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१५. द्रष्टा-पुरुप विशुद्ध धर्म को जानकर परिनिवृत्त बने । ६६. आसक्ति को देखो।
६७. ग्रन्थियों में गृद्ध एवं विपण्ण/खिन्न नर कामाक्रान्त है ।
६८. अतः स्मता से वित्रस्त न हो।
६६. जिसे आरम्भ/हिंसा सभी प्रकार से सुपरिज्ञात है, जो रूक्षता से परिवित्रस्त
नहीं है, वह क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन कर वन्धन को तोड़े।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
१००. शरीर का व्याघात (कायोत्सर्ग) अन्तरसंग्राम में मुख्य हैं ।
१०१. वही पारगामी मुनि है, जो अविहन्यमान एवं काष्ठफलकवत् अचल है। वह मृत्यु पर्यन्त शरीर-भेद होने तक मृत्यु की आकांक्षा करे ।
-~-ऐसा मैं कहता हूँ।
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