में भेद / मृत्यु प्राप्त कर लेते हैं ।
३४. इस प्रकार वे अन्तराय, काम / विपय और अपूर्णता के कारण पार नहीं होते ।
३५. कुछ लोग धर्म को ग्रहरण करके जीवन पर्यन्त सुनिगृहीत और दृढ़ प्रलीन / अनासक्त होकर विचरण करते हैं ।
३६. यह महामुनि सर्व गृद्धता को छोड़कर प्ररगत है ।
३७. सभी प्रकार से संग का त्यागकर सोचे- मेरा कोई नहीं है, मैं अकेला हूँ ।
३८. इस (धर्म) में यत्नशील, विरत, अनगार सर्व प्रकार से मुण्ड होकर विचरण करता है ।
३६. जो अचेलक, पर्यं पित/संयमित और अवमौदर्यपूर्वक संप्रतिष्ठित है, वह अतथ्य/अनर्गल शब्द-स्पर्शो से ग्राॠष्ट, हत, लुंचित, पलित अथवा प्रकथ्य / निन्द्य होने पर विचार कर अनुकूल और प्रतिकूल को जानकर तितिक्षापूर्वक परिव्रजन करे ।
४०. जो हितकर हैं या अहितकर है [ उस पर विचार करे ।]
४१. सर्व विस्रोतों को छोड़कर सम्यग्दर्शनपूर्वक स्वर्ण, जाल को स्पर्शत करेकाटे ।
४२. हे शिष्य ! जो लोक में अनागमधर्मी (पुनरागमन रहित ) हैं, वे नग्न / निर्ग्रन्थ कहे गये हैं ।
४३. मेरा धर्म श्राज्ञा में है ।
धुत
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४४. एस उत्तरवादे इह माणवाणं विपाहिए।
४५. एत्योवरए तं मोसनाणे आयाणिज्जं परिण्णाय, परियाएण विगिचई ।
४६. इह एगेसि एगचरिया होइ ।
४७. तत्यियरा इयरेहि कुलेहि सुद्धे तणाए सव्वेसणाए से मेहाबी परिवए ।
४८. सुन्नि अदुवा दुन्निं अदुवा तत्य नेरवा पाणा पाणे फिलेसंति ।
४६. ते फासे पुट्ठो पीरो अहियासेज्जासि ।
-त्ति बेमि।
बीप्रो उद्देसो
५०. एवं खु मुगी त्रायाणं सया सुक्खायघम्मे विहूयकप्पे णिज्मोसइता जे अवेले
परिवतिए, तस्त गं भिक्खुस्त गो एवं भवइ-परिजुणे मे वत्ये वत्यं जाइस्लामि, मुत्तं जाइलामि, सूई जाइत्तानि, संधिस्तामि, सीविस्तामि, उक्कसिस्तामि, वोक्कसिस्सामि, परिहित्सामि, पाणिस्सामि ।
५१. अदुवा तत्य परक्कमंतं मुज्जो अचेलं तगफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति,
तेउफासा फुसंति, दंसमसगफासा फुसंति ।
५२. एगयरे अण्णयरे विरूवल्वे फासे अयिासेइ अचेले लाघवं आगममाणे तवे
से अभिसमण्णागए भवद ।
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प्रायारसुत्तं
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४४, यह उत्तरवाद/श्रेष्ठ कथन मनुष्यों के लिए व्याख्यायित हैं ।
४५. इसमें लीन पुरुप उस कर्म-वन्ध को नष्ट करता हुआ परिज्ञात आदानीय/
ग्राह्य पर्याय से उसका त्याग करता है ।
४६. इनमें से किसी की एकचर्या होती है ।
४७. इससे इतर मुनि इतर कुलों से शुद्धपणा और सर्वेषणा के द्वारा परिव्रजन
करते हैं, वे मेघावी हैं।
४८. सुरभित या दुरभित अथवा भैरव प्राणी प्राणों को क्लेश देते हैं ।
४६. वे धीर-पुरुष [मुनि] उन स्पर्शो से स्पृष्ट होने पर सहन करे ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
तृतीय उद्देशक
५०. सम्यक् प्रकार से प्रख्यात धर्म-रत विधूत-कल्पी मुनि इस पादान (उपकरण)
को त्याग करके जो अचेलक रहता है, उस भिक्षु के लिए ऐसा नहीं होता हैं- मेरा वस्त्र परिजीर्ण हैं, इसलिए वस्त्र की याचना करूंगा, सूत्र/धागे की याचना करूंगा, सूई की याचना करूंगा, सांधूगा, सीऊंगा, बढ़ाऊँगा, छोटा बनाऊँगा, पहनूंगा, प्रोदूंगा।
५१. अथवा उसमें पराक्रम करते हुए अचेलक तृण-स्पर्श स्पर्श/पीड़ित करते हैं,
शीत-स्पर्श स्पर्श करते हैं, तेज-स्पर्श स्पर्श करते हैं, दंशमशक-स्पर्श स्पर्श
करते हैं। ५२. अचेलक लघुता को प्राप्त करता हुआ एक रूप, अनेक रूपएवं विविध रूपों
के स्पर्शों को सहन करता है । वह तप से अमिसमन्वित होता है।
पुत
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५३. जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमेच्चा सत्वनो सव्वत्ताए सम्मत्तमेव
समभिजाणिज्जा।
५४. एवं तेसि महावीराणं चिररायं पुवाई वासाणि रीयमाणाणं दवियाणं पास
अहियासियं ।
५५. आगयपण्णाणाणं किसा वाहवो भवंति पयणुए य मंससोणिए ।
५६. विस्सेणि कटु परिणाए एस तिणे मुत्ते विरए वियाहिए ।
-त्ति वेमि।
५७. विरयं भिक्खु रीयंत, चिररामोसियं, अरई तत्य किं विधारए ?
५८. संधेमाणे समुटिए ।
५६. जहा से दीवे असंदीणे, एवं से धम्मे आरिय-पएसिए ।
६०. ते अणवकंखमाणा पाणे अणइवाएमाणा दइया महाविणो पंडिया ।
६१. एवं तेसिं भगवनी अणुढाणे जहा से दिया-पोए, एवं ते सिस्सा विया य रामो य अणुपुत्वेण वाइय ।
-त्ति बेमि
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यिार-सुत्तें
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५३. जैसा भगवत्-प्रवेदित है, उसे जानकर सभी प्रकार से, सभी रूप से सम्यक्त्व/
समत्व को ही समझे।
५४. इस प्रकार पूर्व वर्षों में चिर काल तक विचरण करने वाले उन संयमित
महावीरों की सहनशीलता देख ।
५५. प्रज्ञापन्न की वाहुएँ कृश होती हैं और मांस-रक्त प्रतनिक/अल्प होता है ।
५६. परिज्ञात विश्रेणी (राग-द्वेपादि वन्धन) को काटकर यह मुनि तीर्ण, मुक्त एवं विरत कहलाता है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
५७. चिरकाल से संयम में विचरण करने वाले विरत भिक्षु को क्या अरति
विचलित कर पायेगी?
५८. संधिमान/अध्यवसायी समुपस्थित/जागृत है।
५६. जैसे द्वीप असंदीन/अनावृत है, इसी प्रकार वह आर्य-प्रवेदित धर्म है।
६०. वे अनाकांक्षी एवं अनतिपाती/अहिंसक मुनि प्राणियों के प्रति दयाशील,
मेधावी और पंडित हैं।
६१. इस प्रकार वे शिष्य भगवान् के अनुष्ठान में दिन-रात क्रमशः तल्लीन हैं, जिस प्रकार द्विज-पोत/विहग-शिशु ।
----ऐसा मैं कहता हूँ।
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चउत्थो उद्देसो
६२. एवं ते सिस्सा दिया य राम्रो य, अणप्रवेण वाइया तेहि महावीरेहिं पण्णा
णमंतेहि तेसितिए पण्णाणमुवलभ हिच्चा उवसमं फारसियं समाइयंति ।
६३. वसित्ता बंभचेरंसि आणं तं णो त्ति मण्णमाणा ।
६४. अग्घायं तु सोच्चा णिसम्म समणुण्णा जीविसामो एगे णिक्खम्मते ।
६५. असंभवंता विडज्झमाणा, कामेहि गिद्धा अझोववण्णा।
समाहिमाघायमजोसयंता, सत्यारमेव फरसं वदंति ।।
६६. सीलमंता उवसंता, संखाए रीयमाणा, असीला अणुवयमाणा विइया मंदस्स
वालया।
६७. णियट्टमाणा एगे आयार-गोयरमाइर्खति । ६८. गाणभट्ठा दंगलूसिणो णममाणा एगे जीवियं विप्परिणामेंति ।
६६. पुट्ठा वेगे णियति, जीवियस्सेव कारणा।
७०. णिक्खंतं पि तेसि दुण्णिवखंतं भवइ ।
७१. बाल-वयणिज्जा हु ते णरा, पुणो-पुणो जाई पकप्प॑ति ।
७२. अहे संभवंता विद्दायमाणा, अहमंसी विउक्कसे ।
प्रायार-सुत
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चतुर्थ उद्देशक
६२. इस प्रकार उन प्रज्ञापन्न महावीरों के द्वारा रात-दिन क्रमश: शिक्षित हुए
कितने ही शिष्य उनके पास प्रज्ञान/विज्ञान को प्राप्त करके भी उपशम को छोड़कर परुषता का समादर करते हैं ।
६३. ब्रह्मचर्य में वास करके भी उनकी आज्ञा को नहीं मानते।
६४. प्राख्यात को सुनकर, समझकर, समादर कर जीवन-यापन करेंगे, ऐसा
सोचकर कुछ निष्क्रमण करते हैं ।
६५. काम में विदग्ध और आसक्ति-उपपन्न लोग निष्क्रमण-मार्ग पर असंभवित
होते हैं, आख्यात समाधि को प्राप्त न करते हुए शास्ता को ही कठोर कहते हैं।
६६. वे शीलवान् उपशान्त और वोधिपूर्वक विचरण करने वाले मुनियों को
अशील कहते हैं । अज्ञानी की यह दोहरी मूर्खता है।
६७. कुछ निवर्तमान मुनि आचार-गोचर (शुद्धाचरण) का कथन करते है । ६८. कुछ मुनि नत होते हुए भी ज्ञान-भ्रष्ट और दर्शन-भ्रष्ट होने के कारण
जीवन का विपरिणमन करते हैं। ६९. जीवन के कारण से स्पृष्ट होने पर कुछ लोग निवर्तित होते हैं । ७०. निष्क्रान्त होते हुए भी वे दुनिष्क्रान्त हैं।
७१. वे मनुष्य वाल-वचनीय हैं । वे वार-वार जाति/जन्म को प्रकल्पित/प्राप्त
करते हैं।
७२. निम्न होते हुए भी स्वयं को विद्वान मानने वाले अपने अहं को प्रदर्शित
करते हैं।
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७३. उदासीगे फरसं वर्यति ।
७४. पलियं पकथे अदुवा पकथेतह
७५. तं नेहावी जाणिज्जा धम्मं ।
७६. अहम्मट्ठी तुमंस णाम वाले, आरंभट्टी, अणुवयमाने, हणमाणे, धायमाणे, हम यादि समणजाण माणे ।
७७. धीरे धम्मे ।
७८. उदीरिए, उवेहइ णं णाणाए, एस विसण्णे वियद्दे वियाहिए
७९. 'किम्णेण भो ! जर्गेण करिस्तामि' त्ति मण्णमाणे एवं एमे वत्ता, मायरं पिवरं हिच्चा, गायत्रो य परिहं ।
वीरायमाणा समुट्ठाए, अविहिंसा सुव्वया दंता ॥
८०. पस्न दोगे उप्पडए पडिव्यमाणे ।
-त्ति बेनि ।
८१. दसट्टा कायरा जणा लूलगा भवति ।
६२. श्रहमेस तिलोए पावए भवइ ।
८२. से समणी विदर्भते, विनंते पासह |
८४. एगै लमण्णागएहि समाए, णममाणह श्रणमनाणे, विरएहि अविर विहि दविए ।
८५. अभिसमेच्चा पंडिए मेहावी पिट्टियट्ठे वीरे श्रागमेणं तथा परकमेज्जासि ।
= ति बेमि ।
आचार-मुत्ते
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७३. उदासीन-साधक को परुप वचन वोलते हैं ।
७४. पलित/कृत कार्य का कथन करते हैं अथवा अतथ्य का कयन करते हैं ।
७५. मेवावी उस धर्म को जाने ।
७६. तू अधर्मार्थी है, बाल है, प्रारम्भार्थी है, अनुमोदक है, हिंसफ है, घातक है,
हनन करने वाले का समर्थक है ।
७७. धर्म दुष्कर है।
७८. जो प्रतिपादित धर्म की अनाज्ञा से उपेक्षा करता है। वह विपण्ण और वितर्क व्याख्यात है।
-~-ऐसा मै कहता हूँ।
७६, 'अरे ! इस स्वजन का मैं क्या करूंगा-इस प्रकार मानते और कहते हुए
कुछ लोग माता, पिता, ज्ञातिजन और परिग्रह को छोड़कर वीरतापूर्वक समुपस्थित होते हैं, अहिंसके, सुव्रती और दान्त होते है ।
८०. दीन, उत्पतित और पतित लोगों को देख ।
६१. विषय-वशवर्ती कायर-जन लूसक/ विध्वंसक हैं ।
६२. इनमें से कुछ श्लाध्य और पातक हैं ।
५३. उस विभ्रान्त और विभ्रष्ट श्रमण को देखो।
८४. कुछ मुनि समन्वागत या असमन्वागत, नम्रीभूत या अनम्रीभूत, विरत या
अविरत, द्रवित यो अद्रवित हैं ।
८५. यह जानकर पण्डित, मेधावी, निश्चयार्थी वीर-पुरुप सदा आगम के अनुसार पराकम करे।
--ऐसा मैं कहता हूँ।
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पंचमो उद्देसो
८६. से गिहेसु वा गिहतरेसु वा, गामेसु वा गामंतरेसु वा, नगरेसु वा नगरंतरेतु
वा, जणवएसु वा जणवयंतरेसु वा, गामनयरंतरे वा गामजणवयंतरे वा, नगरजणक्यंतरे वा, संतेगइया जणा लूसगा भवंति, अदुवा फासा फुसंति ।
८७. ते फासे, पुट्ठो वीरोहियासए ।
८८. पोए समियदसणे।
८६. दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं, प्राइखे विभए किट्टे
वेयवी।
९०. से उढिएसु वा अणुष्टिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेयए-संति, विरई उवसमं,
णिन्वाणं, सोवियं, अज्जवियं, महवियं, लाघवियं, अणइवत्तियं ।
६१. सव्वेसि पाणाणं सवेसि भूयाणं सन्वेसि जीवाणं सवेसि सत्ताणं अणुबोइ
