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२५. सर्वप्रथम प्रत्येक समय (सिद्धान्त ) को जानकर मैं पूछूंगा हे प्रवादी ! तुम्हारे लिए शाता दुःख है या अशाता ?
२६. समता प्रतिपन्न होने पर उन्हें ऐसा कहना चाहिये-
सभी प्राणियों, सभी जीवों, सभी भूतों और सभी सत्त्वों के लिए असाता अपरिनिर्वाण (ग्रनिष्ट) महामय रूप दुःख है ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
तृतीय उद्देशक
२७, वाह्य लोक की उपेक्षा कर । जो कोई ऐसा करता है, वह सम्पूर्ण लोक में विष्णु / विज्ञ होता है । ग्रनुवीची / अनुचिन्तन करके देख - हिंसा का त्याग करने वाला जीव ही पलित / कर्म को क्षीण करता है ।
२८. मृत / मुक्त-पुरुष की अत्र करने वाला धर्मविद् एवं ऋजु है ।
२६. यह दुःख हिंसज है, ऐसा जाननेवाला समत्वदर्शी कहा गया है ।
३०. वे सभी कुशल प्रवचनकार दुःख को परिज्ञा को कहते हैं ।
३१. इस प्रकार सभी ओर से कर्म परिज्ञात हैं
३२. इस संसार में आज्ञाकांक्षी पंडित अस्निग्ध, रागरहित एक ही आत्मा की संप्रेक्षा करता हुआ शरीर को धुने, स्वयं को कसे, अपने को जर्जर करे ।
३३. जिस प्रकार जीर्ण काष्ठ को अग्नि जला देती है, उसी प्रकार आत्म-समाहित पुरुप राग रहित होता है ।
सम्यक्त्व
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