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२३. किंचित् भी अतिपात न करे।
२४. हे शिष्य ! समझो, सुनो । मैं धुतवाद प्रवेदित करूंगा।
२५. इस संसार में आत्मभाव से उन-उन कुलों में अभिसिंचन करने से अभिसंभूत
हुए, अभिसंजात हुए, अभिनिविष्ट दुए, अभिसंवृद्ध हुए, अभिसम्बुद्ध हुए, अभिनिष्क्रान्त हुए और अनुपूर्वक महामुनि हुए।
२६. उस पराक्रमी पुरुष को विलाप करते हुए जनक कहते हैं कि तू हमें मत ___ छोड़ । वे छन्दोफ्नीक/सम्मानकर्ता, अभ्युपपन्न/प्रेमासक्त आक्रन्दकारी जनक
रोते हैं।
२७. [जनक कहते हैं--] वह न तो मुनि है, न अोध/प्रवाह को पार कर सकता
है, जो जनक को छोड़ देता है।
२८. मुनि उस [ संसार] की शरण में नहीं जाता। फिर वह कैसे संसार में
रमण कर सकता है ?
२६. इस ज्ञान में सदा वास कर ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
द्वितीय उद्देशक
३०. आतुर लोक को जानकर, पूर्व संयोग को त्याग कर, उपशम को धारण कर,
ब्रह्मचर्य में वास कर, यथातथ्य धर्म को पूर्ण या अपूर्ण रूप में जानकर भी कुशील-पुरुष [चारित्र-धर्म का पालन नहीं कर पाते ।
३१. वे वस्त्र, प्रतिग्रह/उपकरण, कम्बल, पाद-प्रोंछन का विसर्जन कर बैठते हैं ।
धुत
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