भिक्खू धम्ममाइक्खेज्जा।
६२. अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे-णो अत्ताणं आसाएज्जा, णो परं
श्रासाएज्जा, णो अण्णाई पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई प्रासाएज्जा।
६३. से अणासायए प्रणासायमाणे वज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं,
जहा से दीवे असंदोणे, एवं से भवइ सरणं महामुणी ।
६४. एवं से उढिए ठियप्पा, अणिहे अचले चले, अवहिल्लेसे परिम्बए ।
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आयार-सुत्तं
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पंचम उद्देशक
८६. वह [मुनि] गृहों में या गृहान्तरों (गृह के समीप) में ग्रामों में या ग्रामान्तरों
में, नगरों में या नगरांन्तरों में, जनपदों में या जनपदान्तरों में, ग्राम-नगरान्तरों (गाँव-नगर के बीच) में या ग्राम-जनपदान्तरों में या नगर-जनपदान्तरों में रहते हैं, तब कुछ लोग त्रास पहुंचाते हैं अथवा वे स्पर्शो को स्पर्श करते हैं।
८७. उन स्पर्शो से स्पृष्ट होने पर वीर-पुरुप अध्यास/सहन करे ।
८८. साधक का भोज सम्यग् दर्शन हैं ।
८६. वेद/लोक की दया जानकर पूर्व, पश्चिम, दक्षिण एवं उत्तर दिशा में
आख्यान करे, कीर्तित करे।
६०. वह सुश्रुपा के लिए उपस्थित या अनुपस्थित होने पर शान्ति, विरति/उपशम,
निर्वाण, शौच, आर्जव, मार्दव लाघव का अनुशासन कहे ।
६१. भिक्षु सब प्राणियों, सब भूतों, सव सत्वों और सब जीवों को धर्म का
उपदेश दे।
६२. विवेकी भिक्षु धर्म का आख्यान करता हुआ न तो अपनी आशातना करे,
न दूसरे की आशातना करे और न ही अन्य प्राणियों, भूतों, जीवों एवं सत्वों की पाशातना करे।
६३. वह आशातना-रहित/जागृत होता हुआ आशातना न करे। वध्यमान
प्राणियों, भूतों, जीवों एवं सत्वों के लिए जैसे असंदीन दीप है, इसी प्रकार वह महामुनि शरणभूत है।
६४. इस प्रकार वह स्थितात्म/स्थितप्रज्ञ उत्थित होकर अस्नेह, अचल, चल एवं
बाह्य से असमीपस्थ होकर परिव्रजन करे।
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५. संक्खाय पेसलं धम्मं, दिट्टिमं परिणित्वडे |
६६. तम्हा संगति पासह |
६७. गंथेहि गढिया णरा, विसण्णा कामवकंता ।
६८. तम्हा लूहाम्रो णो परिवित्तसेज्जा ।
६६. जस्सिमे आरंभा सन्बन सव्वत्ताए सुपरिण्णाया भवंति, जेसिमे लूसिणो णो परिवित्तसंति, सेवंता कोहं च माणं च मायं च लोहं च, एस तुट्टे विuाहिए ।
-त्ति बेमि ।
१००. कायस्स वियाघाए, एस संगामसीसे वियाहिए
१०१. से हु पारंगमे मुणी, श्रविहम्ममाणे फलगावयट्ठि, कालोवणीए कंखेज्ज कालं, जाव सरीरमेउ ।
-त्ति बेमि ।
१७३
श्रायार-सुत
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१५. द्रष्टा-पुरुप विशुद्ध धर्म को जानकर परिनिवृत्त बने । ६६. आसक्ति को देखो।
६७. ग्रन्थियों में गृद्ध एवं विपण्ण/खिन्न नर कामाक्रान्त है ।
६८. अतः स्मता से वित्रस्त न हो।
६६. जिसे आरम्भ/हिंसा सभी प्रकार से सुपरिज्ञात है, जो रूक्षता से परिवित्रस्त
नहीं है, वह क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन कर वन्धन को तोड़े।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
१००. शरीर का व्याघात (कायोत्सर्ग) अन्तरसंग्राम में मुख्य हैं ।
१०१. वही पारगामी मुनि है, जो अविहन्यमान एवं काष्ठफलकवत् अचल है। वह मृत्यु पर्यन्त शरीर-भेद होने तक मृत्यु की आकांक्षा करे ।
-~-ऐसा मैं कहता हूँ।
९७३
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सप्तम अध्याय 'महापरिज्ञा' है । महा-परिज्ञा विशिष्ट प्रज्ञा की परिक्रमा का परिचायक है । यह अध्ययन व्यवछिन्न हो गया है । श्रतः न उसकी प्रस्तुति की जा सकती है, न कोई परिचर्चा । हम अविराम प्रवेश कर रहे हैं अष्टम अध्याय में ।
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अ अभयणं विमोक्खो
अष्टम् अध्ययन
विमोच
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पूर्व स्वर
प्रस्तुत अध्याय 'विमोक्ष' है । विमोक्ष साधना का समग्र निचोड़ है। इसका लक्ष्य साधना का प्रस्थान-केन्द्र है और इसकी प्राप्ति उसका विथाम-केन्द्र ।
विमोक्ष मृत्यु नहीं; मृत्यु-विजय का महोत्सव है। प्रात्मा की नग्नता निर्वस्त्रता, कर्ममुक्तता का नाम ही विमोक्ष है । विमोक्ष की साधना अन्तरात्मा में विशुद्धता/स्वतन्त्रता का प्राध्यात्मिक अनुष्ठान है।
विमोक्ष संसार से छुटकारा है। संसार की गाड़ी राग और द्वेप के दो पहियों के सहारे चलती है । इस गाड़ी से नीचे उतरने का नाम ही विमोक्ष है। विमोक्ष गन्तव्य है । वह वहीं, तभी है, जहाँ जव व्यक्ति संमार की गाड़ी से स्वयं को अलग करता है।
विमोक्ष निष्प्रारणता नहीं, मात्र संसार का निरोध है । संसार में गति तो है, किन्तु प्रगति नहीं । युग युगान्तर के प्रतीत हो जाने पर भी उसकी यात्रा कोल्हु के वैल को ज्यों बनी रहती है । भिक्षु/साधक वह है, जिसका संसार की यात्रा से मन फट चुका है, विमोक्ष में ही जिसका चित्त टिक चुका है। संन्यास संसार से अभिनिष्क्रमरण है और विमोक्ष के राजमार्ग पर आगमन है।
संसार साधक का प्रतीत है और विमोक्ष भविष्य । उसके वर्धमान होते कदम उसका वर्तमान है। वर्तमान की नींव पर ही भविष्य का महल टिकाऊ होता है। यदि नींव में ही गिरावट की सम्भावनाएं होंगी, तो महल अपना अस्तित्व कैसे रख पायेगा ? विमोक्ष साधनात्मक जीवन-महल का स्वर्णिम कंगूरा/ शिखर है । अतः वर्तमान का सम्यक् अनुद्रप्टा एवं विशुद्ध उपभोक्ता ही भविष्य की उज्ज्वलताओं को प्रात्मसात् कर सकता है। प्रगति को ध्यान में रखकर वर्तमान में की जाने वाली गति उजले भविष्य की प्रभावापन्न पहचान है।
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विमोक्ष जीवन की आखिरी मंजिल है। जीवन के हर कदम पर मृत्यु की पदचाप सुनना लक्ष्य के प्रति होने वाली सुस्ती को जड़ से उखाड़ फेंकना है। साधक को प्रात्म-सदन की रखवाली के लिए जगी आँख चौकन्ना रहना चाहिये । अन्तरगृह को सजाने-संवारने के लिए किया जाने वाला थम अपने मोक्षनिष्ठ-व्यक्तित्व को अमृत स्नान कराना है। जीवन की विदाई से पहले अन्तर्यावा में अपनी निखिलता को एकटक लगाए रखना स्वयं के प्रति वफादारी है।
साधना का सत्य वीतराग-विज्ञान है । राग मंमार से जुड़ना है और विगग उससे टूटना। वीतराग स्वयं को शोध-यात्रा है। अपने आपको पूर्णता देना ही वीतराग का परिणाम है। साधक तो मुक्ति अभियान का अभियन्ता है । इसीलिए वह ग्रन्थियों से निर्ग्रन्थ है । ग्रन्थि कथगे है, जिसमें चेतना दुवकी बैठी रहती है । ग्रन्थियों को बनाए/वचाए रखना ही परिग्रह है। प्रस्तुत अध्याय साधनात्मक जीवन के लिए अपरिग्रह को जोरदार पहल करता है ।
विमोक्ष-यात्रा में परिग्रह एक वोझा है। परिग्रह चाहे बाहर का हो या भीतर का, निर्ग्रन्थ के लिए तो वह 'सूर्य-ग्रहण' जैसा है। इसलिए 'ग्रहण' को प्रभावहीन करने के लिए अपरिग्रह की जीवन्तता अपरिहार्य है। पाव, वेश, स्थान अथवा वाह्य जगत् को विमोक्ष की दृष्टि से देखने वाला ही प्रात्म-साक्षात्कार की प्राथमिकता को छू सकता है।
साधक के लिए वस्त्र, पान तो क्या, शरीर भी अपने-आप में एक परिग्रह है। मृत्यु तो जन्मसिद्ध अधिकार है। जीवन की मान्ध्य-वेला में मृत्यू की आहट तो सुनाई देगी ही। मृत्यु किसी प्रकार की छीना-झपटी करे, उससे पहले ही साधक काल-करों में देह-कथरी को खुशी-खुशी सौंप दे । स्वयं को ले जाए सिद्धों की वस्ती में, समाधि की छाँह में, जहाँ महकती हैं जीवन की शाश्वतताएँ। खिसक जाना पड़ता है वहाँ से मृत्यु के तमस् को, अमरत्व के अमृत प्रकाश से पराजित होकर ।
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पढमो उदेसो
१. से बेमि-समणुण्णस्स वा असमणण्णस्स वा असणं वा पाणं वा खाइम वा
साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंवलं वा पायपुछणं वा णो पाएज्जा, णो णिमंतेज्जा, णो कुज्जा वेयावडियं-परं पाढायमाणे ।
-त्ति बेमि।
२. धुवं चेयं जाणेज्जा ।
३. असणं या पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा
पायपुंछणं वा लभियाणो लभिया, भुजियाणो भुजिया, पंथं विउत्ता विउफम्म विभत्तं धम्मं झोसेमाणे सभेमाणे पलेमाणे, पाएज्ज वा णिमंतेज्ज वा, कुज्जा वेयावडियं परं अणाढायमाणे ।
-त्ति वेमि।
४. इहमेगेसि प्राधारगोयरे णो सुणिसते भवइ, ते इह प्रारंभट्ठी अणुवयमाणा
हणमाणा घायमाणा, हणमो यावि सनणंजाणमाणा।
५. अद्या अदिणंनाइयति ।
६. अदुवा वायानो विउंजंति, तं जहा
अस्थि लोए, णत्थि लोए, धुवे लोए, अधुंवे लीए, साइए लोए, श्रणाइए लोए, सपज्जवसिए लोए, अपज्जवसिए लोए, सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा, कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा, साहत्ति वा असाहत्ति वा, सिद्धीति वा प्रसिद्धीत्ति वा, णिरएत्ति बा, अणिरएत्ति वा ।
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पायार-सुतं
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प्रथम उद्देशक
१. मैं वही कहता हूँ-साधक समनुज्ञ या असमनुन को अशन, पान, खाद्य,
स्वाद्य, वस्त्र, प्रतिग्रह पात्र या पादपोछन न दे, न निमन्त्रित करे, न अत्यंत आदरपूर्वक्र वैयावृत्य करे।
-ऐमा मैं कहता हूँ।
२. यह ध्रव है, ऐसा समझो।
३. अशन, पान, ग्याद्य, स्वाच, वरना, पात्र, कम्बल या पादोंछन प्राप्त हों या
न हों, भोजन किया हो या न किया हो, मार्ग को छोड़कर या लाँधकर भिन्न धर्म का पालन करते हुए, लाते हुए या जाते हुए वह दे, निमंत्रित करे और वैयावृत्य करे, तो भी उसे छत्यन्त आदर न दें ।
--ऐसा मैं कहता हूँ।
४. इस संसार में कुछ सावकों को प्राचार-गोचर ज्ञात नहीं है । वे प्रारम्भार्थी,
आरम्भ-समर्थक, हिंसक, घातक अश्वा हनन करने वालों का अनुमोदन करते है।
५. अथवा वे अदत्तादान करते हैं।
६. अथवा वे वादों का प्रतिपादन पारते हैं । जैसे कि--
लोक है, लोक नहीं है, लोक ध्रव है, लोक अध्र व है, लोक सादि हैं, लोक अनादि है, लोक सपर्यवसित है, लोक अपर्यवसित है, लोक सुकृत है या दुप्कृत है; कल्याण है या पाप है; साधु है या असावु है; सिद्धि है या असिद्धि है; नरक है या नरफ नहीं है ।
विमोक्ष
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७. जमिणं विप्पडिवण्णा मामगंधम्म पण्णवेमाणा।
८. एत्यवि जाणह अकम्हा ।
६. एवं तेसि णो सुअक्खाए, णो सुपण्णत्तै घम्मे भवइ ।
१०. से जहेयं भगवया पवेइयं आसुपण्णेण जाणया पासया ।
११. अदुवा गुत्ती वोगोयरस ।
-ति बेमि।
१२. सव्वत्य सम्मयं पावं ।
१३. तमेव उवाइकम्म ।
१४. एस महं विवेगे वियाहिए।
१५. गामे वा अदुवा रणे ? णेव गामे व रणे ।
१६. धम्ममायाणह-वेइयं माहणेण महमया ।
१७. जामा तिण्णि उयाहिया, जेसु इमे प्रारिया संबुज्झमाणा समुटिया !
