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चतुर्थ उद्देशक
६२. इस प्रकार उन प्रज्ञापन्न महावीरों के द्वारा रात-दिन क्रमश: शिक्षित हुए
कितने ही शिष्य उनके पास प्रज्ञान/विज्ञान को प्राप्त करके भी उपशम को छोड़कर परुषता का समादर करते हैं ।
६३. ब्रह्मचर्य में वास करके भी उनकी आज्ञा को नहीं मानते।
६४. प्राख्यात को सुनकर, समझकर, समादर कर जीवन-यापन करेंगे, ऐसा
सोचकर कुछ निष्क्रमण करते हैं ।
६५. काम में विदग्ध और आसक्ति-उपपन्न लोग निष्क्रमण-मार्ग पर असंभवित
होते हैं, आख्यात समाधि को प्राप्त न करते हुए शास्ता को ही कठोर कहते हैं।
६६. वे शीलवान् उपशान्त और वोधिपूर्वक विचरण करने वाले मुनियों को
अशील कहते हैं । अज्ञानी की यह दोहरी मूर्खता है।
६७. कुछ निवर्तमान मुनि आचार-गोचर (शुद्धाचरण) का कथन करते है । ६८. कुछ मुनि नत होते हुए भी ज्ञान-भ्रष्ट और दर्शन-भ्रष्ट होने के कारण
जीवन का विपरिणमन करते हैं। ६९. जीवन के कारण से स्पृष्ट होने पर कुछ लोग निवर्तित होते हैं । ७०. निष्क्रान्त होते हुए भी वे दुनिष्क्रान्त हैं।
७१. वे मनुष्य वाल-वचनीय हैं । वे वार-वार जाति/जन्म को प्रकल्पित/प्राप्त
करते हैं।
७२. निम्न होते हुए भी स्वयं को विद्वान मानने वाले अपने अहं को प्रदर्शित
करते हैं।
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