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साधक प्रात्मदर्शन के लिए सर्वतोभावेन समर्पित होता है। अतः शारीरिक मूर्छा से ऊपर उठना भेद-विज्ञान की क्रियान्विति है । शरीर और आत्मा के मध्य युद्ध चल रहा है । दोनों के बीच युद्ध-विगम की स्थिति का नाम ही उपवाम है। जीवन, जन्म एवं मृत्यु के बीच का एक स्वप्नमयी विस्तार है। स्वप्न-मुक्ति का आन्दोलन ही संयास है। जीवन एवं जगत् को स्वप्न मानना अनासक्ति प्राप्त करने की सफल पहल है । अनासक्ति/अमूर्छा साधना-जगत् की सर्वोच्च चोटी है और इसे पाने के लिए भौतिक सुख-सुविधायों को नश्वन्ता का हर क्षण स्मरण करना स्वयं में अध्यात्म का आयोजन है।
साधक सत्य-पथ का पथिक होता है । सत्य के साथ संघर्ष विना अनुमति के हमसफर हो जाता है। साधक विराट् संकल्प का धनी होता है। उसे संघर्ष/परीषह से घबराना नहीं चाहिये, अपितु सहिष्णता के बल पर उसे निष्फल और अपंग कर देना चाहिये । भगवान् ने कहा है कि परीपहों, विघ्नों को न सहना कायरता है। परोपह-पराजय संकल्प-शैथिल्य की अभिव्यक्ति है । साध्य के बीज को अंकुरित करने के लिए अनुकूलता का जल ही आवश्यक नहीं है, अपितु परीषहमूलक प्रतिकूलता को धूप भी अपरिहार्य है। दोनों के सहयोग से ही वीज का वृक्ष प्रकट होता है।
साधक सहनशील होता है, अतः वह निर्विवादतः समत्वयोगी भी होता है। भगवान् ने समत्व की गोद में ही धर्म का शैशव पाया है। साधनागत अनुकूलताएँ बनाए रखने के लिग धर्मसंघ का अनुशासन भी उपादेय है।
साधना के इन विभिन्न ग्रायामों से गुजरना अनामय लक्ष्य को साधना है। श्रात्म-विजय ही परम लक्ष्य है। भगवान् ने इसे त्रैलोक्य की सर्वोच्च विजय माना है । शरीर, मन और इन्द्रियों को निगृहीत करने से ही यह विजय साकार होती है। फिर वह स्वयं ही सर्वोपरि सम्राट होता है । मुक्त हो जाता है हर सम्भावित दासता से । इस विमल स्थिति का नाम ही मोक्ष है।
मोक्ष चेतना की आखिरी ऊँचाई है। उसके बारे में किया जाने वाला कथन प्राथमिक सूचना है, शिशु को तोतली बोली में वारहखड़ी है। मोक्ष तो सबके पार है । भाषा, तर्क, कल्पना और बुद्धि के चरण वहाँ तक जा नहीं सकते । वहाँ तो है सनातन मौन, निरिण की निर्धूम ज्योत ।