१८. जे णिव्या पावहि कम्मेहि अणियाणा ते विवाहिया ।
१६. उड्डं अहं तिरिय दिसासु, सवनो सवाति च णं पडियक्क जोहि कम्मर
समारंभव।
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पायार-सुतं
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७. जो इस प्रकार से विप्रतिपन्न / विवाद करते हैं, वे अपने धर्म का निरूपण
करते हैं ।
८. इसे अकारक समझें ।
६. उनका धर्म न सुग्राख्यात होता है और न सुनिरूपित ।
१०. जैसा कि ज्ञाता द्रष्टा आशुप्रज भगवान् महावीर के द्वारा प्रतिपादित है ।
११. वचन के विषय का गोपन करे ।
१२. लोक सर्वत्र पाप सम्मत है ।
१३. उसका प्रतिक्रमरण करे ।
१४. यह महान् विवेक व्याख्यात है 1
१५. विवेक गाँव में होता है या अरण्य में? वह न गाँव में होता है, न अरण्य में ।
मतिमान् महावीर द्वारा धर्म को समझो !
१७. तीन साधन कहे गये हैं, जिनमें ये श्रार्य पुरुष सम्बुद्ध होते हुए समुपस्थित होते हैं ।
१६.
१८. जो पाप कर्मो से निवृत्त हैं, वे श्रनिदान कहलाते हैं ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
१९. ऊर्ध्वं श्रघो और तिर्यक् दिशाओं विदिशाओं में सब प्रकार से प्रत्येक जीव के प्रति कर्म समारम्भ किया जाता है ।
घुत
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२०. तं परिणाय मेहावी व सयं एएहि कारहिं दंड समारंभज्जा, णेवणेहि
एएहिं काहिं दंडं समारंभावेज्जा, णेवण्णे एएहि काएहिं दंडं समारंभंते वि समणुजाणेज्जा।
२१. जेवण्णे एएहिं काएहिं दंडं समारंभंति, तेसि पि वयं लज्जामो।
२२. तं परिण्णाय मेहावी तं वा दंड, अण्णं वा दंडं, णो दंडभी दंडं समा. रंभेज्जासि ।
-ति वेमि।
बीओ उद्देसो
२३. से भिक्खू परक्कमेज्ज बा, चिढ़ेज्ज वा, णिसीएज्ज वा, तुयटेज्ज वा,
सुसाणंसि वा, सुण्णगारंसि वा, गिरिगुहंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, कुभाराययणंसि वा, हुरत्था वा कहिं चि विहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्तु गाहावई वूया-पाउसंतो समणा ! अहं खलु तव अट्टाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायछणं वा पाणाई भूयाई जीबाई सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसट्ठ अभिहडं पाहट्ट चेएमि, पावसह वा समुस्सिणोमि, से मुंजह वसह पाउसंतो समणा!
२४. भिक्खू तं गाहात्रई समणसं सवयस पडियाइखे-पाउसतो गाहावई ! णो
खलु ते वयणं पाढामि, णो खलु ते वयणं परिजाणामि, जो तुमं मम अटाए असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुछणं वा पाणाई भूयाई जीवाइं सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अध्छेज्ज अणिसठ्ठ अभिहर्ड प्राहट चेएसि, प्रविसहं वा समुस्सिणासि, से विरो पाउसो गाहावई ! एयस्स प्रकरणयाए।
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आयार-सुतं
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२०. मेधावी उसे जानकर जीव-कायों के प्रति न. स्वयं दाड का प्रयोग करे, न
दूसरों से इन जीव-कायों के लिए दण्ड प्रयोग करवाए और न जीव-कायों के लिए दण्ड प्रयोग करने वालों का अनुमोदन करे ।
२१. जो इन जीव-कायों के प्रति दण्ड समारम्भ करते हैं, उनके प्रति भी हम
लज्जित/करुणाशील हैं।
२२. मेघावी उसे जानकर दण्ड देने वाले के प्रति उस दण्ड का या अन्य दण्ड का प्रयोग न करे ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
द्वितीय उद्देशक
२३. वह भिक्षु श्मशान, शून्यागार, गिरि-गुफा, वृक्ष-मूल या कुम्हार-पायतन में
पराक्रम करता हो, स्थित हो, बैठा हो या सोया हो, वहाँ कहीं पर विचरण करते समय उस भिक्षु के समीप आकर गाथापति/गृहपति कहता हैपायुप्यमान श्रमण ! मैं प्राणियों, भूतों जीवों और सत्त्वों का समारम्भ कर आपके समुद्देश्य से अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, प्रतिग्रह/पात्र, कम्बल या पादपोंछन क्रय कर, उधार लेकर, छीन कर पानाहीन होकर आपके समीप लाता हूँ, आवास गृह बनवाता हूँ। हे आयुष्मान् श्रमण ! उसको भोगें और रहें।
२४. भिक्षु उस समनस्वी गाथापति को कहे -- आयुप्मान् गाथागति ! वास्तव
मैं तुम्हारे वचनों को जानता हूँ, जो तुम प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का समारम्भ कर मेरे समुद्देश्य से अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, प्रतिग्रह, कम्बल या पाद-प्रोंछन क्रय कर, उवार लेकर, छीनकर, श्राज्ञाहीन होकर मेरे समीप लाते हो, आवास-गृह वनवाते हो। हे आयुप्मान गाथापति ! यह अकरणीय है । इसलिए मैं इनसे विरत हूँ।
विमोक्ष
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२५. से भिक्ख परक्कमेज्ज वा, चिटेज्ज वा, णिसीएज्ज वा, तुटैज वा,
सुसाणंसि वा, सुण्णागारंसि वा, गिरिगुहंसि वा, रुक्खमूलसि वा, कुंभारायतणंसि वा, हुरत्या वा, कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्त गाहावई आयगयाए पेहाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंवलं वा पायपुंछणं वा पाणाई भूयाइं जीवाइं सत्ताई समारम्भ समुहिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अभिहडं पाहट्ट चेएइ, पावसहं वा वा समुस्सिणाइ, तं भिक्ख परिघासेउं ।
२६. तं च भिक्खू जाणेज्जा-सहसम्मइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसि वा अंतिए
सोच्चा अयं खलु गाहावई मम अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुछणं वा पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसळं अभिहडं आहटु चेएइ, पावसहं वा समुस्सिणाइ, तं च भिक्खू पडिलेहाए पागमेत्ता आणवेज्जा प्रणासेवणाए।
-ति बेमि।
२७. भिक्खुच खलु पुट्टा वा अपुटा वा जे इमे प्राहच्च गंथा वा फुसंति । से
हंता! हणह, खणह, छिदह, दहह, पयह, पालुपह, विलुपह, सहसाकारेह, विप्परामुसह । ते फासे धीरो पुट्ठो अहियासए अदुवा पायार-गोयरमाइक्खे तकिया णमणेलिसं । अणपुवेण सम्म पडिलेहाए पायगुत्ते अदुवा गुत्ती वयोगोयरस्स।
२८. बुहिं एवं पवेइय
से समणुण्णे असमणुण्णस्स असणं वा पार्ण वा खाइम वा साइम वां वत्थ वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायछणं वा नो पाएज्जा, नो निर्मतेज्जा, नो कुज्जा वेयांवडियं परं पाढायमाणे।
--ति बेमि।
२९. धम्ममायाणह, पवेय माहौँण मईमया ।
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श्रायार-सुस
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२५. वह भिक्षु श्मशान, शून्यागार, गिरि-गुफा, वृक्ष-मूल या कुम्हार आयतन में
पराक्रम करता हो, स्थित हो, बैठा हो या सोया हो, वहाँ कहीं विचरण करते समय उस भिक्षु के समीप श्राकर गाथापति आत्मगत प्रेक्षा से प्राणियों, भूतों जीवों और सत्त्वों का समारम्भ कर उद्देश्यपूर्वक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, प्रतिग्रह, कम्बल या पादपोंछन क्रय कर, उधार लेकर, छीनकर, आज्ञाहीन होकर देना चाहता है, आवास-गृह बनवाना जाहता है । यह सब वह भिक्षु के निमित्त करता है।
२६. अपनी सम्मति से, अन्य वार्तालाप से या अन्य से सुनकर उस भिक्षु को
ज्ञात हो जाता है कि यह गाथापति मेरे लिए प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का समारम्भ कर उद्देश्यपूर्वक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, प्रतिग्रह, कम्बल या पानोंछन क्रय कर, उधार लेकर, छीनकर याज्ञाहीन होकर देना चाहता है, आवास-गृह बनवाता है । उसका प्रतिलेख कर भिक्षु आगम एवं आज्ञा के अनुसार सेवन न करे।
-~~-ऐसा मै कहता हूँ।
२७. ग्रन्थियों से स्पृप्ट या अस्पृष्ट होने पर भिक्षु को पकड़कर पीड़ित करते हैं ।
वे कहते है मागे, हनो, कूटो, छेदो, जलाओ, पकायो, लूंटो, छीनो काटो, यातना दो। स्पर्शो/कष्टों से स्पृष्ट होने पर धीर-साधक सहन करे । अथवा अन्य रीति से तर्कपूर्वक आचार-गोचर को समझाए । अथवा आत्मगुप्त होकर क्रमशः समभाव का प्रतिलेख कर वचन-गोचर का गोपन करे - मौन रहे।
२८. बुद्ध-पुरुषों के द्वारा ऐसा प्रवेदित है--
समनुज-पुरुप असमनुन-पुरुप को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, प्रतिग्रह, · कम्बल या पादपोंछन प्रदान न करे, निमन्त्रित न करे, विशेष प्रादरपूर्वक वयावृत्य न करे।
_ --ऐसर मैं कहता हूँ।
२६. मतिमान मोहण/ज्ञानी द्वोरो प्रवेदित धर्म को समझो।
विमोक्ष
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३०. समणुण्णे सगणुण्णस्स असणं वा पापं वा खाइमं वा साइमं वा वत्यं वा
पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुछणं दा पाएज्जा, णिमंतेज्जा कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे।
–त्ति वेमि ।
३१. मज्झिमेणं वयसा वि एगे, संवुज्झमाणा समुट्टिया।
३२. सोच्चा मेहाबी वयणं पंडियाणं णिसामिया ।
३३. समियाए धम्मे, पारिएहि पवेइए ।
३४. ते अणवकंखमाणा अणाइवाएमाणा अपरिग्गहमाणा णो परिग्गहावंती
सवावंती च णं लोगंसि ।
३५. णिहाय दंडं पाणेहि, पावं कम्मं अकुवमाणे, एस महं अगथे वियाहिए।
३६. ओए जुइमस्स खेयण्णे उववायं चवणं च णच्चा ।
३७. आहारोवचया देहा, परिसह-पभंगुरा ।
३८. पासह एगे सबिदिएहि परिगिलायमाणेहिं ।
३६.
ओए दयं दयइ।
४०. जे सन्निहाण-सत्यस्स खेयण्णे से भिक्खू कालणे वलणे मायणे खणण्ण
विणयण्णे समयण्णे।
४१. परिग्गहं अममायमाणे कालेणुढाई अपडिण्णे।
४२. दुनो छेत्ता नियाई ।
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आयार-सुत्त
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३०. समनुज्ञ-पुरुप समनुज्ञ-पुरुप को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, प्रतिग्रह,
कम्बल या पादोंदन प्रदान करे, निमन्त्रित करे, विशेष आदरपूर्वक वैयावृत्य करे।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
३१. कुछ पुरुप मध्यम वय में उपस्थित होकर भी सम्वुध्यमान होते हैं ।
३२. मेघावी-पुरुप पण्डितों के निःश्रित वचनों को सुनकर [ प्रवजित होते हैं । ]
३३. आर्य-पुरुपों द्वारा प्रवेदित है कि समता में धर्म है ।
३४. वे अनाकांक्षी, अनतिपाती, अपरिग्रही पुरुष समस्त लोक में परिग्रही
नहीं हैं।
३५. प्राणियों के दण्ड/हिंसा को छोड़कर पाप-कर्म न करने वाला यह मुनि
महान् अग्रन्थ कहलाता है ।
३६. उत्पाद और च्यवन को जानकर द्युतिमान-पुरुप के लिए खेदज्ञता और ओज
३७. शरीर आहार से उपचित होता है और परिपह से प्रभंगुर ।
३८. देखो ! कुछ लोग सर्वेन्द्रियों से परिग्लायमान होते हैं ।
३६. अोज दया देता है।
४०. जो सन्निधान-शस्त्र का खेदज्ञ/ज्ञाता है, वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज,
क्षण, विनयज्ञ एवं समयज्ञ है।
४१. परिग्रह के प्रति ममत्व न करने वाला समय का अनुष्ठाता एवं अप्रतिज्ञ है ।
४२. दोनों-राग और द्वेप को छेदकर विचरण करे ।
विमोक्ष
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४३. तं भिक्खुसीयफास-परिवेवमाण-गायं उवसंकमित्ता गाहावई व्या
'पाउसंतो समणा ! णो खलु ते गामधम्मा उव्वाहंति ?'
'पाउसंतो गाहावई ! णो खलु मम गामधम्मा उच्वाहति । सीयफासं णो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए । णो खलु मे कप्पइ अगणिकायं उज्जालेत्तए वा पज्जालेत्तए वा, कार्य प्रायादेत्तए वा अण्णेसि वा वयणाम्रो ।'
४४. सिया से एवं वदंतस्स परो अगणिकायं उज्जालेत्ता पज्जालेता कार्य
आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा, तं च भिक्खू पडिलेहाए पागमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए।
-त्ति वेमि
चउत्थो उद्देसो
४५. जे भिक्खू तिहिं वत्येहि परिवसिए पाय-चउत्येहि, तस्स णं णो एवं भवइ
चज्त्यं वत्थं जाइस्सामि ।
४६. से अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा अहापरिगहियाई वत्याई धारेज्जा । णो
घोएज्जा, णो रएज्जा, णो घोय-रत्ताई वत्थाई धारेज्जा । अपलिनोवमाणे गामंतरेसु, ओमचेलिए, एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं ।
४७, अह पुण एवं जाणेज्जा-उवाइक्कते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवण्णे, अहापरि
जुण्णाई वत्थाई परिवेज्जा । अदुवा संतस्त्तरे, अटुवा एगसाडे, अदुवा अचेले।
४८. लापदियं आगमणाणे तवे से अभिसमण्णागए भवद ।
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पायार-सुतं
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४३. शीतस्पर्श से प्रकम्पित शरीर वाले उस भिक्षु
समीप जाकर गाथापति बोले --- आयुष्मान् श्रमरण ! क्या तुम्हें ग्राम्य-धर्म (विषय-वासना) वाधित नहीं करते ?
