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४६. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सव प्रकार से
सम्पूर्ण रूप से समत्व का ही पालन करे ।
५०. जिस भिक्षु को ऐसा प्रतीत हो - मैं स्पृष्ट हूँ। शीत स्पर्श सहन करने में
समर्थ नहीं हूँ। वह वसुमान/संयमी अपनी सर्व समन्वागत प्रज्ञा से प्रावर्त में संलग्न न हो।
५१. तपस्वी के लिए अवशान/समाधि मरण ही श्रेयस्कर है । काल-मृत्यु प्राप्त
होने पर वह भी [कर्म] अन्त करने वाला हो जाता है ।
५२. यही विमोह का आयतन है, हितकर, सुखकर, क्षेमंकर, निःश्रेयस्कर और प्रानुगामिक है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
पंचम उद्देशक
५३. जो भिक्षु दो वस्त्र और तीसरे पात्र की मर्यादा रखता है, उसके लिए ऐसा
भाष नहीं होता-तीसरे वस्त्र की याचना करूंगा।
५४. वह यथा एपणीय वस्त्रों की याचना करे । यथा परिगृहीत वस्त्रों को धारण
करे । न घोए, न रंगे और न घोए-रंगे हुए वस्त्रों को धारण करे । ग्रामान्तर होते समय उन्हें न छिपाए, कम धारण करे, यही वस्त्रधारी की सामग्री है।
५५. भिक्षु यह जाने कि हेमंत बीत गया है, ग्रीष्म आ गया है, तो यथा-परिजीर्ण
वस्त्रों का परिष्ठापन/विसर्जन करे या एक कम उत्तरीय रखे या एकशाटक रहे अथवा अचेल/वस्त्ररहित हो जाए।
५६. लघुता का आगमन होने पर वह तप-समन्नागत होता है ।
विमोक्ष
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