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प्रकाशकीय
श्रागमवेत्ता महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभसागरजी सम्पादित अनुवादित 'प्रायारसुतं' प्राकृत-भारती, पुष्प ६८ के रूप में प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता है ।
श्रागम - साहित्य जैन धर्म की निधि है । इसके कारण आध्यात्मिक वाङ्मय की अस्मिता श्रभिववित हुई है । जैन श्रागम - साहित्य को उसकी मौलिकताओं के साथ जनभोग्य सरस भाषा में प्रस्तुत करने की हमारी अभियोजना है । 'प्रायारसुत्तं' इस योजना की क्रियान्विति का एक चरण है ।
'प्रायार- सुत्तं' जैन श्रागम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ है । इसमें प्रचार के सिद्धान्तों और नियमों के लिए जिस मनोवैज्ञानिक आधार भूमि एवं दृष्टि को अपनाया गया है, वह आज भी उपादेय है । आचारांग की दार्शनिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टि भी वर्तमान युग के लिए एक स्वस्थ दिशा दर्शन है ।
ग्रन्थ के सम्पादक चन्द्रप्रभजी देश के सुप्रतिष्ठित प्रवचनकार हैं, चिन्तक हैं, लेखक हैं और कवि हैं । उनकी वैदुण्यपूर्ण प्रतिभा प्रस्तुत ग्रागम में सर्वत्र प्रतिविम्वित हुई है । ग्रनुवाद एवं भाषा वैशिष्ट्य इतना सजीव एवं सटीक है कि पाठक की सुप्त चेतना का तार-तार संकृत कर देती है । प्रस्तुत लेखन 'प्रायार-सुत्तं' का मात्र हिन्दी अनुवाद ही नहीं है, वरन् अनुसंधान भी है, जिसे एक चिन्तक की खोज कह सकते हैं |
गरिवर श्री महिमाप्रभसागरजी ने इस आगम- प्रकाशन अभियान के लिए हमें उत्साहित किया, एतदर्थ हम उनके हृदय से आभारी हैं ।
पारसमल भंसाली
ग्रध्यक्ष
श्री जैन श्वे. नाकोड़ा पार्श्व. तीर्थ, मेवानगर
देवेन्द्रराज मेहता सचिव
प्रकाशचन्द दफ्तरो
ट्रस्टी
श्री जितयणाश्री फाउंडेशन प्राकृत भारती अकादमी
कलकत्ता
जयपुर