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६६. यही विमोह का आयतन है, हितकर, सुखकर, क्षेमंकर, निःश्रेयस्कर और प्रानुगामिक है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
षष्ठ उद्देशक
६७. जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरे पात्र की मर्यादा रखता है, उसके लिए ऐसा
भाव नहीं होता-दूसरे वस्त्र की याचना करूंगा।
६८.
वह यथा-एपणीय वस्त्रों की याचना करे । यथा-परिगृहीत वस्त्रों को धारण करे । न धोए, न रंगे और न धोए-रंगे हुए वस्त्रों को धारण करे । ग्रामान्तर होते समय उन्हें न छिपाए, कम धारण करे, यही वस्त्रधारी की सामग्री है।
६६. भिक्षु यह जाने कि हेमंत बीत गया है, ग्रीप्म अा गया है, तो यथा-परिजीर्ण
वस्त्रों का परिप्ठापन/विसर्जन करे अथवा अचेल/निवस्त्र हो जाए।
७०. लघुता का आगमन होने पर वह तप-समन्नागत होता है ।
७१. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से,
सम्पूर्ण रूप से समत्व का ही पालन करे ।
७२. जिस भिक्षु को ऐसा प्रतीत होता है - मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है,
मैं भी किसी का नहीं हूँ। इस प्रकार वह भिक्षु आत्मा को.एकाकी समझे।
७३. लघुता का आगमन होने पर वह तप-समन्नागत होता है।
७४. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से
समत्व का ही पालन करे।
विमोक्ष
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