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द्वितीय उद्देशक
२२. कुछ लोग लोक में अहिंसाजीवी हैं । वे इन [विषयों] में [अनासक्तिवश ] ही अहिंसाजीवी है ।
२३. जो इस विग्रहमान वर्तमान क्षरण का अन्वेषी है, वह इस [ संसार से ] उपरत होकर उन [विषयों ] को झुलसाता हुआ, 'यह संधि है' ऐसा देखे ।
२४. यह मार्ग प्रार्य पुरुषों द्वारा प्रवेदित है ।
२५. उत्थित पुरुप प्रमाद न करे ।
२६. प्रत्येक प्राणी के दुःख और सुख को जानकर [ श्रप्रमत्त वने । ]
२७. इस संसार में मनुष्य पृथक-पृथक इच्छा वाले, पृथक-पृथक दुःख वाले प्रवेदित हैं ।
२८. वह [ मुनि ] हिंसा न करते हुए अनर्गल न बोलते हुए, स्पर्शो से स्पृष्ट होने पर सहन करे ।
२९. यह समिति - पर्याय ( श्रमण - धर्म ) व्याख्यात है ।
३०. जो पापकर्मों में असक्त हैं वे कदाचित् प्रातंक / परीपह का स्पर्श करते हैं । ३१. यह महावीर ने कहा है कि वे स्पर्शो से स्पृष्ट होने पर सहन करे ।
३२. वह [ आतंक ]] पहले भी था, पश्चात् भी रहेगा ।
३३. तुम इस रूपसंधि / शरीर के भंगुर-धर्म, विध्वंसन-धर्म, ध्रुव, अनित्य, अशाश्वत, उपचय- अपचय और विपरिणाम- धर्म को देखो ।
३४. [ शरीर- धर्मे] संप्रेक्षक, एक ग्रायतन [आत्मा] में रत, विप्रमुक्त / अनासक्त विरत पुरुष के लिए कोई मार्ग / उपदेश नहीं है ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
लोकसार
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