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पूर्व स्वर
प्रस्तुत अध्याय ' शस्त्र - प्ररिज्ञा' है । शस्त्र हिसा का वाचक है। परिज्ञा प्रज्ञा का पर्याय है । इस प्रकार यह अध्याय हिंसा और अहिंसा का विवेक दर्शन है ।
इसमें समाज एवं पर्यावरण की समस्यायों का समाधान है। जीव जगत् के सङ्घठन, नियमन तथा विघटन की सूत्रात्मक परिचर्चा इस अध्याय की ग्रात्मकथा है ।
सर्वदर्शी महावीर ने समग्र अस्तित्व एवं पर्यावरण का गहराई से सर्वेक्षरण किया है । प्रस्तुत अध्याय उनकी प्रथम देशना है । इसमें पर्यावरण की रक्षा हेतु सद्विचार के सूत्रों में सदाचार का प्रवर्तन है । उनके अनुसार पर्यावरण का रक्षरण हिंसा का जीवन्त आचरण है। हमारे किसी क्रिया-कलाप से उसे क्षति पहुँचती है, तो वह आत्मक्षति ही है । सभी जीव सुख के अभिलापी हैं । भला, अपने अस्तित्व की जड़े कौन उखड़वाना चाहेगा ? अहिंसा ही माध्यम है, पर्यावरण के संरक्षरण एवं पल्लवन का ।
महावीर के विज्ञान में जीव जगत् की दो दिशाएँ थीं वनस्पति विज्ञान श्रीर प्राणि - विज्ञान । 'आचार-सूत्र' में इन्ही दो विज्ञानों का ऊहापोह किया गया है । इसमें वनस्पति, प्रारिण और मनुष्य के वीच भेद की सीमारेखा अनङ्कित है । पर्यावरण के प्रति महावीर की यह विराट दृष्टि वैज्ञानिक एवं प्रासङ्गिक है ।
पर्यावरण और हिंसा की पारस्परिक मैत्री है। इन दोनों का अलग-अलग स्तित्व नहीं है, महग्रस्तित्व है । हिंसा का अधिकाधिक न्यूनीकरण ही स्वस्थ समाज की संरचना में स्थायी कदम है। भाईचारे का प्रादर्श मनुष्येतर पेड़-पौधों के साथ स्थापित करना श्रहिंसा / साधना की श्रात्मीय प्रगाढ़ता है ।