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विमोक्ष जीवन की आखिरी मंजिल है। जीवन के हर कदम पर मृत्यु की पदचाप सुनना लक्ष्य के प्रति होने वाली सुस्ती को जड़ से उखाड़ फेंकना है। साधक को प्रात्म-सदन की रखवाली के लिए जगी आँख चौकन्ना रहना चाहिये । अन्तरगृह को सजाने-संवारने के लिए किया जाने वाला थम अपने मोक्षनिष्ठ-व्यक्तित्व को अमृत स्नान कराना है। जीवन की विदाई से पहले अन्तर्यावा में अपनी निखिलता को एकटक लगाए रखना स्वयं के प्रति वफादारी है।
साधना का सत्य वीतराग-विज्ञान है । राग मंमार से जुड़ना है और विगग उससे टूटना। वीतराग स्वयं को शोध-यात्रा है। अपने आपको पूर्णता देना ही वीतराग का परिणाम है। साधक तो मुक्ति अभियान का अभियन्ता है । इसीलिए वह ग्रन्थियों से निर्ग्रन्थ है । ग्रन्थि कथगे है, जिसमें चेतना दुवकी बैठी रहती है । ग्रन्थियों को बनाए/वचाए रखना ही परिग्रह है। प्रस्तुत अध्याय साधनात्मक जीवन के लिए अपरिग्रह को जोरदार पहल करता है ।
विमोक्ष-यात्रा में परिग्रह एक वोझा है। परिग्रह चाहे बाहर का हो या भीतर का, निर्ग्रन्थ के लिए तो वह 'सूर्य-ग्रहण' जैसा है। इसलिए 'ग्रहण' को प्रभावहीन करने के लिए अपरिग्रह की जीवन्तता अपरिहार्य है। पाव, वेश, स्थान अथवा वाह्य जगत् को विमोक्ष की दृष्टि से देखने वाला ही प्रात्म-साक्षात्कार की प्राथमिकता को छू सकता है।
साधक के लिए वस्त्र, पान तो क्या, शरीर भी अपने-आप में एक परिग्रह है। मृत्यु तो जन्मसिद्ध अधिकार है। जीवन की मान्ध्य-वेला में मृत्यू की आहट तो सुनाई देगी ही। मृत्यु किसी प्रकार की छीना-झपटी करे, उससे पहले ही साधक काल-करों में देह-कथरी को खुशी-खुशी सौंप दे । स्वयं को ले जाए सिद्धों की वस्ती में, समाधि की छाँह में, जहाँ महकती हैं जीवन की शाश्वतताएँ। खिसक जाना पड़ता है वहाँ से मृत्यु के तमस् को, अमरत्व के अमृत प्रकाश से पराजित होकर ।