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४३. शीतस्पर्श से प्रकम्पित शरीर वाले उस भिक्षु
समीप जाकर गाथापति बोले --- आयुष्मान् श्रमरण ! क्या तुम्हें ग्राम्य-धर्म (विषय-वासना) वाधित नहीं करते ?
श्रयुष्मान् गाथापति ! मुझे ग्राम्य धर्म वाघित नहीं करते । मैं शीतस्पर्प को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ । श्रग्निकाय को उज्ज्वलित या प्रज्वलित करना अथवा दूसरों के शरीर से अपने शरीर को प्रतापित या प्रतापित करना मेरे लिए कल्पित / उचित नहीं है ।
४४. इस प्रकार भिक्षु के कहने पर भी वह गाथापति अग्नि-काय को उज्ज्वलित या प्रज्वलित कर शरीर को प्रतापित या प्रतापित करे तो भिक्षु आगम एवं आज्ञा के अनुसार प्रतिलेख कर सेवन न करे ।
- ऐसा मैं कहता हूँ |
चतुर्थ उद्देशक
४५. जो भिक्षु तीन वस्त्र और चौथे पात्र की मर्यादा रखता है, उसके लिए ऐसा भाव नहीं होता - चौथे वस्त्र की याचना करूंगा ।
४६. वह यथा एपणीय / ग्राह्य वस्त्रों की याचना करे । यथा परिगृहीत वस्त्रों को धारण करें । न धोए, न रंगे और न धोए रंगे वस्त्रों को धारण करे । ग्रामान्तर होते समय उन्हें न छिपाए, कम धारण करे, यही वस्त्रधारी की सामग्री / उपकरण है ।
४७. भिक्षु यह जाने कि हेमंत बीत गया है, ग्रीष्म आ गया है, तो यथा - परिजीर्ण वस्त्रों को परिष्ठापन / विसर्जन करे या एक कम उत्तरीय रखे या एकशोटक रहे अथवा अचेल / वस्त्ररहित हो जाए ।
४८. लघुता का आगमन होने पर वह तप-समन्नागत होता है 1
हुत
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