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१८. ग्राम, नगर, खेड़ा, कर्वट/कस्वा, मडम्ब/बस्ती, पत्तन, द्रोणमुख/बन्दरगाह,
आकर/खान, पाश्रम, सन्निवेश/धर्मशाला, निगम या राजधानी में प्रवेश कर तृण की याचना करे । तृण की याचना कर, उसे प्राप्त कर एकान्त में चला जाए। एकान्त में जाकर अण्ड-रहित, प्राणी-रहित, वीज-रहित, हरित-रहित, प्रोस-रहित, उदक-रहित, पतंग, पनक/काई, जलमिश्रित-मिट्टीमकड़ी-जाल से रहित, स्थान को सम्यक् प्रतिलेख कर प्रमाजित कर तृण का संयार/संस्तार/बिछोना करे । तृण-संस्तार कर उसी समय शरीर योग और ईर्या-पथ/गमनागमन का प्रत्याख्यान करे ।
६६. यही मत्य है । सत्यवादी, प्रोजस्वी, तीर्ण, वक्तव्य-छिन्न/मौनव्रती, अतीतार्य/
कृतार्थ, अनातीत/वन्धनमुक्त साधक भंगुर शरीर को छोड़कर, विविध प्रकार के परीपहों-उपसर्गो को धुन कर इस सत्य में विश्वास कर के कठोरता का पालन करता है।
१००. काल/मृत्यु प्राप्त होने पर वह भी कर्मान्त-कारक हो जाता है ।
१०१. यही विमोह का आयतन है, हितकर, मुखकर, क्षेयंकर, निःश्रेयस्कर और अनुगामिक है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
अष्टम उद्देशक
१०२. जो घोर-पुरुप वसुमान् एवं मतिमान हैं, उन्होंने असाधारण की जानकर ___क्रमशः विमोह को धारण करते हैं ।
१०३. बुद्ध-पुरुप धर्म के पारगामी होते हैं । क्रमशः वाह्य एवं प्रोभ्यन्तर दोनों को
जानकर-समझकर आरम्म/हिंसा से मुक्त होते हैं ।
विमोक्ष
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