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पूर्व स्वर
प्रस्तुत अध्याय 'लोकसार' है । धर्मनान संयम/निर्वाण ही निखिल लोक का नवनीत है। आत्मा की मौलिकताएं प्रच्छन्न हैं। उन्हें अनावरित एवं निरभ्र करना ही प्रस्तुत अध्याय का अन्तस्वर है । अतः यह अध्याय अात्महितपो पुरुप का व्यक्तित्व है, अध्यात्म की गुणवत्ता का आकलन है।
अध्यात्म यात्म-उपलब्धि का अनुष्ठान है । अनुण्ठाता को स्वयं का दीपक स्वयं को ही वनना पड़ता है । 'स्वयं' 'अन्य' का ही एक अंग है। अतः दूसरों में स्वयं की और स्वयं में दूसरों की प्रतिध्वनि सुनना अस्तित्व का अभिनन्दन है । दूसरों में स्वयं का अवलोकन ही अहिंसा का विज्ञान है । सम्पूर्ण अस्तित्व का अन्तर्सम्बन्ध है । क्षुद्र से क्षुद्र जीव में भी हमागे जैसी आत्मचेतना है । अतः किमी को दुःख पहुंचाना स्वयं के लिए दुःख का निर्माण करना है । सुख का वितरण करना अपने लिए सुख का निमन्त्रण है । जीव का वध अपना ही वध है । जीव की कारणा अपनी ही करुणा है । अतः अहिंसा का अनुपालन स्वयं का संरक्षरण है।
अहिंसा और निर्विकारिता का नाम ही अध्यात्म है। साधक अध्यात्म का अध्येता होता है। अतः हिमा और विकारों से उसकी कैसी मैवी ! विकार/वासना भोग-सम्भोग स्वयं की अ-ज्ञान दणा है। साधक तो 'पागमचा/ज्ञानचक्षु' कहा जाता है, अतः इनका अनुगमन अन्धत्व का समर्थन है।
प्रस्तुत अध्याय अप्रमाद का मार्ग दरशाता है । साधक का परिचय-पत्र अप्रमाद ही है। अप्रमाद और अपरिग्रह दोनों जुड़वा हैं। भगवान् ने मूर्छा को परिग्रह कहा है । मूर्छा का ही दूसरा नाम प्रमाद है । प्रमाद हिंसा का स्वामी है । अतः मूर्छा से उपरत होना अध्यात्म की सही आराधना है।
मूर्छा एक अन्धा मोह है। वह अनात्म को आत्मतत्व के स्तर पर ग्रहण करता है । भगवान् की भापा में यह मिथ्यात्व का मंचन है। प्रात्मतत्त्व और अनात्मतत्त्व का मिलन विजातीयों का संगम है । दोनों में विभाजन-रेखा खींचना ही भेदविज्ञान है।