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हैं। इसी से प्रवर्तित होती है सत्य की शोध-यात्रा । विना सम्यक्त्व के अध्यात्ममार्ग की शोभा कहाँ ? भला, ज्वर-ग्रस्त को माधुर्य कभी रसास्वादित कर सकता है। असम्यक्त्व मिथ्यात्व जीवन का ज्वर नहीं तो और क्या है ? सचमुच, जिसके हाथ में सम्यक्त्व की मशाल है, उसके सारे पथ ज्योतिर्मय हो जाते हैं ।
प्रस्तुत अध्याय संयमित एवं संवरित होने की प्रेरणा देता है । जिसने मन, वचन और काया के द्वार बन्द कर लिए हैं, वही सत्य का पारदर्शी और मेधावी साधक है। उसे इन द्वारों पर अप्रमत्त चौकी करनी होती है। उसकी आँखों की पुतलियाँ अन्तर्जगत के प्रवेश-द्वार पर टीकी रहती है। बहिर्जगत के अतिथि इमी द्वार से प्रवेश करते हैं । अयोग्य और अनचाहे अतिथि द्वार खटखटाते जरूर हैं, किन्तु वह तमाम दस्तकों के उत्तर नहीं देता, मात्र सम्यक्त्व की दस्तक सुनता है। वह उन्हीं लोगों की अगवानी करता है, जिससे उसके अंतर-जगत का सम्मान और गौरव वर्धन हो।
अस्तित्व का समग्र व्यक्तित्व सम्यक्त्व की खुली खिड़की से ही अवलोक्य है। अध्यात्म का अध्येता सम्यक्त्व से अपरिचित रहे, यह संभव नहीं है। व्यक्ति के मुपुप्त विवेक में हरकत पैदा करने वाला एकमात्र सम्यक्त्व ही है। यथार्थता का तट, सम्यक्त्व का द्वीप मिथ्यात्व के पार है। हृदय-शुद्धि, अहिंसा, संवर, कषायनिग्रह एवं संयम की पतवारों के सहारे असद्-सागर को पार किया जा सकता है।
स्वस्थ मन के मंच पर ही अध्यात्म के प्रासन को विछावट होती है। प्राध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए मन की निरोगिता अावश्यक है और मन को निरोगिता के लिए कषायों का उपवास उपादेय है । विषयों से स्वयं की निवृत्ति ही उपवास का सूत्रपात है । क्षमा, नम्रता और संतोष के द्वारा मन को स्वास्थ्य-लाभ प्रदान किया जा सकता है।
। प्रस्तुत अध्याय अनुत्तरयोगी महावीर के अनुभवों की अनुगूंज है। सम्यक्त्व का सिद्धान्त सत्य को न्याय-तुला है । जीवन को मौलिकताओं और नैतिक प्रतिमानों को उज्ज्वलतर बनाने के लिए यह सिद्धान्त अप्रतिम सहायक है। सत्रमुत्र, जिसके हाथ सम्यक्त्व-प्रदीप से शून्य हैं, वह मानो चलता-फिरता 'शव' है, अँधियारी रात में दिग्भ्रान्त-पान्थ है। साधक के कदम बढ़ें जिन-मग पर, अन्धकार से प्रकाश की ओर । मुक्त हो जीवन की उज्ज्वलता, मिथ्यात्व की अँधेरी मुट्ठी से ।