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पूर्व स्वर
प्रस्तृत अध्याय 'सम्यक्त्व' है । अध्याय की दृष्टि से यह चौथा चरण है, किन्तु अध्यात्म की दृष्टि से पहला । यह अर्हत-दर्शन की वर्णमाला का प्रथम अक्षर है। यही जैनत्व की अभिव्यक्ति है। यह वह चौराहा है, जिसमें अध्यात्म-जगत के कई राज-मार्ग मिलते हैं । अतः सम्यक्त्व के लिए पगक्रम करना महावीर के महापथ का अनुगमन/अनुमोदन है।
'सम्यक्त्व' साधुता और ध्रुवता की दिव्य आभा है। सम्यक्त्व और साधुता के मध्य कोई द्वैत-रेखा नहीं है। साधु सम्यक्त्व के बल पर ही तो संसार की चारदिवारी को लांघता है। इसलिए सम्यक्त्व साधु के लिए सर्वोपरि है।
सत्यदर्शी महावीर सम्यक्त्व की ही पहल करते हैं। उनकी दृष्टि में सम्यक्त्व. विशेपणों का विशेपण है,प्राभूपणों का भी आभूपण है । यह सत्य की गवेषणा है। साधक प्रात्म-गवेपी है । आत्मा ही उसके लिए परम-सत्य है। इसलिए सम्यक्त्व साधक का सच्चा व्यक्तित्व है। उसकी आँखों में सदा अमरता की रोशनी रहती है। कालजयी क्षरणों में जीने के लिए ही उसका जीवन समर्पित है। कालजयता के लिए अस्तित्व का अभिज्ञान अनिवार्य है। अस्तित्व शाश्वत का घरेलु नाम है। सम्यवत्व उस शाश्वत की ही पहिचान है।
सम्यक्त्व प्रात्म-विकास की प्राथमिक कक्षा है। वस्तु-स्वरूप के बोध का नाम सम्यक्त्व है। विना सम्यक्त्व के साधक वस्तु मात्र की अस्मिता का सम्मान कसे करेगा? पदार्थों का श्रद्धान कैले किलकारियां भर सकेगा ? अहिंसा और करणा कसे संजीवित हो पायेगी ? अध्यात्म की स्नातकोत्तर सफलताओं को अर्जित करने के लिए सम्यक्त्व की कक्षा में प्रवेश लेना अपरिहार्य है।
साधक की सबसे बड़ी सम्पदा सम्यक्त्व ही है। प्रात्म-समीक्षा के वातावरण में इसका पल्लवन होता है । सम्यक्त्व अन्तदप्टि है। इसका विमोचन बहिष्टियों को संतुलित मार्गदर्शन है। फिर वे सत्य का आग्रह नहीं करतीं, अपितु सत्य का ग्रहण करती हैं । माटी-सोना, हर्प-विपाद के तमाम द्वन्द्वों से वे उपरत हो जाती