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७.
वही मैं कहता हूँ
जो प्रतीत, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) और भविष्य के अन्त भगवन्त हैं, वे सभी इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार भापण करते हैं, इस प्रकार प्रज्ञापन करते हैं, प्ररूपित करते हैं कि सभी प्राणी, सभी भूत, सभी जीव, सभी सत्वों का न हनन करना चाहिये, न प्राज्ञापित करना चाहिये, न परिगृहीत करना चाहिये, न परिताप देना चाहिये, न उत्पाद / प्राण-व्यपरोपण करना चाहिये |
प्रथम उद्देशक
यह शुद्ध धर्म है ।
लोक को नित्य, शाश्वत जानकर खेदज्ञों (ज्ञानियों) के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है ।
जैसे कि -
उत्थित होने पर या अनुत्थित होने पर, दंड से उपरत होने पर अथवा दंड से अनुपरत होने पर, सोपाधिक होने पर अथवा ग्रनोपाधिक होने पर, संयोगरत होने पर अथवा असंयोगरत होने पर, यह तत्त्व प्रतिपादित किया गया है ।
जैसा तथ्य है, वैसा प्ररूपित किया गया ।
उस धर्म को यथातथ्य ग्रहण कर एवं जानकर न स्निग्ध हो न विक्षिप्त 1
दृष्ट कैसे निर्वेद रहे !
८. लोकपरा न करे |
सम्यक्त्व
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