SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८३. यही विमोह का श्रायतन है, हितकर, सुखकर क्षेमंकर, निःश्रेयस्कर और ग्रानुगामिक है । - ऐसा मैं कहता हूँ । सप्तम उद्देशक होता है मैं ८४. जो भिक्षु अचेल रहने की पर्युपासना करता है, उसे ऐसा तृण-स्पर्श / तृरण- पीड़ा का त्याग करता हूँ, सहन करता हूँ, शीत-स्पर्श सहन करता हूँ, तेजस्-स्पर्श सहन करता हूँ, दंश-मसक-स्पर्श सहन करता हूँ, लज्जा प्रतिच्छादन का मैं त्याग नहीं करता हूँ. सहन करता हूँ । इस प्रकार वह कटिवन्धन को धारण करने में समर्थ होता है । ८५. अथवा पराक्रम करते हुए, अचेल तृण-स्पर्श का स्पर्श करते हैं, शीत- स्पर्श का स्पर्श करते हैं, तेजस्-स्पर्श का स्पर्श करते हैं, दंश - मसक-स्पर्श का स्पर्श करते हैं । अचेल विविध प्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्श सहन करता है । 1 ८६. लघुता का आगमन होने पर वह तप- समन्नागत होता है । ८७. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सम्पूर्ण रूप से समत्व का ही पालन करे । ८. जिस भिक्षु के ऐसा भाव होता है खाद्य या स्वाद्य लाकर दूंगा और लाया हुआ उपभोग करूंगा । ८६. जिस भिक्षु के ऐसा भाव होता है खाद्य या स्वाद्य लाकर दूँगा करूंगा । विमोक्ष - - मै अन्य भिक्षुत्रों को प्रशन, पान, मैं अन्य भिक्षुत्रों को प्रशन, पान, और लाया हुआ उपभोग नहीं १६६
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy