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२४. हिंसक पुरुष उभय (शरीर व मन) का अनुपश्यी है।
२५. काम-गृद्ध पुरुप संचय करते हैं और संचय करते हुए पुनः पुनः गर्भ प्राप्त
करते हैं।
२६. वह हँसी में भी हनन करके आनन्द मानता है ।
२७. वालक (मूढ़) की संगति से क्या प्रयोजन ?
२८. वह अपना वैर वढ़ाता है।
२६. ये तीन [सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र] विद्याएँ परम हैं, यह जानकर . अातंकदर्शी/आत्मदर्शी पाप नही करता है।
३०. धीर-पुरुप अग्र [घाती कर्म] और मूल [मिथ्यात्व] का त्याग करे । ३१. कर्म-छेदन करने वाला निष्कर्मदर्शी है, वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है।
३२. वही पथद्रष्टा मुनि है ।
३३. लोक में परमदर्शी, विविक्त जीवी, समत्वयोगी उपशान्त, समितिसहित, सदा
विजयी, कालकांक्षी (समाधिमरणाकांक्षी) होकर परिव्रजन करता है।
३४. निश्चय ही बहुत से पापकर्म किये गये हैं।
३५. सत्य में धृति करो।
३६. . इस [सत्य] में रत रहने वाला मेवावी पुरुष समस्त पाप-कर्मों का शोपण
कर डालता है।
३७. निश्चय ही यह पुरुष अनेक चित्तवान है । वह केतन/चलनी को पूरना/भरना
चाहता है।
शीतोष्णीय