श्रयुष्मान् गाथापति ! मुझे ग्राम्य धर्म वाघित नहीं करते । मैं शीतस्पर्प को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ । श्रग्निकाय को उज्ज्वलित या प्रज्वलित करना अथवा दूसरों के शरीर से अपने शरीर को प्रतापित या प्रतापित करना मेरे लिए कल्पित / उचित नहीं है ।
४४. इस प्रकार भिक्षु के कहने पर भी वह गाथापति अग्नि-काय को उज्ज्वलित या प्रज्वलित कर शरीर को प्रतापित या प्रतापित करे तो भिक्षु आगम एवं आज्ञा के अनुसार प्रतिलेख कर सेवन न करे ।
- ऐसा मैं कहता हूँ |
चतुर्थ उद्देशक
४५. जो भिक्षु तीन वस्त्र और चौथे पात्र की मर्यादा रखता है, उसके लिए ऐसा भाव नहीं होता - चौथे वस्त्र की याचना करूंगा ।
४६. वह यथा एपणीय / ग्राह्य वस्त्रों की याचना करे । यथा परिगृहीत वस्त्रों को धारण करें । न धोए, न रंगे और न धोए रंगे वस्त्रों को धारण करे । ग्रामान्तर होते समय उन्हें न छिपाए, कम धारण करे, यही वस्त्रधारी की सामग्री / उपकरण है ।
४७. भिक्षु यह जाने कि हेमंत बीत गया है, ग्रीष्म आ गया है, तो यथा - परिजीर्ण वस्त्रों को परिष्ठापन / विसर्जन करे या एक कम उत्तरीय रखे या एकशोटक रहे अथवा अचेल / वस्त्ररहित हो जाए ।
४८. लघुता का आगमन होने पर वह तप-समन्नागत होता है 1
हुत
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________________
४६. जमेयं भगवमा परेइयं, तमेव अभिसमेच्छा सदनो सव्वत्ताए सनत्तमेव
समभिजाणिया।
५०. जस्स णं भिनखुदत्त एवं गइ-पुढो खलु अहमंसि, णालमहमंसि सीयफासं
प्रहिया सित्तए, से वहुमं सत्य-सम्ण्णायय-पण्णाणेणं अपाणं केइ अफरण-. याए प्राउट्टे ।
५१. तवस्सिणो हु तं रोयं, जमेगे विहमाइए । तत्थावि तस्स कालपरियार से वि
तत्थ वि अंतिकारए।
५२. इच्चेयं विमोहायतणं हियं, सुह, खमं, मिस्तेसं, आणुगामियं ।
-त्ति बेमि ।
पंचलो उदेसो
५३. जे शिक्खू दोहि पाहि परियुसिए पाबतइएहि, तस्लणं णो एवं भवइ
तइयं वत्पं जास्तलि ।
५४. से हेलपिज्जा सापाई पालापहारिपहियाई वधाई धारेन्जा । णो
धोएज्जा, जो रज्जा, जो पोय-रता थाई धारेज्जा । अपलिओनमाणे गागंपरेतु, भोलिए, एयं षु तस्स भिक्खुस्त ताग्गिय ।
५५, अह पुण एवं जामा -उवाइक्कतें पतु हमले, गिम्हे पटिनण्णे, प्रहापरि
जुग्जाईवस्थामा । अदुवा एपलाडे, अदुमा अचेले ।
५६. लापवियं आगरणाणे तवे से अभिसमण्णागए सवइ ।
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पायार-सुत्तं
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४६. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सव प्रकार से
सम्पूर्ण रूप से समत्व का ही पालन करे ।
५०. जिस भिक्षु को ऐसा प्रतीत हो - मैं स्पृष्ट हूँ। शीत स्पर्श सहन करने में
समर्थ नहीं हूँ। वह वसुमान/संयमी अपनी सर्व समन्वागत प्रज्ञा से प्रावर्त में संलग्न न हो।
५१. तपस्वी के लिए अवशान/समाधि मरण ही श्रेयस्कर है । काल-मृत्यु प्राप्त
होने पर वह भी [कर्म] अन्त करने वाला हो जाता है ।
५२. यही विमोह का आयतन है, हितकर, सुखकर, क्षेमंकर, निःश्रेयस्कर और प्रानुगामिक है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
पंचम उद्देशक
५३. जो भिक्षु दो वस्त्र और तीसरे पात्र की मर्यादा रखता है, उसके लिए ऐसा
भाष नहीं होता-तीसरे वस्त्र की याचना करूंगा।
५४. वह यथा एपणीय वस्त्रों की याचना करे । यथा परिगृहीत वस्त्रों को धारण
करे । न घोए, न रंगे और न घोए-रंगे हुए वस्त्रों को धारण करे । ग्रामान्तर होते समय उन्हें न छिपाए, कम धारण करे, यही वस्त्रधारी की सामग्री है।
५५. भिक्षु यह जाने कि हेमंत बीत गया है, ग्रीष्म आ गया है, तो यथा-परिजीर्ण
वस्त्रों का परिष्ठापन/विसर्जन करे या एक कम उत्तरीय रखे या एकशाटक रहे अथवा अचेल/वस्त्ररहित हो जाए।
५६. लघुता का आगमन होने पर वह तप-समन्नागत होता है ।
विमोक्ष
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५७. जमेयं भगवया पवेदितं, तमेव श्रभिसमेच्चा सव्वश्र सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजिाणिया ।
५८. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ - 'पुट्ठो अबलो ग्रहमंसि, नालमहमंसि गिहंतरसंक्रमणं भिक्खायरिय-गमणाए' । से एवं वदंतस्स परो अभिहडं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ग्राहट्टु दलएज्जा, से पुव्वामेव श्रालोएज्जा 'श्राउसंतो गाहावई ! णो खलु में कप्पइ प्रभिहडे असणे वा पाणे वा खाइमे वा साइमे वा भोत्तए वा, पायए वा, अण्णे वा एयप्पगारे ।'
५६. जस्स णं भिक्खुस्स श्रयं पगप्पे - श्रहं च खलु पडिण्णत्तो श्रपडिण्णत्तेहि, गिलाणो गिलाणेह, श्रभिकख साहम्मिएहि कीरमाणं वेयावडियं साइज्जिस्सामि |
६०. श्रहं वा वि खलु पडिण्णत्तो पडिण्णत्तस्स, गिलाणो गिलाणस्स, श्रभिकंत्र साहम्मिस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए ।
६१. प्राट्टु पइणं श्रणक्खेस्सामि, श्राह च साइज्जिस्सामि, हट्टु पइण्णं प्राणक्खेस्सामि, श्राहडं च णो साइज्जिस्सामि, हट्टु पइण्णं आणक्खेस्सामि, प्राहढं च साइज्जिस्सामि, हट्ट पइणं आणक्खेस्सामि, श्राहडं च णो साइज्जिस्सामि ।
६२. लाघवियं श्रागममाणे तवे से अभिसमण्णागए भवइ ।
६३. जमेयं भगवया पवेदियं, तमेव प्रभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया ।
६४. एवं से हाकिट्टियमेव धम्मं समहिनाणमाणे संते विरए सुसमाहियलेसे ।
६५. तत्थावि तस्स कालपरियाए से तत्थ वि अंतिकारए ।
१९२
श्रायार-सुस
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५७. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से,
सम्पूर्ण रूप से समत्व का ही पालन करे ।
५८. जिस भिक्षु को ऐसा प्रतीत हो - मैं स्पृष्ट हूँ, अवल हूँ। मैं भिक्षाचर्या
गमन के लिए गृहान्तर-संक्रमण में असमर्थ हूँ। ऐसा कहने वाले के लिए कोई गृहस्थ अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य सम्मुख लाकर दे तो वह पूर्व आलोडन कर कहे हे आयुष्मान् गृहपति ! सम्मुख लाया हुआ, अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य या अन्य किसी आहार को खाना-पीना मेरे लिए कल्पित/ ग्राह्य नहीं है।
५६. जिस भिक्षु का यह प्रकल्प/प्रतिज्ञा है- मैं अप्रतिज्ञप्त से प्रतिज्ञप्त हूँ,
अग्लान से ग्लान हूँ, सामिक की अभिकांक्षा करता हुआ वैयावृत्य स्वीकार करूंगा।
६०. मैं भी प्रतिज्ञप्त की अप्रतिज्ञप्त से, ग्लान की अग्लान से सामिक की,
अभिकांक्षा करता हुआ वैयावृत्य करने के लिए प्रयत्न करूंगा।
६१. प्रतिज्ञा लेकर याहार लाऊँगा और लाया हुआ स्वीकार करूंगा।
प्रतिज्ञा लेकर आहार लाऊँगा, किन्तु लाया हुआ स्वीकार नहीं करूंगा। प्रतिज्ञा लेकर आहार नहीं लाऊँगा, किन्तु लाया हुआ स्वीकार करूँगा। प्रतिज्ञा लेकर ग्राहार नहीं लाऊँगा और लाया हुआ स्वीकार नहीं करूंगा।
६२. लघुता का आगमन होने पर वह तप-समन्नागत होता है।
६३. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार
से, सव रूप से समत्व का ही पालन करे।
६४. इस प्रकार वह यथा-कीर्तित धर्म को सम्यक् प्रकार से जानता हुआ शान्त,
विरत एवं सुसमाहित लेश्यवाला बने ।
६५. काल/मृत्यु प्राप्त होने पर वह भी कर्मान्तकारक हो जाता है ।
विमोक्ष
१६३
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________________
६६. इच्चेयं विमोहायतणं हियं, सुहं, खमं, णिस्सेयसं, प्राणुगामियं ।
-त्ति बेमि ।
षष्ठ उदेसो
६७. जे भिक्खू एगेण वत्थेण परिवुसिए पायविईएण, तस्स णो एवं भवई
विइयं वत्यं जाइस्सामि ।
६८. से अहेसणिज्ज वत्थं जाएज्जा प्रहापरिग्गहियं वत्थं धारेज्जा । णो धौएज्जा,
णो रएज्जा, णो धोय-रत्तं वत्थं धारेज्जा । अपलिग्रोवमाणे गामंतरेसु, ओमचेलिए, एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं ।
६६. अह पुण एवं जाणेज्जा-उवाइवक्ते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवण्णे, अहापरि.
जुण्णं वत्थं परिवेज्जा । अदुवा अचेले। ।
७०. लाघक्यिं श्रागमणाणे तवे से अभिसमण्णागए भवइ ।
७१. जमेयं भगवया पवेइयं, तमेव अभिसमेच्चा सम्वनो सव्वत्ताए समत्तमेव
समभिजाणिवा ।
७२. जल्स णं भिक्खुस्स एवं भवई - एगो अहमसि, ण में अस्थि कोइ, ण
याहमति कास्सइ, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा ।
७३. लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णागए भवइ ।
७४. जमेयं भगक्या पवेइयं, तमेव अभिसमेच्चा सम्वनो सम्वत्ताए समत्तमेव
सनभिजाणिया ।
१६४
आयार-सुत
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६६. यही विमोह का आयतन है, हितकर, सुखकर, क्षेमंकर, निःश्रेयस्कर और प्रानुगामिक है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
षष्ठ उद्देशक
६७. जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरे पात्र की मर्यादा रखता है, उसके लिए ऐसा
भाव नहीं होता-दूसरे वस्त्र की याचना करूंगा।
६८.
वह यथा-एपणीय वस्त्रों की याचना करे । यथा-परिगृहीत वस्त्रों को धारण करे । न धोए, न रंगे और न धोए-रंगे हुए वस्त्रों को धारण करे । ग्रामान्तर होते समय उन्हें न छिपाए, कम धारण करे, यही वस्त्रधारी की सामग्री है।
६६. भिक्षु यह जाने कि हेमंत बीत गया है, ग्रीप्म अा गया है, तो यथा-परिजीर्ण
वस्त्रों का परिप्ठापन/विसर्जन करे अथवा अचेल/निवस्त्र हो जाए।
७०. लघुता का आगमन होने पर वह तप-समन्नागत होता है ।
७१. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से,
सम्पूर्ण रूप से समत्व का ही पालन करे ।
७२. जिस भिक्षु को ऐसा प्रतीत होता है - मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है,
मैं भी किसी का नहीं हूँ। इस प्रकार वह भिक्षु आत्मा को.एकाकी समझे।
७३. लघुता का आगमन होने पर वह तप-समन्नागत होता है।
७४. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से
समत्व का ही पालन करे।
विमोक्ष
१६५
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________________
७५. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा
आहारेमाणे णो वामानो हणुयानो दाहिणं हणुयं संचारेज्जा प्रासाएमाणे, दाहिणाओ वा हणुयानो वाम हणुयं णो संचारेज्जा आसाएमाणे, से अणासायमाणे।
७६. लाघवियं प्रागममाणे, तवे से अभिसमण्णागए भवइ ।
७७. जमेयं भगवया पवेइयं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वनो सव्वत्ताए समत्तमेव
समभिजाणिया।
७८. जस्त णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि च खलु अहं इमंसि समए इमं
सरीरगं अणुपुत्वेण परिवहित्तए, से आणपुव्वेणं पाहारं संवटेज्जा, प्राणुपुव्वेणं पाहारं संवद्वेत्ता, कताए पयणुए किच्चा, समाहियच्चे फलगावयट्ठी ।
७६. उट्ठाय भिक्बू अभिनिवडच्चे।
८०. अणुपविसित्ता गामं वा, णगरं वा, खेड वा, कब्बडं वा, मडवं वा, पट्टणं
वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, आसम वा, सण्णिवेसं वा, णिगमं वा, रायहाणि वा, तणाई जाएज्जा, तणाई जाएत्ता, से तमायाए एगगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता अप्पंडे अप्प-पाणे अम्प-बीए अप्प-हरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिग-पणग-ग-मट्टिय-मक्कडासंताणए, पडिलेहिय-पडिलेहिय, पमज्जियपमज्जिय तणाई संथरेज्जा, तणाई संयरेत्ता एत्य वि समए इत्तरियं कुज्जा ।
८१. तं सच्चं सच्चावाई प्रोए तिणे छिण्ण-कहकहे पाईय→ अणाईए चिच्चाण
भेऊरं कायं, संविहणिय विरुघल्वे परिसहोवसग्गे अस्ति विस्सं भइत्ता भैरवमणचिण्णे।
१२. तत्यावि तस्स कालपरियाए से तत्य वि अंतिकारए । १९६ .
