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पूर्व स्वर
'ग्रायाग्-सुत' भगवान् महावीर की संन्यस्त श्राचार-संहिता है । इसमें साधक की भीतरी एवं बाहरी व्यक्तित्व को परिपूर्ण भाँको उभरी है। सद्विचार की शब्दसन्धियों में सदाचार का संचार ही इसकी प्रारणधारा है ।
'प्रायार- सुत्त" जैन परम्परा का खूट खजाना है । पर यदि इस ग्रन्थ को मात्र जैन श्रमण का ही प्रतिविम्ब कहा जाए, तो इसके भूमा कद को वोना करने का अन्याय होगा ।
'प्रायार- सुत्त" सार्वभौम है । इसे किसी सम्प्रदाय - विशेष की चौखट में न बांधकर विश्व-साधक के लिए मुहैया कराने में ही इस पारस ग्रन्थ का सम्मान है । इसकी स्वरिगमता/ उपादेयता सार्वजनीनता में है । यह उन सबके लिए है जो साधना अनुष्ठान में स्वयं को सर्वतोभावेन समर्पित करना चाहते हैं ।
'प्रायार- सुत्त' साधनात्मक जीवन-मूल्यों का स्वस्थ प्रचार-दर्शन है । यह साधक के अभिनिष्क्रांत कदमों को नयो दिशा दरशाता है और उसकी आंखों को विश्व-कल्याण के क्षितिज पर उघाड़ता है । महावीर की यह कालजयी शब्दसंरचना विश्व मानव की हथेली पर दीपदान है, जिसके प्रकाश में वह प्रतिसमय दीप्ति श्रोर दृष्टि प्राप्त करता रहेगा । 'प्रायार-सुत्त' मात्र महावीर की साधनात्मक देशना नहीं है, अपितु उनकी कररणामूलक सहिष्णुता की अस्मिता भी है । वे ही तो क्षर पुरुष हैं इस श्रागम के अनक्षर अक्षरों के ।
श्रागम ज्ञान -तीर्थ है। 'श्रयार-सुत्त' प्रथम तीर्थं है । और निदिध्यासन श्रात्म-साक्षात्कार के लिए महत् पहल है। से कुछ ऐसे तथ्य रोशन होते हैं जिनमें संसृति थंय की छाया झलकती है ।
इसका मनन, स्पर्शन इसके सूत्र - गवाक्षों में
यद्यपि इसको चंगुली श्रमरण की ओर इंगित है, किन्तु तनाव एवं संताप की पटों में कुलसते विश्व को शान्ति को स्वच्छ चन्दन-डगर देने में इसकी उपयोगिता विवाद से परे है ।
'प्रायार- सुत्त" का हर अध्याय साधना-मार्ग का मील का पत्थर है । प्राठवा श्रध्याय साधक का आखिरी पड़ाव है। नौवां अध्याय ग्रन्थ का उपसंहार नहीं,