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८. भगवान् अभिवादन करने वालों से, पुण्यवानों द्वारा डंडों से पीटे एवं नोंचे
जाने पर भी अभिभापण नहीं करते। यह सभी के लिए सुकर/सुलभ नहीं है।
६. मुनि/महावीर परुप दुःसह वचनों की अवगणना करके पराक्रम. करते हुए
श्राख्यायिका, नाट्य, गीत दण्डयुद्ध और मुष्टियुद्ध नहीं करते।
१०. मिथ-कथा/काम-कथा के समय जातसुत विशोक-द्रप्टा हुए। वे ज्ञातपुत्र इन
उपसर्गो/उपद्रवों को स्मृति में न लाते हुए विचरण करते थे।
११. एकत्वभावी, अकपायी, अभिज्ञान-द्रष्टा एवं शान्त महावीर ने दो वर्ष से
कुछ अधिक समय तक शीतोदक/सचित्त जल का उपभोग न कर निष्क्रमण किया।
१२-१३. पृथ्वीकाय, अप्काय तेजरकाय, वायुकाय, पनक/फफूंदी, वीज, हरित और
असकाय को सर्वस्व जानकर ये सचित हैं, जीव हैं, ऐसा प्रतिलेख कर, जानकर, समझकर वे महावीर प्रारम्भ हिंसा का वर्जन कर विहार करने लगे।
१४. स्थावर या प्रस-योनि में उत्पन्न, स या स्थावर-योनि में उत्पन्न या सर्व
योनिक अस्तित्व वाले अज्ञानी जीव पृथक्-पृथक कर्म से कल्पित हैं।
१५. भगवान् ने माना कि सोपाधिक (परिगृही)अज ही क्लेश पाता है। भगवान्
ने कर्म को सर्वशः जानकर उस पाप का प्रत्याख्यान किया ।
१६. जानी और मेधावी भगवान् ने दोनों की समीक्षा कर और इन्द्रिय-स्रोत,
हिंसा-स्रोत तथा योग (मानसिक वाचिक, कायिक प्रवृत्ति) को सभी प्रकार से जानकर अप्रतिपादित का क्रिया प्रतिपादन किया ।
१७. अतिपातिक एवं अनाकुट्टिक/अहिंसक भगवान् हिंसा को स्वयं तथा दूसरों के
लिए अकरणीय मानते थे। जिसके लिए यह ज्ञात है कि स्त्रियां समस्त कर्मों का आवाहन करने वाली है, वही द्रष्टा है।
उपधान-श्रुत
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