आयार-सुतं
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७५. भिक्षु या भिक्षुणी प्रशन, पान, खाद्य या स्वाद्य का आहार करते समय आस्वाद लेते हुए वाएँजबड़े से दाएँ जबड़े में संचार न करे, श्रास्वाद लेते हुए दाएँ जबड़े से बाएं जबड़े में संचार न करे | वे अनास्वादी हों ।
७६. लघुता का श्रागमन होने पर वह तप- समन्नागत होता है ।
७७. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सम्पूर्ण रूप से समत्व का ही पालन करे ।
―
७८. जिस भिक्षु के ऐसा भाव होता है। इस समय इस शरीर को अनुपूर्वक परिवहन करने में ग्लान / असमर्थ हूँ । वह क्रमश: प्रहार का संवर्तन / संक्षेप करे । क्रमश: आहार का संवर्तन कर, कपायों को प्रतनु / कृश कर समावि मैं काष्ठ - फलकवत् निश्चल चने ।
७६. संयम उद्यत भिक्षु प्रमिनिवृत्त बने ।
८०. ग्राम, नगर, खेड़ा, कर्वट / कस्वा, मडम्व / वस्ती, पत्तन, द्रोणमुख / वन्दरगाह, श्राकर /खान, श्राश्रम, सन्निवेश / धर्मशाला, निगम या राजधानी में प्रवेश कर तृण की याचना करे 1 तृण की याचना कर, उसे प्राप्त कर एकान्त में चला जाए । एकान्त में जाकर अण्ड - रहित, प्राणी-रहित, वीज-रहित, हरित-रहित, प्रोस - रहित, उदक- रहित, पतंग, पनक / काई, जलमिश्रित-मिट्टीमकड़ी - जाल से रहित, स्थान को सम्यक् प्रतिलेख कर प्रमार्जित कर तृण का संथार / विछोना करे । तृरण-संस्तार कर उसी समय ' इत्वरिक / समाधिमरण स्वीकार करे ।
८१. यही सत्य है । सत्यवादी, प्रोजस्वी, तीरणे, वक्तव्य - छिन्न / मौनव्रती, प्रतीतार्थ / कृतार्थ, नातीत / वन्धनमुक्त साधक भंगुर शरीर को छोड़कर, विविध प्रकार के परीषहों-उपसर्गो को घुन कर इस सत्य में विश्वास कर के कठोरता का पालन करता है ।
८२. काल / मृत्यु प्राप्त होने पर वह भी कर्मान्त-कारक हो जाता है ।
विमोक्ष
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२३. इच्चेयं विमोहायतणं हियं, सुहं, खम, णिस्तेयतं, अणुगामियं ।
-त्ति वेमि ।
सप्तम उद्देसो
६४. जे भिक्खू अचेले परिसिए, तस्स णं एवं भवइ-चाएमि अहं तणफार्स
अहियातित्तए, सोयफातं अहियासित्तए, तेउफासं अहियासित्तए, दसमसगफासं अहियासित्तए, एगयरे अण्णयरे विरुवस्वे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छायणं चहं णो संचाएमि अहियासित्तए. एवं से कप्पइ कडिवंधणं धारित्तए।
६५. अदुवा तत्थ परकर्मतं मुज्जो अचेलं तणफासा फुर्तति, सीयफासा फुतंति,
तेउपासा फुसंति, दंस-मसगफासा फुसंति, एगयरे अण्णयरे विरूवल्वे फासे अहियासेइ अचेले।
२६. लावियं प्रागममाणे तवे से अभिसरणागए भवइ ।
२७. जमेयं भगवया पवेइयं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वनो सव्वत्ताए समत्तमेट
समभिजाणिया ।
१८. जस्स णं भिक्खुक्त एवं भवई-अहं च खलु अण्णास भिक्जू असणं वा
पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्ट दलहस्सामि, आहां च साइन्जिस्सामि ।
८६. जसणं भिक्झुस्स एवं भवई-अहं च खलु अण्गैति भिक्खूर्ण असणं वा
पाणं वा खाइमं बा साइमं वा माहइटु दलइस्लामि, आहडं च णो साइन्जिस्सामि ।
आवार-सुन्तं
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८३. यही विमोह का श्रायतन है, हितकर, सुखकर क्षेमंकर, निःश्रेयस्कर और ग्रानुगामिक है ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
सप्तम उद्देशक
होता है मैं
८४. जो भिक्षु अचेल रहने की पर्युपासना करता है, उसे ऐसा तृण-स्पर्श / तृरण- पीड़ा का त्याग करता हूँ, सहन करता हूँ, शीत-स्पर्श सहन करता हूँ, तेजस्-स्पर्श सहन करता हूँ, दंश-मसक-स्पर्श सहन करता हूँ, लज्जा प्रतिच्छादन का मैं त्याग नहीं करता हूँ. सहन करता हूँ । इस प्रकार वह कटिवन्धन को धारण करने में समर्थ होता है ।
८५. अथवा पराक्रम करते हुए, अचेल तृण-स्पर्श का स्पर्श करते हैं, शीत- स्पर्श का स्पर्श करते हैं, तेजस्-स्पर्श का स्पर्श करते हैं, दंश - मसक-स्पर्श का स्पर्श करते हैं । अचेल विविध प्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्श सहन करता है ।
1
८६. लघुता का आगमन होने पर वह तप- समन्नागत होता है ।
८७. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सम्पूर्ण रूप से समत्व का ही पालन करे ।
८. जिस भिक्षु के ऐसा भाव होता है
खाद्य या स्वाद्य लाकर दूंगा और लाया हुआ उपभोग करूंगा ।
८६. जिस भिक्षु के ऐसा भाव होता है खाद्य या स्वाद्य लाकर दूँगा
करूंगा ।
विमोक्ष
-
-
मै अन्य भिक्षुत्रों को प्रशन, पान,
मैं अन्य भिक्षुत्रों को प्रशन, पान, और लाया हुआ उपभोग नहीं
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________________
१०. 'जत्स गं भिक्खूस्त एवं नवइ-अहं च खलु अर्गेसि निक्खूणं असणं वा
पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहटु णो दलइत्सामि, प्राहडं च साइन्जितामि ।
६१. जस्स णं निवखुस्त एवं भवइ-अहं च खलु अणेति निक्खूणं असणं वा
पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहटु णो दलइन्सामि, प्राहडं जो साइज्जित्तामि।
६२. अहं च खलु तेण अहाइरित्तेणं अहेसणिज्नेणं अहापरिगहिएणं असणेण वा
पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा अनिल साहम्मिस्त कुज्जा वेयावडियं करणाए।
६३. अहं दावि तेण अहाइरितणं अहेसणिज्जेणं अहापरिगहिएणं असणेण वा पाण दा खाइमेण वा साइमेण वा अनिकख साहम्मिएहि कोरमाणं यावडियं साइज्जितामि ।
६४. लाघवियं आगममाणे, तवे से अभिसमग्णागए भवइ ।
६५. जनेयं भगवया पवेइयं, तमेव अनिसमेच्चा सम्वनो तव्वताए समत्तमेव
समभिजाणिया।
६६. जस्स णं भिक्खुस्त एवं भवइ-ते गिलामि च खलु अहं इमंति समए इमं
सरोरगं अणुपुत्रेण परिवहित्तए, ते आणूसुवेणं आहारं संवझेज्जा, आणुः पुवेणं साहारं संवदेत्ता, कसाए मयणुए फिच्चा, समाहियच्चे फलगावयट्ठी ।
६७. उट्ठाय भिक्खू अभिनिबुडच्चे।
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भायात्सुतं
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१०. जिस भिक्षु के ऐसा भाव होता है - मैं अन्य भिक्षुत्रों को अशन, पान,
खाद्य ,या स्वाद्य लाकर नहीं दूंगा, परन्तु लाया हुआ उपभोग करूंगा।
६१. जिस भिक्षु के ऐसा भाव होता है - मैं अन्य भिक्षुओं को अशन, पान,
खाद्य या स्वाध लाकर न दूंगा और न लाया हुआ उपभोग करूंगा।
६२. मैं यथारिक्त/अवशिष्ट यथा-एपणीय, यथा-परिगृहीत अशन, पान, खाद्य,
स्वाद्य से अभिकांक्षित सावमिक का द्वारा किये जाने वाले वैयावृत्य करूंगा।
६३. मैं भी यथारिक्त, यथा-एपणीय, यथा-परिगृहीत, अशन, पान, खाद्य या
स्वाद्य से अमिकांक्षित सार्मिक द्वारा किये जाने वाले वैयावृत्य को स्वीकार करूंगा।
६४. लघुता का आगमन होने पर वह तप-समन्नागत होता है ।
६५. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से
सम्पूर्ण रूप से समत्व का ही पालन करे।
६६. जिस भिक्षु के ऐसा भाव होता है - मैं इस समय इस शरीर को अनुपूर्वक
परिवहन करने में ग्लान/असमर्थ हूँ। वह क्रमशः आहार का संवर्तन/संक्षेप करे । क्रमश: पाहार का संवर्तन कर, कपायों को प्रतनु/कृश कर समाधि में काष्ठ-फलकवत् निश्चल चने ।
६७. संयम उद्यत भिक्षु अभिनिवृत्त वने ।
विमोक्ष
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६८. श्रणुपविसित्ता गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, कव्बडं वा, मडंबं वा, पट्टणं
वा, दोणसुहं वा, श्रागरं वा, आसमं वा, सष्णिवेसं वा, णिगमं वा, रायहाणि वा, तणाई जाएज्जा, तणाई जाएत्ता, से तमायाए एगगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता प्पंडे अप्प पाणे अप्प-बीए अप्प-हरिए श्रप्पोसे श्रप्पोदए पुत्तिंग पणगदग मट्टिय-मक्कडासंताणए, पडिले हिप - पडिलेहिय, पमज्जियपमज्जिय तणाई संयरेज्जा, तणाई संवरेत्ता एत्थ वि समए कार्य च, जोगं च, इरियं च पच्चवखाएज्जा |
६६. तं सच्चं सच्चावाई श्रोए तिष्णे छिष्ण कहकहे श्राईयट्ठे श्रणाईए चिच्चाण भेकरं कार्य, संविहूणिय विरूपरूवे परिसहोवसग्गे ग्रस्त वित्सं भत्ता भैरवमचिणे ।
१००. तत्थावि तस्स कालपरियाए से तत्थ वि अंतिकारए ।
१०१. इच्चेयं विमोहायतणं हियं, सुहं, खमं, णिस्सेयसं अणुगामियं ।
मो उदेसो
१०२. अणुपुवेणं विमोहाई. जाई धीरा समासज्ज | वसुमंतो मइमंतो, सव्वं गच्चा प्रणेलिसं ॥
१०३. दुविहं पि विइत्ताणं, वुद्धा धम्मस्स पारगा । अणुवीए संसाए, आरंभात्रो तिउदृइ ||
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-त्ति वेमि ।
1
श्रीयार-मु
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१८. ग्राम, नगर, खेड़ा, कर्वट/कस्वा, मडम्ब/बस्ती, पत्तन, द्रोणमुख/बन्दरगाह,
आकर/खान, पाश्रम, सन्निवेश/धर्मशाला, निगम या राजधानी में प्रवेश कर तृण की याचना करे । तृण की याचना कर, उसे प्राप्त कर एकान्त में चला जाए। एकान्त में जाकर अण्ड-रहित, प्राणी-रहित, वीज-रहित, हरित-रहित, प्रोस-रहित, उदक-रहित, पतंग, पनक/काई, जलमिश्रित-मिट्टीमकड़ी-जाल से रहित, स्थान को सम्यक् प्रतिलेख कर प्रमाजित कर तृण का संयार/संस्तार/बिछोना करे । तृण-संस्तार कर उसी समय शरीर योग और ईर्या-पथ/गमनागमन का प्रत्याख्यान करे ।
६६. यही मत्य है । सत्यवादी, प्रोजस्वी, तीर्ण, वक्तव्य-छिन्न/मौनव्रती, अतीतार्य/
कृतार्थ, अनातीत/वन्धनमुक्त साधक भंगुर शरीर को छोड़कर, विविध प्रकार के परीपहों-उपसर्गो को धुन कर इस सत्य में विश्वास कर के कठोरता का पालन करता है।
१००. काल/मृत्यु प्राप्त होने पर वह भी कर्मान्त-कारक हो जाता है ।
१०१. यही विमोह का आयतन है, हितकर, मुखकर, क्षेयंकर, निःश्रेयस्कर और अनुगामिक है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
अष्टम उद्देशक
१०२. जो घोर-पुरुप वसुमान् एवं मतिमान हैं, उन्होंने असाधारण की जानकर ___क्रमशः विमोह को धारण करते हैं ।
१०३. बुद्ध-पुरुप धर्म के पारगामी होते हैं । क्रमशः वाह्य एवं प्रोभ्यन्तर दोनों को
जानकर-समझकर आरम्म/हिंसा से मुक्त होते हैं ।
विमोक्ष
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१०४. कसाए पयणू किच्चा, अप्पाहारो तितिक्खए ।
अह भिक्खू गिलाएज्जा, पाहारस्सेव अंतियं ।
१०५. जीवियं णाभिकखेज्ना, मरणं णोवि पत्थए ।
दुहतोवि ण सज्जेज्जा, जीविए मरणे तहा।।
१०६. मज्भत्थो णिज्जरापेही, समाहिमगुपालए ।
अंतो वहि विऊसिज्ज, अज्झत्थं सुद्धमेसए ।।
१०७. ज किंचवक्कम जाणे, आउखेमस्स अप्पणो।
तस्सेव अंतरद्धाए, खिप्पं सिरखेज्ज पंडिए ।
१०८. गामे वा अदुवा रणे, थंडिलं पडिलेहिया ।
अप्पपाणं तु विण्णाय, तणाई संथरे मुणी ॥
१०६. अणाहारो तुअटेज्जा, पुट्ठो तत्थ हियासए ।
णाइवेलं उवचरे, माणुस्सेहिं वि पुट्टो ।
११०. संसप्पगा य जे पाणा, जे य उड्ढमहोचरा)
भुनंति मंस-सोणियं, ग छणे ण पमन्जए।
