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१. संशय के परिज्ञान से संसार परिज्ञात होता है।
संशय के अपरिज्ञान से संसार अपरिज्ञात होता है ।
१३. जो छेक/बुद्धिमान् है, वह सागार गृहवास/सम्भोग का सेवन नहीं करता।
१४. सेवन करके भी अविज्ञायक कहना मन्दपुरुप की दोहरी मूर्खता है ।
१५. प्राप्त अर्थों (मैथुन-सार) को प्रतिलेख कर, जानकर उसका अनासेवन आज्ञापित करे।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
१६. देखो ! कुछ लोग रूप में गृद्ध हैं । वे यहाँ परिणीयमान होकर स्पर्श/दुःख
को प्राप्त होते हैं।
१७. कुछ लोग लोक में हिंसाजीची हैं । वे इन (विपयों) में [प्रासक्तिवश] ही
हिंसाजीवी हैं।
१८. यहाँ वाल-पुरुष अशरण को शरण मानता हुअा, विपयों में छटपटरता हुआ
पाप-कर्मों में रमण करता है।
१६. कुन्छ साधु एकचारी होते हैं । वे वहुक्रोवी, वहुमानी, बहुमायावी, वहुनटी,
वहुशठी, बहुसंकल्पी, आस्रव में आसक्त, कर्म में आच्छन्न, [विषयों में] उद्यमशील और प्रवृत्तमान हैं । मुझे कोई देख न ले [इस भय से छिपकर अनाचरण करते हैं।
२०. सतत् मूढ़ पुरुष प्रज्ञान, प्रमाद और दोप के कारण धर्म को नहीं जानता।
२१. हे मानव ! जो लोग आते, कर्म-कोविद, अनुपरत और अविद्या से मोक्ष . होना कहते हैं, वे आवर्त/संसारचक्र में अनुपरिवर्तन करते हैं ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
लोकसार .
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