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११६. अप्रतिष्ठान खेदज्ञ ( लोकज्ञाता) के लिए प्रोज ( ज्ञान - प्रकाश ) है |
१२०. वह [ज्ञान-प्रकाश आत्मा]न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्र्यस्त्र / त्रिकोण है, न चतुरस्र / चतुष्कोण है, न परिमण्डल / गोलाकार है ।
१२१. [वह] न कृष्ण है, न नील है, न लोहित है, न पीत है, न शुक्ल है ।
१२२. [ वह ] न सुगन्धित है, दुर्गन्धित ।
१२३ . [ वह ] न तिक्त है, न कटुक है, न कपाय / कसैला है, न अम्ल है, न मधुर है ।
१२४. [वह] न कर्कश है, न मृदु है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न उष्ण है, न स्निग्ध है, न लूखा / रूक्ष है ।
१२५. [ वह ] न काय है, न रुह / पुनर्जन्मा है, न संग है ।
१२६. [ वह ] न स्त्री है, न पुरुष है, न ग्रन्य / नपुंसक है ।
१२७. वह परिज्ञ है, संज्ञ है ।
१२८. [ वह ] उपमा - रहित अरूपी सत्ता है |
१२६. उस अपदस्थ का पद नहीं है ।
१३०. वह न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है, न स्पर्श है
लोकसार
। इतना ही ।
- ऐसा मै कहता हूँ ।
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