१११. पाणा देहं विहिसंति, ठाणाम्रो ण वि उन्भमे ।
आसवेहि विवितेहि, तिप्पमाणेहियासए ।
११२. गंथेहि विवितेहि, प्राउकालस्स पारए ।
पमाहियतरंग चेयं, दवियस्स वियाणो ॥
११३. अयं से अवर धम्मै, णायपुत्तैण साहिए ।
प्रायवज्जं पडीयारं, विजहिज्जा तिहा-तिहा।
१.१४. हरिएसु ण णिवज्जेज्जा, थंडिलं मुणिया सए ।
विउसिज्ज अणाहारो, पुट्ठो तत्यहियासए ॥
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प्राचार-सुत
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१०४. यह भिक्षु कपाय को कृश एवं प्रहार को कम कर तितिक्षा / सहन करे । अन्तकाल में आहार की ग्लानि करे ।
1
१०५. जीवन की अभिकांक्षा न करे और मरण की प्रार्थना न करे । जीवन तथा मरण दोनों को न चाहे ।
www
१०६. मध्यस्थ और निर्जराप्रेक्षी समाधि का अनुपालन करे । अन्तर एवं बाह्य का विसर्जन कर शुद्ध अध्यात्म की एपरणा करे ।
१०७. अपनी आयु की कुशलता का जो कुछ भी उपक्रम है, उसे समझे । पण्डित - पुरुष उसके ही अन्तर मार्ग / आयु-काल में शीघ्र [ समावि - मरण] की शिक्षा ग्रहण करे |
१०८. मुनि ग्राम या अरण्य में प्रारण रहित स्थण्डिल / स्थल को प्रतिलेख कर तथा जानकर तृरण-संस्तार करे ।
१०६. वह ग्रनाहार का प्रवर्तन करे । मनुष्य कृत स्पर्शो से स्पृष्ट होने पर सहन करें | वेला / समय का उल्लंघन न करे ।
११०. ऊर्ध्वचर, अघोचर और संसर्पक प्राणी मांस और रक्त का भोजन करे तो उनका न हनन करे, न निवारण ।
१११. ये प्राणी शरीर का घात करते हैं, इसलिए स्थान न छोड़े । श्रास्रव से अलग हो कर ग्रात्मतृप्त होता हुआ उपसर्गों को सहन करे ।
११२. ग्रन्थियों से विमुक्त होकर आयुकाल का पारगामी होता है । द्रविक भिक्षु के लिए यह अनशन प्रग्राह्य है, ऐसा जानना चाहिये ।
११३. ज्ञातपुत्र द्वारा साधित यही धर्म श्रेष्ठ है । मन, वचन, काया के त्रिविध योग से प्रतिचार / सेवा स्वयं के लिए वर्जनीय है, अत: त्याग दे ।
११४. हरियाली पर निवर्तन / विश्राम न करे, स्थण्डिल / स्थान को जानकर / प्रतिलेख कर सोए | अनाहारी भिक्षु कायोत्सर्ग कर वहाँ स्पर्शो को सहन करे ।
विमोक्ष
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११५. इंदिएहि गिलायंते, समियं साहरे मुणी ।
तहावि से अगरिहे, अचले जे समाहिए।
११६. अभिक्कमे पडिक्कमे, संकुचए पसारए ।
काय-साहारणढाए, एत्थं वावि अचेयणे ।
११७. परक्कमे परिकिलंते, अदुवा चिठे अहायए।
ठाणेण परिकिलंते, णिसिएज्जा य अंतसो।।
११८. प्रासीणे णेलिसं मरणं, इंदियाणि समीरए ।
कोलावासं समासज्ज, वितहं पाउरेसए ।
११६. जो वज्जं समुप्पज्जे, ण तत्थ अवलंवए ।
तो उक्कसे अप्पाणं, सवे फासेहियासए ।
१२०. अयं चायतयरे सिया, जो एवं अणपालए।
सवगाणिरोहेवि, ठाणानो ण वि उन्भमे ।।
१२१. अयं से उत्तमे धम्मे, पुन्वट्ठाणस्स पग्गहे ।
अचिरं पडिलेहित्ता, विहरे चिट्ठ माहणे ॥
१२२. अचित्तं तु समासज्ज, ठावए तत्थ अप्पगं ।
बोसिरे सव्वसो कार्य, ण मे देहे परीसहा ।।
१२३. जावज्जीवं परीसहा, उवसग्गा इय संखया ।
संवुडे देहभेयाए, इय पण्णेहियासए ।
१२४. भेउरेसु ण रज्जेज्जा, कामेसु बहुयरेसु वि ।
इच्छा-लोभ ण सेवेज्जा, धुव वण्णं सपेहिया ॥
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पायार-सुरा
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११५. मुनि इन्द्रियों से ग्लानि करता हुआ समित होकर स्थित रहे । इस प्रकार जो अचल और समाहित है, वह अगा / अनिन्द्य है ।
११६. ग्रभिक्रम, प्रतिक्रम, संकुचन, प्रसारण, शरीर-साधारणीकरण की स्थिति में अचेतन / समाविस्थ रहे ।
११७. परिक्लान्त होने पर पराक्रम करे अथवा यथामुद्रा में स्थित रहे । स्थित रहने से परिक्लान्त होने पर अन्त में बैठ जाए ।
११८. समाधि मरण में आसीन साधक इन्द्रियों का समीकरण करे । कोलावास / पीठासन को वितथ्य समझकर ग्रन्य स्थिति की एपणा करे ।
११६. जिससे वज्र / कठोर भाव उत्पन्न हो, उसका अवलम्बन न लें। उससे अपना उत्कर्ष करे | सभी स्पर्शो को सहन करे ।
१२०. यह [समाधिमरण] उत्तमतर है । जो साधक इस प्रकार अनुपालन करता हैं, वह सम्पूर्ण गात्र के निरोध होने पर भी स्थान से भटकता नहीं है
१२१ पूर्व स्थान का ग्रहण किये रहना ही उत्तम धर्म हैं । श्रचिर / स्थान का प्रतिलेख कर माहन - पुरुष स्थित रहे !
१२२. चित्त को स्वीकार कर स्वयं को वहाँ स्थापित करे । सर्वशः काया का विसर्जन (कायोत्सर्ग) कर दे । परीपह है, किन्तु यह शरीर मेरा नहीं है ।
१२३ परिपह और उपसर्ग जीवन पर्यन्त हैं । यह जानकर संवृत बने । देह-भेद होने पर प्राज्ञ पुरुप सहन करे ।
१२४. विवध प्रकार के क्षणभंगुर काम-भोगों में रंजित न हो । ध्रुव वर्ण (मोक्ष) का संप्रेक्षक इच्छा लोभ का सेवन न करे ।
विमोक्ष
२०७
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१२५. सासरहिं णिमंतेज्जा, दिवं मायं ण सहहे ।
तं पडिवुझ माहणे, सव्वं मं विहूणिया ।
१२६. सम्वद्रुहिं अमुच्छिए, आउकालस्स पारए ।
तितिक्खं परमं णच्चा, विमोहण्णयरं हियं ।।
-ति वेमि।
२०५
प्रायार-सुतं
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१२५. शाश्वत को निमन्त्रित करे। दिव्य माया पर श्रद्धा न करे। माहन-पुरुप
इसे समझे और सभी प्रकार के छल-कपट को छोड़ दे।
१२६. सभी अर्थो/विपयों से अमूछित आयुकाल का पारमामी होता है । तितिक्षा को परम जानकर हितकारी अनन्य विमोह को स्वीकार करे।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
विमोक्ष
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नवमं अज्झयणं उवहारा-सुयं
नवम अध्ययन उपधान-श्रुत
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पूर्व स्वर
प्रस्तृत अध्याय 'उपधान ध्रुत है। यह व्यक्तित्व वेद का ही उपनाम है। सामीप्यपूर्वक सुनने के कारण भी इस अध्याय का यह नामकरण हुआ है।
प्रस्तुत अध्याय म्हावीर के महाजीवन का खुल्ला दस्तावेज है। प्रस्तुत अध्याय का नायक संकल्प-धनी/लौह-पुरुष की संघर्पजयी जीवन-यावा का अनूठा उदाहरण है । महावीर प्रात्म-विजय वनाम लोक-विजय का पर्याय है। वे स्वयं ही प्रमाण हैं अपने परमात्म-स्वरूप के। उनकी भगवत्ता जन्मजात नहीं, अपितु कर्म-जन्य है। उन्होंने खुद से लड़कर ही खुद की भगवता/यशस्विता के मापदण्ड प्रस्तुत किये । संघर्ष के सामने घुटने टेकना उनके प्रात्मयोग में कहाँ था ! उनका कुन्दन तो संघर्ष की ग्रांच में ही निखरा था ।
कुछ लोग जन्म से महान होते हैं तो कुछ महानता प्राप्त कर लेते हैं। महावीर के मामले में ये दोनों ही तथ्य इस कदर गुंथे हुए हैं कि उनका व्यक्तित्व संघर्षों का संगम वनकर उभरा है। उनके जीवन में कदम-कदम पर परीक्षायों। कसौटियों की घड़ियाँ आई, किन्तु वे हर वार सौ टंच खरे उतरे और सफलता उनके सामने सदा नतमस्तक हुई ।
महावीर राजकुमार थे। घर-गृहस्थी के बीच रहते भी उनके मन पर लेप कहाँ था संसार का ! कमल की पंखुड़ियों की तरह ऊपर था उनका सिंहासन जीवन-शासन, दुनियादारी के उथल-पुथल मचाते जल से।
प्रकृति को कलरवता ने महावीर को अपने आँचल में आने के लिए निमंत्रित किया। और उनके वीर-चरा वर्धमान हो गये वीतराग-पगडण्डी पर। उनका महाभिनिष्क्रमण महाति कारण तो सत्य प्राप्ति का जागरूक अभियान था। उनका रोम-रोम प्रयत्नशील बना जीवन के गुह्रतम सत्यों का आविष्कार करने में ।
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महावीर ने स्वयं को शिगु जैसा बना लिया। उनको साधनात्मक जीवनचर्या यद्यपि चैतन्य-विकास के इतिहास में एक नये अध्याय का सूत्रपात थी, किन्तु भोली जनता ने उसे अपनी लोक-संस्कृति के लिए खौफनाक समझा। उन्हें माग, पोटा, दुत्कारा, औंधा लटकाया । जितनी अवहेलना, उपेक्षा, ताड़ना और तर्जना महावीर को भोगनी,झेलनी पड़ी, उसका साम्य कौन कर सकता है। ये सब तो साधन थे विश्व को गहराई से समझने के । आखिर उनका तप रङ्ग लाया । परमज्ञान ने सदा सदा के लिए उनके साथ वासा कर लिया। फिर तो उनकी पगध्वनि भी संसृति के लिए अध्यात्म की झंकृति वन गई।
महावीर तो घवल हिमालय के उत्तुङ्ग शिखर हैं। उनकी अंगुलो थाम कर, चरणों में शोश नमाकर पता नहीं अब तक कितने-कितने लोगों ने स्वयं का सरगम सुना है। वे तो सर्वोदय-तीर्थ हैं। उनके घाट से क्षुद्र भी तिर गए।
महावीर को जीवन-चर्या अस्तित्व को विरलतम घटना है। निष्कम्प, निधूम, चैतन्य-ज्योति ही महावीर का परिचय-पत्र है । ध्यान उनको कुंजी है और जागरूकता/अप्रमत्तता उनका व्यक्तित्व । वे श्रद्धा नहीं, अपितु शोध हैं। श्रद्धा खोजने से पहले मानना है और शोध तथ्य का उघाड़ना है। सत्यद्रष्टा के लिए शोध प्राथमिक होता है और श्रद्धा प्रानुपंगिक । सत्य को तथ्य के माध्यम से उद्घाटित करने के कारण ही वे तथागत हैं और सर्वोदयो नेतृत्व वहन करने की वजह से तीर्थङ्कर हैं। उनको वातें विज्ञान को प्रयोगशालाओं में भी प्रतिष्ठित होती जा रही हैं। महावीर, सचमुच विज्ञान और गणित की विजय के अद्भुत स्मारक हैं।
प्रस्तुत अध्याय महावीर के माधनात्मक जीवन का महज वर्ण विज्ञान है। यहाँ उनका बढ़ा चढ़ाकर वखान नहीं है, अपिनु वास्तविकता का प्रामाणिक छायांकन है । इस अध्याय का अाकाश मुमुक्षा भिक्षु के सामने ज्यों-ज्यों खुलता जाएगा साधना के आदर्श मापदंड उभरते चले पाएंगे। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ उन्हीं को विराट अस्मिता है । संन्यस्त जीवन की ऊँची से ऊँची प्राचार-संहिता का नाम पायार-सुत्तं है, जो सद्विचार को वर्णमाला में सदाचार का प्रवर्तन करता है।
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पढमो उद्देसो
१. अहासुयं वइस्सामि, जहा से समणे भगवं उदाय ।
संखाए तंसि हेमंते, अहुणा पवइए रीयत्था ।।
२. जो चेविमेण वत्थेण, पिहिस्सामि तसि हेमंते । . __ से पारए आवकहाए, एवं खु अणुधम्मियं तस्सः ।।
३. चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाण-जाइया प्रागम्म ।
अभिरुज्झ कायं विहरिसु. प्रारसियाणं तत्थ हिसिसु ।।
४. संवच्छरं साहियं मास, जण रिक्कासि वत्थमं भगवं ।।
अचेलए तो. चाई, तं वोसज्ज वत्यमणगारे ।।
५. अदु पोरिसिं तिरियं भित्ति, चक्खुमासज्ज अंतसो झायद
अह चक्खु-भीया सहिया, तं 'हता हंता' बहवे दिसु ।।
६. सयणेहि विइमिस्सेहि, इत्थीनो तत्थ से परिणाय ।
सागारियं ण. सेवे, इय से सायं पवेसिया झाइ ।।
७. जे के इमे अगारत्था, मीसीभावं पहाय से झाइ ।
पुट्ठो वि गाभिभासिसु, गच्छद गाइवत्तई अंजू ।।
२१४
प्रायार-सुत
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२. [ भगवान् ने संकल्प किया ] उस हेमन्त में इस वस्त्र से शरीर को श्राच्छादित नहीं करूँगा । वे पारगामी जीवन पर्यन्त अनुधार्मिक रहे, यही उनकी विशेषता है ।
३.
