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५७. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से,
सम्पूर्ण रूप से समत्व का ही पालन करे ।
५८. जिस भिक्षु को ऐसा प्रतीत हो - मैं स्पृष्ट हूँ, अवल हूँ। मैं भिक्षाचर्या
गमन के लिए गृहान्तर-संक्रमण में असमर्थ हूँ। ऐसा कहने वाले के लिए कोई गृहस्थ अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य सम्मुख लाकर दे तो वह पूर्व आलोडन कर कहे हे आयुष्मान् गृहपति ! सम्मुख लाया हुआ, अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य या अन्य किसी आहार को खाना-पीना मेरे लिए कल्पित/ ग्राह्य नहीं है।
५६. जिस भिक्षु का यह प्रकल्प/प्रतिज्ञा है- मैं अप्रतिज्ञप्त से प्रतिज्ञप्त हूँ,
अग्लान से ग्लान हूँ, सामिक की अभिकांक्षा करता हुआ वैयावृत्य स्वीकार करूंगा।
६०. मैं भी प्रतिज्ञप्त की अप्रतिज्ञप्त से, ग्लान की अग्लान से सामिक की,
अभिकांक्षा करता हुआ वैयावृत्य करने के लिए प्रयत्न करूंगा।
६१. प्रतिज्ञा लेकर याहार लाऊँगा और लाया हुआ स्वीकार करूंगा।
प्रतिज्ञा लेकर आहार लाऊँगा, किन्तु लाया हुआ स्वीकार नहीं करूंगा। प्रतिज्ञा लेकर आहार नहीं लाऊँगा, किन्तु लाया हुआ स्वीकार करूँगा। प्रतिज्ञा लेकर ग्राहार नहीं लाऊँगा और लाया हुआ स्वीकार नहीं करूंगा।
६२. लघुता का आगमन होने पर वह तप-समन्नागत होता है।
६३. भगवान् ने जैसा प्रवेदित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार
से, सव रूप से समत्व का ही पालन करे।
६४. इस प्रकार वह यथा-कीर्तित धर्म को सम्यक् प्रकार से जानता हुआ शान्त,
विरत एवं सुसमाहित लेश्यवाला बने ।
६५. काल/मृत्यु प्राप्त होने पर वह भी कर्मान्तकारक हो जाता है ।
विमोक्ष
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