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पंचम उद्देशक
८६. वह [मुनि] गृहों में या गृहान्तरों (गृह के समीप) में ग्रामों में या ग्रामान्तरों
में, नगरों में या नगरांन्तरों में, जनपदों में या जनपदान्तरों में, ग्राम-नगरान्तरों (गाँव-नगर के बीच) में या ग्राम-जनपदान्तरों में या नगर-जनपदान्तरों में रहते हैं, तब कुछ लोग त्रास पहुंचाते हैं अथवा वे स्पर्शो को स्पर्श करते हैं।
८७. उन स्पर्शो से स्पृष्ट होने पर वीर-पुरुप अध्यास/सहन करे ।
८८. साधक का भोज सम्यग् दर्शन हैं ।
८६. वेद/लोक की दया जानकर पूर्व, पश्चिम, दक्षिण एवं उत्तर दिशा में
आख्यान करे, कीर्तित करे।
६०. वह सुश्रुपा के लिए उपस्थित या अनुपस्थित होने पर शान्ति, विरति/उपशम,
निर्वाण, शौच, आर्जव, मार्दव लाघव का अनुशासन कहे ।
६१. भिक्षु सब प्राणियों, सब भूतों, सव सत्वों और सब जीवों को धर्म का
उपदेश दे।
६२. विवेकी भिक्षु धर्म का आख्यान करता हुआ न तो अपनी आशातना करे,
न दूसरे की आशातना करे और न ही अन्य प्राणियों, भूतों, जीवों एवं सत्वों की पाशातना करे।
६३. वह आशातना-रहित/जागृत होता हुआ आशातना न करे। वध्यमान
प्राणियों, भूतों, जीवों एवं सत्वों के लिए जैसे असंदीन दीप है, इसी प्रकार वह महामुनि शरणभूत है।
६४. इस प्रकार वह स्थितात्म/स्थितप्रज्ञ उत्थित होकर अस्नेह, अचल, चल एवं
बाह्य से असमीपस्थ होकर परिव्रजन करे।
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