४.
५.
प्रथम उद्देशक
जैसा सुना है, वैसा कहूँगा । वे श्रमरण भगवान् महावीर अभिनिष्क्रमण एवं ज्ञान प्राप्त कर हेमन्त में शीघ्र विहार कर गए ।
७.
चार माह से अधिक समय तक बहुत से प्रारणी ग्राकर एवं चढ़कर शरीर पर चलते और उस पर ग्रारूढ़ होकर काट लेते ।
भगवान् ने संवत्सर (एक वर्ष) से अधिक माह तक उस वस्त्र को नहीं छोड़ा। इसके बाद उस वस्त्र को भगवान् ने : नहीं छोड़ा | इसके वाद उस वस्त्र को छोड़कर ग्रनगार महावीर अचेलक एवं त्यागी हो गए ।
अथवा पुरुष प्रमाण/प्रहर - प्रहर तक तिर्यग्भित्ति को चक्षु से देखकर अन्ततः ध्यान-मग्न हो गए । चक्षु से भयभीत वालक उनके लिए 'हंत ! हंत ! ' चिल्लाने लगे ।
६. जनसंकुल स्थानों पर महावीर स्त्रियों को जानकर भी सागारिका / ग्राम्यधर्म का सेवन नहीं करते थे । वे स्वयं में प्रवेश कर ध्यान करते थे ।
जो कोई भी श्रागार उनके सम्पर्क में प्राते, वे ऋजु परिणामी भगवान् उन्हें छोड़कर ध्यान करते थे । पूछे जाने पर अभिभाषण नहीं करते, अपने पथ पर चलते और उसका प्रतिक्रमण नहीं करते ।
उपधानन्त
२१५
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८. णो सुगरमेयमेगेसि, णाभिभासे य अभिवायमाणे । ____ हयपुवो तत्य दहि, लूसियपुटवो अप्पपुण्णेहि ।।
६. फरसाइं दुत्तितिवखाई, अइअच्च मुणी परक्कममाणे ।
आघाय-गट्ट-गीयाई, दंडजुखाई मुट्ठिजुद्धाई॥
१०. गढिए मिहुकहासु, समयंमि गायसुए विसोगे अदक्खू ।
एयाई सो उरालाई, गच्छइ णायपुत्ते असरणयाए ।
११. अविसाहिए दुवे वासे, सीग्रोदं अभोच्चा णिक्खते।
एगत्तगए पिहियच्चे, से अहिण्णायदंसणे संते ।।
१२-१३. पुढवि च पाउकार्य, तेउकायं च वाउकायं च ।
पणगाई वीय-हरियाई, तसकायं च सव्वसो गच्चा ।। एयाइं संति पडिलेहे, चित्तमंताई से अभिण्णाय । परिवज्जिया विहरित्था, डय संखाए से महावीरे ।।
१४. अदु थावरा तसत्ताए, तसा य थावरत्ताए।
अदु सव्वजोणिया सत्ता, कम्मुणा कप्पिया पुढो वाला ।।
१५. भगवं च एवमणेसि, सोवहिए हु लुप्पई बाले ।
कम्मं च सव्वसो णच्चा, तं पडियाइक्खे पावगं भगवं ।।
१६. दुविहं समिच्च मेहावी, किरियमक्खायणेलिसं णाणी ।
प्रायाण-सोयमइवाय-सोयं, जोगं च सव्वसो गच्चा ॥
१७. अइवाइर्य प्रणाउट्टे, सयमणेसि प्रकरणयाए ।
जस्सित्थियो परिण्णाया, सव्वकम्मावहानो से अदक्खू ।।
श्रीयार-सुत्त
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८. भगवान् अभिवादन करने वालों से, पुण्यवानों द्वारा डंडों से पीटे एवं नोंचे
जाने पर भी अभिभापण नहीं करते। यह सभी के लिए सुकर/सुलभ नहीं है।
६. मुनि/महावीर परुप दुःसह वचनों की अवगणना करके पराक्रम. करते हुए
श्राख्यायिका, नाट्य, गीत दण्डयुद्ध और मुष्टियुद्ध नहीं करते।
१०. मिथ-कथा/काम-कथा के समय जातसुत विशोक-द्रप्टा हुए। वे ज्ञातपुत्र इन
उपसर्गो/उपद्रवों को स्मृति में न लाते हुए विचरण करते थे।
११. एकत्वभावी, अकपायी, अभिज्ञान-द्रष्टा एवं शान्त महावीर ने दो वर्ष से
कुछ अधिक समय तक शीतोदक/सचित्त जल का उपभोग न कर निष्क्रमण किया।
१२-१३. पृथ्वीकाय, अप्काय तेजरकाय, वायुकाय, पनक/फफूंदी, वीज, हरित और
असकाय को सर्वस्व जानकर ये सचित हैं, जीव हैं, ऐसा प्रतिलेख कर, जानकर, समझकर वे महावीर प्रारम्भ हिंसा का वर्जन कर विहार करने लगे।
१४. स्थावर या प्रस-योनि में उत्पन्न, स या स्थावर-योनि में उत्पन्न या सर्व
योनिक अस्तित्व वाले अज्ञानी जीव पृथक्-पृथक कर्म से कल्पित हैं।
१५. भगवान् ने माना कि सोपाधिक (परिगृही)अज ही क्लेश पाता है। भगवान्
ने कर्म को सर्वशः जानकर उस पाप का प्रत्याख्यान किया ।
१६. जानी और मेधावी भगवान् ने दोनों की समीक्षा कर और इन्द्रिय-स्रोत,
हिंसा-स्रोत तथा योग (मानसिक वाचिक, कायिक प्रवृत्ति) को सभी प्रकार से जानकर अप्रतिपादित का क्रिया प्रतिपादन किया ।
१७. अतिपातिक एवं अनाकुट्टिक/अहिंसक भगवान् हिंसा को स्वयं तथा दूसरों के
लिए अकरणीय मानते थे। जिसके लिए यह ज्ञात है कि स्त्रियां समस्त कर्मों का आवाहन करने वाली है, वही द्रष्टा है।
उपधान-श्रुत
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१८. ग्रहाकडं ण से सेवे, सव्वसो कम्मुणा य दक्खू 1
जं किंचि पावगं भगवं, तं अकुत्वं वियर्ड भुंजित्था ॥
१६. णो सेवई य परवत्थं, परपाए वि से ण भुंजित्था । परिवज्जियाण श्रमाणं, गच्छइ संखड असरणाए ॥
२०. मायणे असण- पाणस्स, अच्छपि णो पमज्जिया,
२१. अप्पं तिरियं पेहाए, अप्पं बुइएपडिभाणी,
णाणुगिद्ध रसेसु प्रपडिण्णे । णोवि य कंड्यए मुणी गायं ॥
२२. सिसिरंसि श्रद्धपडिवणे, तं वोसिज्ज वत्थमणगारे | पसारितु बाहुं परक्कमे, णो अवलंबियाणं कंधमि ॥
उपेहाए ।
अप्पं पिट्ठश्रो पंथपेही चरे जयमाणे ॥
२३. एस विही अणुक्कंतो, माहणेण बहुसो पडिण्णेणं,
२५. श्रावसण-सभा-पवासु,
२१८
बीप्रो उदेसो
२४. चरियासणाई सेज्जाश्रो, एगइयानो जाओ वुइयाओ | इक्ख ताइ सयणासणाई, जाइ सेवित्या से महावीरे ॥
मईया |
भगवया एवं रोयंति ||
पणियसालासु एगया वासी । अदुवा पलियट्ठाणेसु पलालपु जेसु एगया वासी ॥
-त्ति वैमि ।
श्रायार- सुतं
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१८. श्राघाकर्मी ( उद्दिष्ट) आहार का भगवान् ने सेवन नहीं किया । वे सभी प्रकार से कर्म-द्रष्टा बने रहे । पाप के जो भी कारण थे, उनको न करते हुए भगवान् ने प्राक / निर्जीव आहार किया ।
१६. वे परवस्त्र का सेवन नहीं करते थे. परपात्र में भोजन भी नहीं करते थे, अपमान का वर्जन कर अशरण - भाव से संखण्डि / भोजनशाला में जाते थे ।
२०. भगवान् अशन और पान की मात्रा के ज्ञाता थे, रसों में अनुगृद्ध नहीं थे, प्रतिज्ञ, का भी प्रमार्जन नहीं करते थे, गात को खुजलाते भी नहीं थे ।
२१. वे न तो तिरछे देखते थे और न पीछे देखते थे। वे बोलते नहीं थे, अप्रतिभाषी थे, पंथप्रेक्षी और यतनापूर्वक चलते थे ।
२२. वे अनगार वस्त्र का विसर्जन कर चुके थे । शिशिर ऋतु में चलते समय बाहुनों को फैलाकर चलते थे । उन्हें कन्धों में समेट कर न चलते ।
२३. मतिमान माहन भगवान् महावीर ने इस अनुक्रान्त / प्रतिपादित विधि का अप्रतिज्ञ होकर अनेक बार आचरण किया । - ऐसा मैं कहता हूँ ।
द्वितीय उद्देशक
२४. [ जम्बू ने सुधर्मा से निवेदन किया- ] साधु-चर्या में ग्रासन और शय्या / निवास-स्थान: जो कुछ भी श्रभिहित है, उन शयनासनों को कहे, जिनका महावीर ने सेवन किया ।
२५. [ महावीर ने ] श्रावेशन / शून्यगृहों, सभाओं, प्याऊ और कभी पण्यशालाओं / दुकानों में वास किया श्रथवा कभी पलितस्थानों एवं पलाल पुन्जों में वास किया ।
उपधान-श्रुत
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२६. आगंतारे प्रारामागारे, गामे णगरेवि एग्या वासी | सुसाणे सुण्णगारे वा, रुवखमूले वि एगया वासो ||
२७. एएहि मुणी सयणेहि, समणे श्रासी पत्तेरस वासे । राई दिवं पि जयमाणे, अप्पमत्ते समाहिए भाइ ||
२८. जिद्द पि णो पगामाए, सेवइ भगवं उट्ठाए । जग्गावई य अप्पाणं, ईसि साई या सी श्रपडिण्णे ||
२६. संवुज्झमाणे पुणरवि,
प्रासिसु भगवं उट्ठाए । freaम्म एगया राम्रो, वह चंकमिया मुकुत्तागं ॥
३०. सयणेहिं तस्सुवसम्गा, संसप्पगाय जे पाणा,
३१. अदु कुचरा उवचरंति,
गामरवखा य दु गामिया उवसग्गा, इत्थी एगइया
भीमा श्रसी श्रगख्वा य । अदुवा जे पविखणो उवचरति ॥
३२-३३. इहलोइयाई परलोइयाई, भोनाइ विसुभि-दुभि-गंधाई, सद्दाइ
अहियास सया सदिए, श्ररई रई श्रभिभूय,
फासाइ रीयइ माहणे
३४. स जणेहिं तत्य पुच्छिसु, अव्वाहिए कसाइत्था,
३५. यमंतरंसि को एत्थ अयमुत्तमे से धम्मे,
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सत्तिहत्था य । पुरिसा य ॥
रुवाई |
अगरूत्रा ||
विरूवरुवाई | अबहुवाई ||
एगचरा वि एगया राम्रो । पेहमाणे समाहि अपडणे ॥
श्रहमंसि त्ति भिक्खू श्राह 1 तुसिणीए स कसाइए भाइ ॥
;
. श्रायार-सुतं
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२६. कभी आगन्तार/धर्मशाला, पारामागार/विश्रामगृह में तो कभी ग्राम या
नगर में वास किया ! कभी श्मशान या शून्यागार में तो कभी वृक्षमूल में वास किया ।
२७. मुनि/भगवान् इन शयनों/वास-स्थलों में तेरह वर्ष पर्यन्त प्रसन्नमना रहे ।
रात-दिन यतनापूर्वक अप्रमत्त एवं समाहित भाव से ध्यान करते रहे।
२८. भगवान् प्रकाम/शरीर-सुख के लिए निद्रा भी नहीं लेते थे। उद्यत होकर अपने
आपको जागृत करते थे । उनका किंचित् शयन भी अप्रतिज्ञ था।
२६. भगवान् जागृत होकर सम्बोधि-अवस्था में ध्यानस्थ होते थे। निद्रावाधित
होने पर कभी-कभी रात्रि मे वाहर निकल कर मुहूर्त भर चंक्रमण करते थे।
३०. शयनों, वास-स्थानों में जो संसर्पक प्राणी थे या जो पक्षी रहते थे, वे भगवान्
पर अनेक प्रकार के भयंकर उपसर्ग करते।
३१. अथवा कुचर/दुराचारी, शक्तिहस्त/दरवान, ग्रामरक्षक लोग उपसर्ग करते
थे। अथवा एकाकी स्त्रियों और पुरुषों के ग्राम्यवर्मी उपसर्ग सहने पड़ते थे।
३२-३३. भगवान् ने अनेक प्रकार के ऐहलौकिक या पारलौकिक रूपों, अनेक
प्रकार की सुगन्धों, दुर्गन्धों शब्दों एवं विविध प्रकार के स्पर्शो को सदा समितिपूर्वक सहन किया। वे माहन-ज्ञानी अरति एवं रति दोनों अवहुवादी/मौनव्रती होकर विचरण करते रहे ।
३४. कभी-कभी रात्रि में एकचरा/चोर या मनुष्यों द्वारा कुछ पूछे जाने पर
भगवान् के अव्याहृत/मौन रहने के कारण वे कपायी/क्रोधी हो जाते थे। किन्तु भगवान् अप्रतिज्ञ होते हुए समाधि के प्रेक्षक बने रहे।
३५. यहाँ अन्दर कौन है ? [ऐसा पूछे जाने पर] मैं भिक्षु हूँ ऐसा उत्तर देवे ।
उनके क्रोधित होने पर भगवान् तूष्णीक, चुप रहते । यह उनका उत्तम धर्म है।
उपधान-धुत
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३६. जंसिप्पेगे पवेयंति,
तंसिप्पेगे अणगारा,
सिसिरे मारुए पवायते । हिमवाए णिवायमेतंति ॥
३७. संघाडिनो पविसिस्सामो, एहा य समादहमाणा ।
पिहिया वा सक्खामो, अइदुक्खं हिमग-संफासा ।।
३८. तंसि भगवं अपडिण्णे, अहे वियडे अहियासए दविए ।
णिक्खम्म एगया राम्रो, ठाइए भगवं समियाए ।
३६. एस विही अणुक्कतो, माहणेण
बहुसो अपडिण्णणं, भगवया एवं
