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१०७. अभिभूत ही अद्राक्षी ज्ञाता है । अनभिभूत ही निरालम्ब होने में समर्थ है ।
१०८. जो महान् है, वही अवहिर्मन है ।
१०६. पूर्व-जन्म की स्मृति से, सर्वज्ञ के वचनों से अथवा अन्य किसी ज्ञानी के
पास सुनकर प्रवाद (ज्ञान) से प्रवाद (ज्ञान) को जानना चाहिये।
११०. मेधावी सुप्रतिलेख/विचार कर सभी ओर से, सभी प्रकार से भली-भांति
जानकर निर्देश का अतिवर्तन न करे ।
१११. इस परिज्ञात आराम (आत्म-ज्ञान) में अलीन-गुप्त/जितेन्द्रिय होकर
परिव्रजन करे।
११२. नियाग-अ /मोक्षार्थी वीर-पुरुप आगम के अनुसार पराक्रम करे ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
११३. ऊर्ध्व-स्रोत, अघो-स्रोत, तिर्यक-स्रोत प्रतिपादित है। ये स्रोत ग्राख्यात हैं,
जिनके द्वारा संगति/आसक्ति को देखो।
११४. वेदज्ञ ज्ञाता-पुरुप पावर्त की प्रेक्षा करके विरत रहे ।
११५. निष्क्रमित/ प्रवजित मुनि [कर्म/संसार-] स्रोत को रोके । ऐसा महान-पुरुष
ही अकर्म को जानता है, देखता है।
११६. [मुनि] इस परिजात गति-आगति का प्रतिलेख कर आकांक्षा नहीं करता ।
११७. व्याख्यातरत/ज्ञानरत पुरुप जाति-मरण के वृत्त-मार्ग/चक्रमार्ग को पार कर
लेता है।
११८. जहां सभी स्वर निवतित हैं, तकं विद्यमान नहीं हैं, वहाँ बुद्धि का प्रवेश
नहीं हो पाता है।
लोकसार
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