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६१. हे पुरुप ! अात्मा का ही अभिनिग्रह कर। ऐसा करने से त दःखों से छट
जाएगा।
६२. है पुरुप ! सत्य को ही जान ।
६३. जो सत्य की प्राज्ञा में उपस्थित है, वह मेधावी मार/मृत्यु से तर जाता है ।
६४. वह धर्मयुक्त होकर श्रेय का अनुपश्यन करता है ।
६५. जीवन को [राग और द्वेप से] द्विहत करने वाले कुछ साधक परिवन्दन,
मान और पूजा के लिए प्रमाद करते हैं।
६६. दु:ख-मात्रा से स्पृष्ट साधक झुंझलाहट न करे ।
६७. द्रव्य-द्रष्टा (तत्त्व-द्रष्टा) लोक-अलोक के प्रपंच से मुक्त हो जाता है ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
चतुर्थ उद्देशक
६८. वह क्रोध, मान, माया और लोम का चमन करने वाला है।
६६. यह शस्त्र से उपरत और कर्म से परे द्रप्टा का दर्शन है।
७०. गृहीत कर्मों का भेदन करता है।
७१. जो एक [तत्त्व] को जानता है, वह सब [तत्सम्वन्धित गुणों ने जानत है । जो सवको जानता है, वह एक को जानता है।
LF 2..... ७२. प्रमत्त को सभी ओर से भय है, अप्रमत्त को सभी ओर से भय नहीं है। शीतोष्णीय