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२०. मेधावी उसे जानकर जीव-कायों के प्रति न. स्वयं दाड का प्रयोग करे, न
दूसरों से इन जीव-कायों के लिए दण्ड प्रयोग करवाए और न जीव-कायों के लिए दण्ड प्रयोग करने वालों का अनुमोदन करे ।
२१. जो इन जीव-कायों के प्रति दण्ड समारम्भ करते हैं, उनके प्रति भी हम
लज्जित/करुणाशील हैं।
२२. मेघावी उसे जानकर दण्ड देने वाले के प्रति उस दण्ड का या अन्य दण्ड का प्रयोग न करे ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
द्वितीय उद्देशक
२३. वह भिक्षु श्मशान, शून्यागार, गिरि-गुफा, वृक्ष-मूल या कुम्हार-पायतन में
पराक्रम करता हो, स्थित हो, बैठा हो या सोया हो, वहाँ कहीं पर विचरण करते समय उस भिक्षु के समीप आकर गाथापति/गृहपति कहता हैपायुप्यमान श्रमण ! मैं प्राणियों, भूतों जीवों और सत्त्वों का समारम्भ कर आपके समुद्देश्य से अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, प्रतिग्रह/पात्र, कम्बल या पादपोंछन क्रय कर, उधार लेकर, छीन कर पानाहीन होकर आपके समीप लाता हूँ, आवास गृह बनवाता हूँ। हे आयुष्मान् श्रमण ! उसको भोगें और रहें।
२४. भिक्षु उस समनस्वी गाथापति को कहे -- आयुप्मान् गाथागति ! वास्तव
मैं तुम्हारे वचनों को जानता हूँ, जो तुम प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का समारम्भ कर मेरे समुद्देश्य से अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, प्रतिग्रह, कम्बल या पाद-प्रोंछन क्रय कर, उवार लेकर, छीनकर, श्राज्ञाहीन होकर मेरे समीप लाते हो, आवास-गृह वनवाते हो। हे आयुप्मान गाथापति ! यह अकरणीय है । इसलिए मैं इनसे विरत हूँ।
विमोक्ष