मईमया । रोयंति ।।
-त्ति वेमि।
तीनो उद्देसो
४०. तणफासे सीयफासे य, तेउफासे य दंस-मसगे य ।
अहियातए सया समिए, फासाई विस्वरूवाई।
४१. अह दुच्चर-लाढमचारी, वज्जभूमि च सुभ णि भूमि च ।
पंतं तेज्जं सेविसु, प्रासणगाणि चेव पंताणि ।।
४२. लाहि तस्तुवसग्गा, वहवे जाणक्या लूसिसु ।
मह लूहदेसिए भत्ते, कुक्कुरा तत्य हिसितु पिवई सु ।।
२२२
मायारस्तं
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३६. जिस शिशिर में कुछ लोग मारुत चलने पर कांपने लगते, उस हिमपात में
कुछ अनगार निर्वात/हवा रहित स्थान की एषणा करते थे।
३७. कुछ संघाटी/उत्तरीय वस्त्र की कामना करते, कुछ ईवन जलाते कुछ
पिहित/आवरण (कम्वल आदि) चाहते, क्योंकि हिम-संस्पर्श अति दुःखकर होता है।
३८. किन्तु उस परिस्थिति में भी अप्रतिज्ञ भगवान अघोविकट/खुले स्थान में
शीत सहन करते थे । वे संयमी भगवान् कभी-कभी रात्रि में वाहर निकलकर समिति पूर्वक स्थित रहते ।
३९. मतिमान माहन भगवान महावीर ने इस अनुक्रान्त/प्रतिपादित विधि का अप्रतिज्ञ होकर अनेक वार आचरण किया।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
तृतीय उद्देशक
४०. भगवान् ने तृणस्पर्श, शीतस्पर्श, तेजस्पर्श और देशमशक के विविध
प्रकार के स्पों/दुःखों को सदा समितिपूर्वक सहन किया।
४१. इसके अनन्तर दुश्चर लाढ़ देश की वनभूमि और शुभ्रभूमि में विचरण
किया । वहाँ उस प्रान्त के शयनों/वास-स्थानों और प्रान्त के आसनों का सेवन किया।
४२. लाढ देश में जनपद के लोगों ने उन पर बहुत उपसर्ग/उपद्रव किया और
मारा । वहां उन्हें प्राहार रूक्षदेश्य रूखा-सूखा मिलता था। वहाँ कुक्कर काट लेते और ऊपर आ पड़ते थे।
उपधान-श्रुत
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४३. अप्पे जणे णिवारेइ,
छुछुकारिति प्राहंसु,
लसणए सुणए दसमाणे । समणं कुक्कुरा दसंतुत्ति ।।
४४. एलिक्खए जणा भुज्जो, वहवे वज्जभूमि फरसासी ।
लढि गहाय णालीयं, समणा तत्थ य विहरिसु ॥
४५. एवं पि तत्थ विहरंता, पुट्टपुवा प्रहेसि सुणएहिं ।
संलुचमाणा सुणएहि, दुच्चराणि तत्थ लाहिं ।।
४६. गहाय दंडं पाहि, तं काय बोसज्जमणगारे ।
अह गामकंटए भगवं, ते अहियासए अभिसमेच्चा ।।
४७. णाम्रो संगामसीसे वा, पारए तत्थ से महावीरे ।
एवं पि तत्थ लाहिं, अलद्धपुत्वो वि एगया गामो ।।
४८. उवसंकमंतमपडिण्णं, गामतियं पि अप्पत्तं ।
पडिणिक्खमित्तु लूसिसु, एत्तो परं पलेहित्ति ॥
४६. हय-पुन्वो तत्थ दंडेण, अदुवा मुट्ठिणा अदु कुंत-फलेण ।
अदु लेलुणा कवालेण, 'हंता-हंता' बहवे दिसु ॥
५०. मंसाणि छिण्णपुवाई, उट्ठभिया एगया कायं ।
परीसहाई लुचिसु. अहवा पंसुणा अवकिरिसु ॥
५१. उच्चालइय णिहणिसु, अदुवा पासणाम्रो खलइंसु ।
वोसटकाए पणयासी, दुक्खसहे भगवं अपडिण्णे ॥
५२. सूरो संगामसीसे वा, संखुडे तत्थ से महावीरे ।
पडिसेवमाणे फरसाई, अचेले भगवं रीइत्या ।।
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अायार-सुतं
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४३. कुत्तों के काटने और भौंकने पर कुछ लोग उन्हें रोकते और कुछ लोग छू-छू करते, ताकि वे श्रमरण को काट ले ।
४४. जिस वज्रभूमि में बहुत से लोग रूक्षभोजी एवं कठोर स्वभावी थे, जहां लाठी और नालिका ग्रहण कर श्रमरण विचरण करते थे ।
४५. इस प्रकार वहाँ विहार करते हुए कुत्तों के द्वारा पीछा किया जाता । कुत्तों के द्वारा नोंच लिया जाता । उस लाढ़ वेश में विहार करना कठिन था ।
४६. अनगार प्राणियों के प्रति दण्ड / हिंसा का त्यागकर अपने शरीर को विसर्जन कर देते तथा ग्रामकण्टक / तीक्ष्ण वचन को समभावपूर्वक सहन करते थे ।
४७. इसी प्रकार उस लाढ देश में कभी-कभी ग्राम भी नहीं मिलता था। जैसे संग्रामणी में हाथी पारग / पारनामी होता है, वैसे ही महावीर थे ।
४८. उपसंक्रमण / विचरण करते हुए श्रप्रतिज्ञ भगवान् को ग्रामन्तिक होने पर या न होने पर भी वहाँ के लोग प्रतिनिष्क्रमरण कर मारते और कहते - अन्यत्र पलायन करो ।
४६. वहाँ दण्ड, मुष्टि, कुन्तफल / भाला, लोष्ट / मिट्टी के ढेले अथवा कपाल से प्रहार करते हुए 'हन्त ! हन्त !' चिल्लाते ।
५०. कुछ लोग मांस काट लेते, थूक देते, परीपह करते, नोंच लेते अथवा पांसु / धुली से श्रवकीर्ण / ढक देते ।
५१. कुछ लोग भगवान् को ऊँचा उठाकर नीचे पटक देते अथवा ग्रासन से स्खलित कर देते । किन्तु भगवान् काया का विसर्जन ( कायोत्सर्ग ) किए हुए प्रतिज्ञ भावना से समर्पित होकर दुःख सहन करते थे ।
५२. वे भगवान् महावीर संग्रामशीर्ष में संवृत शूरवीर की तरह थे । स्पर्शो / कष्टों का प्रतिसेवन करते हुए भगवान् श्रचल विचरण करते रहे ।
उपधान-श्रुत
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५३. एस विही अणुक्कतो, माहणेण
बहुसो अपडिण्णेणं, भगवया एवं
मईमया । रीयंति ।।
-त्ति बेमि।
चउत्थो उद्देसो
५४. प्रोमोयरियं चाएइ, अपुढे वि भगवं रोगेहिं ।
पुढे वा से अपुढे वा, णो से साइज्जइ तेइच्छं ।
५५. संसोहणं च वमणं च, गायन्मंगणं सिणाणं च ।
संबाहणं ण से कप्पे, दंत-पक्खालणं परिणाए ।।
५६. विरए गामधम्मेहि, रीयइ माहणे अवहवाई।
सिसिमि एगया भगवं, छायाए झाइ पासी य ।।
५७. पायावई य गिम्हाणं, अच्छइ उक्कुडुए अभित्तावे ।
अदु जावइत्थ लूहेणं, प्रोयण-मंथु-कुम्मासेणं ।।
५८. एयाणि तिण्णि पडिसेवे, अट्ठ मासे य जावए भगवं ।
अपिइत्थ एगया भगवं, अद्धमासं अदुवा मासं पि ॥
५६. अवि साहिए दुवे मासे, छप्पि मासे अदुवा अपिवित्ता ।
राम्रोवरायं अपडिण्णे, अन्नगिलायमेगया मुंजे ॥
६०. छ?णं एगया भुजे, अदुवा अमेण दसमेणं ।
दुवालसमेण एगया भुजे. पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे ।।
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आयार-सुत्त
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५३. मतिमान माहन भगवान महावीर ने इस अनुक्रान्त/प्रतिपादित विधि का अप्रतिज्ञ होकर अनेक बार आचरण किया।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
चतुर्थ उद्देशक
५४. भगवान् रोग से अस्पृष्ट होने पर अवमौदर्य (ऊनोदर अल्पाहार) करते थे।
वह रोग से स्पृष्ट या अस्पृष्ट होने पर चिकित्सा की अभिलापा नहीं करते थे।
५५. वे संशोधन/विरेचन, वमन, गात्र-अभ्यंगन/तैल-मर्दन, स्नान, संवावन/वैय्या
वृति और दन्त-प्रक्षालन को त्याज्य जानकर नहीं करते थे।
५६. माहन/भगवान् ग्रामधर्म से विरत होकर अ-बहुवादी/मौनपूर्वक विचरण
करते थे । कभी-कभी शिशिर में भगवान् छाया में ध्यान करते थे।
५७. ग्रीष्म में अभितापी होते हुए उत्कुट/ऊकडू वैठते और आताप लेते । अथवा
रूक्ष प्रोदन, मथु/सत्तु और कुल्माप/उड़द की कनी से जीवन-यापन करते थे।
५८. भगवान ने इन तीनों का आठ मास पर्यन्त सेवन किया। कभी-कभी
भगवान ने अर्धमास अथवा एक मास तक पानी नहीं पिया।
५६. कभी दो मास से अधिक अथवा छह मास तक भी पानी नहीं पिया । वे
रात-दिन अप्रतिज्ञ रहे । उन्होंने अन्न ग्लान/नीरस भोजन का आहार किया।
६०. उन्होंने कभी दो दिन, तीन दिन, चार दिन या पाँच दिन के बाद छठे दिन
भोजन लिया । वे समाधि के प्रेक्षक अप्रतिज्ञ रहे ।
उपधान-श्रुत
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६१. णच्चाणं से महावीरे, णो वि य पावगं सयमकासी ।
अहं वा ण कारिस्था, कीरंतं पि णाणजाणित्था ॥
६२. गामं पविसे जयरं वा, घासमेसे कडं परढाए ।
सुविसुद्धमेसिया भगवं, आयत-जोगयाए सेवित्या ।
६३-६५. अदु वायता दिगिछत्ता, जे अण्णे रसेसिणो सत्ता ।
घासेसणाए चिढ़ते, सययं णिवइए य पेहाए । अदु माहणं च तनणं वा, गामपिंडोलगं च अतिहि वा । सोवागं मूसियारि वा, कुक्कुरं वावि विट्टियं पुरो ।। वित्तिच्छेयं यज्जतो, तेसप्पत्तियं परिहरंतो । मंदं परक्कमे भगवं, अहिंसमाणो घासमेसित्या ।।
६६. अवि सूइयं व सुक्कं वा, सीपिडं पुराणकुम्मासं ।
अदु बुक्कतं पुलागं वा, लद्धे पिंडे अलद्ध दविए ।।
६७. अवि झाइ से महावीरे, पासणत्य अकुक्कुए झाणं ।
उड्ढंग्रहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपडिण्णे ।।
६८. अकसाई विगयगेहोय, सहरूवेसुऽमुच्छिए भाइ ।
छउमत्थे वि परक्कममाणे, णो पमायं सई पि कुवित्या ।।
६९. सयमेव अभिसमागम्न, आयतजोगमायसोहीए।
अभिणिव्वुडे अमाइल्ले, , पावर हं भगव समिबासी ।।
७०. एस विही अणुक्कतो, माहणेण
बहुसो अपडिण्णेण, भगवया एवं
मईमया । रीयंति ।।
-त्ति वेमि ।
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BSNDR
आयार-मुत्तं
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________________ 61. महावीर ने यह जानकर न स्वयं पाप किया, न अन्य से कराया और न ही पाप करते हुए का समर्थन किया। 62. ग्राम या नगर में प्रवेश कर परार्थकृत/गृहस्थकृत आहार की एपणा करते थे / सुविशुद्ध की एपणा कर भगवान ने आयत-योग/संयत-योग का सेवन किया। 63-65. भूख से पीड़ित काक आदि रसामिलापी प्राणी एपणा के लिए चेष्टा करते हैं / उनका सतत निपात देखकर माहन, श्रमण, ग्रामपिण्डोलक या अतिथि, श्वापाक/चाण्डाल, मूपिकारी/विल्ली या कुक्कुर को सामने स्थित देखकर वृत्तिच्छेद का वर्जन करते हुए, अप्रत्यय अप्रीति का परिहार करते हुए भगवान मन्द पराक्रम करते और अहिंसापूर्वक साहार की गवेपणा करते थे। 66. चाहे सूपिक, दूध-दही मिश्रित आहार हो या सूका, ठण्डा-वासी आहार, पुराने कुल्माप/उड़द, बुक्कस | सत्तू अथवा पुलाग आहार के उपलब्ध या अनुपलब्ध होने पर भी वे समभाविक रहे / 67. वे महावीर उत्कृष्ट आसनों में स्थित और स्थिर ध्यान करते थे / ऊर्व, अधो और तिर्यग-ध्येय को देखते हुए समाधिस्थ एवं अप्रतिज्ञ रहते थे। 68. वे अकषायी, विगतगृद्ध, शब्द एवं रूप में अमूछित होते हुए ध्यान करते थे। छद्मस्थ-दशा में पराक्रम करते हुए उन्होंने एक बार भी प्रमाद नहीं किया / 66. स्वयं ही आत्म-शुद्धि के द्वारा आयतयोग को जानकर अभिनिर्वत्त, अमायावी भगवान जीवनपर्यन्त समितिपूर्वक विचरण करते रहे। 70. मतिमान माहन भगवान महावीर ने इस अनुक्रान्त प्रतिपादित विधि का अप्रतिज्ञ होकर आचरण किया / -ऐसा मैं कहता हूँ। उपधान-श्रुत 223