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४८. इसलिए न मारे, न घात करे ।
४६. जो एक दूसरे को चिकित्सिक की तरह प्रतिलेख (परीक्षण) करके पाप कर्म नहीं करता है, क्या यह मुनि-पद का कारण है ?
५०. समता का प्रेक्षक आत्मा को प्रसन्न करे, निर्मल करे ।
५१. अनन्य परम ज्ञानी (आत्मज्ञ ) कभी भी प्रमाद न करे ।
५२. आत्म- गुप्त वीर सदा यात्रा की मात्रा (संयम ) का उपयोग करे ।
५३. महान या क्षुद्र रूपों से विराग करे ।
५४. प्रगति और गति को जानकर दोनों ही अन्तों ( राग-द्वेप) से अदृश्यमान होता हुआ वह ज्ञानी सम्पूर्ण लोक में किसी तरह से न तो छेदा जाता है, न भेदा जाता है, न जलाया जाता है, न मारा जाता है ।
५५. कुछ लोग अतीत और भविष्य का स्मरण नहीं करते । कुछ मनुष्य कहते हैं कि अतीत में क्या हुआ और भविष्य में क्या होगा ?
५६. तथागत को न तो अतीत से प्रयोजन है, न भविप्य से प्रयोजन है । विधूतकल्पी मह इनका अनुपश्यी बने । वह इन्हें धुनकर क्षय करे ।
५७. क्या ग्ररति है, क्या आनन्द है ? इन्हें ग्रहण किये बिना विचरण करे |
५८. ग्रालीन- गुप्त ( त्रिगुप्त ) पुरुष सभी प्रकार के हास्य का परित्याग कर परिव्रजन करे |
५९. हे पुरुष ! तुम ही तुम्हारे मित्र हो । फिर बाहरी मित्र की इच्छा क्यों करते हो !
६०. जो उच्चालय (जीवात्मा) को जानता है, वह दूरालय ( परमात्मा) को जानता है । जो दूरालय ( परमात्मा ) को जानता है, वह उच्चालय ( जीवात्मा) को जानता है ।
शीतोष्णीय
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