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६. जिसे यह जाति (लोकवरणा-बुद्धि) नहीं है, उसके लिए अन्य क्या है ?
१०. जो यह कहा जाता है वह दृष्ट, श्रुत, मत और विज्ञात है।
११. आसक्त एवं लीन होने वाले पुरुप पुनः पुनः उत्पन्न होते रहते हैं।
१२. रात-दिन प्रयत्नशील धीर-पुरुष आगत प्रज्ञा से प्रमत्त को सदा वहिर्मुख देखे और सदा अप्रमत्त होकर पराक्रम करे ।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
द्वितीय उद्देशक
१३. जो आसन हैं, वे परिस्रव हैं। जो परिस्रव हैं, वे प्रास्रव हैं।
जो अनास्रव हैं, वे अपरिस्रव हैं । जो अपरिस्रव हैं, वे अनास्रव हैं । -इस पद का जाता लोक को प्राज्ञा से जानकर पृथक-पृथक प्रवेदित करे।
१४. संसार-प्रतिपन्न, संवुध्यमान, विज्ञान-प्राप्त मनुष्यों के लिए यह उपदेश
दिया है।
१५. प्राणी पाते भी हैं और प्रमत्त भी । यह यथासत्य है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
१६. मृत्यु-मुख के नाना मार्ग हैं - इच्छा-प्रणीत, वंकानिकेत/कुटिल, कालगृहीत
एवं संग्रह-निविष्ट । [ इन मार्गों पर चलने वाला ] पृथक्-पृथक जातियों जन्मों को प्राप्त करता है।
१७. इस संसार में कुछ लोगों के लिए उन स्थानों के प्रति मानो संस्तव/लगाव
होता है।
सम्यक्त्व