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११५. मुनि इन्द्रियों से ग्लानि करता हुआ समित होकर स्थित रहे । इस प्रकार जो अचल और समाहित है, वह अगा / अनिन्द्य है ।
११६. ग्रभिक्रम, प्रतिक्रम, संकुचन, प्रसारण, शरीर-साधारणीकरण की स्थिति में अचेतन / समाविस्थ रहे ।
११७. परिक्लान्त होने पर पराक्रम करे अथवा यथामुद्रा में स्थित रहे । स्थित रहने से परिक्लान्त होने पर अन्त में बैठ जाए ।
११८. समाधि मरण में आसीन साधक इन्द्रियों का समीकरण करे । कोलावास / पीठासन को वितथ्य समझकर ग्रन्य स्थिति की एपणा करे ।
११६. जिससे वज्र / कठोर भाव उत्पन्न हो, उसका अवलम्बन न लें। उससे अपना उत्कर्ष करे | सभी स्पर्शो को सहन करे ।
१२०. यह [समाधिमरण] उत्तमतर है । जो साधक इस प्रकार अनुपालन करता हैं, वह सम्पूर्ण गात्र के निरोध होने पर भी स्थान से भटकता नहीं है
१२१ पूर्व स्थान का ग्रहण किये रहना ही उत्तम धर्म हैं । श्रचिर / स्थान का प्रतिलेख कर माहन - पुरुष स्थित रहे !
१२२. चित्त को स्वीकार कर स्वयं को वहाँ स्थापित करे । सर्वशः काया का विसर्जन (कायोत्सर्ग) कर दे । परीपह है, किन्तु यह शरीर मेरा नहीं है ।
१२३ परिपह और उपसर्ग जीवन पर्यन्त हैं । यह जानकर संवृत बने । देह-भेद होने पर प्राज्ञ पुरुप सहन करे ।
१२४. विवध प्रकार के क्षणभंगुर काम-भोगों में रंजित न हो । ध्रुव वर्ण (मोक्ष) का संप्रेक्षक इच्छा लोभ का सेवन न करे ।
विमोक्ष
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